रविवार, 3 जून 2018

संघर्षो का अनुपम नगर : बक्सर (गंगा जी कहिन - 1 )

जैसा कि आप जानते है , नदियों से बात करना मुझे हमेशा से ही अच्छा लगता है, क्योंकि नदियां ही हैं, जिनसे आप बहुत कुछ जान सकते हैं, समझ सकते हैं, पहचान सकते हैं । नदियों किनारे ही मनुष्य की सभ्यता और संस्कृति न केवल जन्मी बल्कि पल्लवित-पुष्पित होकर आज के आधुनिक स्वरुप में भी आई । इससे पहले आपने ओरछा में मां वेत्रवती से मेरा संवाद ओरछा गाथा के रूप में पढ़ा ही होगा ,जिन्होंने नहीं पढ़ा वह इस लिंक पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं ।
                                              आज मैं आपको भारत की सबसे प्रसिद्ध और पतित पावनी मां गंगा से हुए अपने संवाद से रूबरू कराऊंगा । मां गंगा के बारे में बताने की आवश्यकता तो है ही नहीं ! क्योंकि शायद ही कोई भारतीय होगा जो गंगा से परिचित नहीं होगा । उत्तर भारत की जीवन रेखा और संपूर्ण भारत की सांस्कृतिक ध्वजा देवनदी गंगा के किनारे जन्म लेने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ । मध्य बिहार के उत्तर प्रदेश की सीमा से लगे हुए एक गांव गोप भरौली में मेरा जन्म हुआ जिसका जिला मुख्यालय बक्सर है । कुछ वर्ष पूर्व अपने गृह प्रवास के दौरान बक्सर के रामरेखा घाट जाने का अवसर प्राप्त हुआ और उसी दौरान मां गंगा से एकांत में कुछ बातें हुई । उसी संवाद को आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूं और उम्मीद ही नहीं पूरा विश्वास है कि आप बेतवा की जुबानी  ओरछा की कहानी  की तरह इस संवाद को भी पसंद करेंगे ।
                                       कुछ साल पहले की बात है मेरे रिश्तेदारी में  एक बच्चे का मुंडन होना था, जो बक्सर के रामरेखा घाट गंगा तट पर निश्चित था । परंतु मेरा स्वास्थ्य ठीक नहीं था, शरीर ज्वर से पीड़ित था और तन का तापमान बढ़ा हुआ था । परंतु जब सब घर वाले वहां जा रहे थे तो मैं अकेला घर पर रहकर करता भी क्या इसलिए बेमन से ही मैं सबके साथ चल पड़ा । अब बीमारी की हालत में मुंडन कार्यक्रम में मेरी कोई रूचि तो नही थी, इसलिए रामरेखा घाट पर एक किनारे पर एक खाली मचान पर मैं बैठ गया । घर परिवार के सदस्य और रिश्तेदार मुंडन कार्यक्रम में व्यस्त हो गए । इधर मैं अनवरत गंगा की लहरों को देख रहा था, गंगा के विशाल पाट में  लहरें समुद्र का अहसास दे रही थी । इन लहरों की तरफ न जाने क्यों मैं सम्मोहित सा एकटक देख रहा था । लहरों का सम्मोहन इतना था कि मेरे आस-पास हो रहे शोरगुल से भी मैं बिल्कुल अनजान बना बैठा था । सूर्यनारायण अपनी मध्य अवस्था में तेजी से चमक रहे थे और सूर्य की किरणें गंगा जल में उछल-कूद कर रही थी । इस शोरगुल के बीच भी न जाने क्यों मुझे एक असीम शांति का अनुभव हो रहा था।  एक तरफ गंगा की लहरें बक्सर के किले के प्राचीर से टकरा कर लौट रही थी तो दूसरी तरफ लहरें अनंत की ओर जाने के प्रयास में थी । लहरों की तरफ देखते देखते अचानक मेरी आंखो के सामने अंधेरा सा छाने लगा और भरी दोपहरी में जो ना सोचा था वह हुआ ।
 एक अति मधुर तुम ध्वनि गंगा की लहरों से गूंजी , कैसे हो पुत्र ? जब मैंने चारों तरफ देखा तो आवाज लहरों की तरफ से आ रही थी और लहरों में एक नारी की आकृति बन रही थी । सूर्य की किरणों के कारण उस आकृति में एक दिव्यता का अद्भुत अनुभव हो रहा था । मेरे आश्चर्य मिश्रित भाव को देख कर तो यह आवाज आई कि वक्त घबराने की बात नहीं मैं गंगा हूं !
गंगा ?
हां मैं गंगा नदी हूं !
सचमुच ?
हां बस मैं सचमुच वही गंगा हूं जो ब्रह्मा के कमंडल से विष्णु के चरणों से होते हुए स्वर्ग में प्रवाहित हुई और भागीरथ के प्रयास से शिव की जटाओं से होते हुए इस पृथ्वी पर अवतरित हुई ।
क्या मैं सपना देख रहा हूं ?
नहीं पुत्र, तुम कोई सपना नहीं देख रहे बल्कि मैं स्वयं तुम से वार्तालाप करने के लिए उपस्थित हुई हूं !
अहोभाग्य मेरे जो आपने मुझ जैसे अधम पातक को वार्तालाप के लिए चुना !
ना पुत्र तुम अधम पातक नहीं हो मेरे स्पर्श के पश्चात तो बड़े-बड़े पापी भी पुण्यात्मा हो जाते हैं । और तुमसे तो साक्षात्कार करने का निर्णय मैंने स्वयं लिया है ।
मेरी खुशी की सीमा नहीं थी, क्योंकि स्वयं देवनदी पतित पावनी मां गंगा मुझसे साक्षात्कार कर रही थी । मां गंगा को मैंने दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम किया ।
तभी बक्सर किले की प्राचीर से टकराकर एक लहर कुछ जल बिंदुओं को लेकर मेरे ऊपर से गुजरी मानो स्वयं मां गंगा अपना आशीर्वाद दे रही हो ।
मां गंगा से मेरी बातचीत करने की बहुत पुरानी इच्छा थी, जो आज पूरी हो रही थी और मेरे मन में न जाने कितने विषय और प्रश्न थे जो मुझे मां गंगा से पूछने थे परंतु आज बक्सर किले के प्राचीर को देखकर मेरे मन में इस शहर के इतिहास उत्थान पतन के बारे में उत्सुकता थी ।
मां गंगा  को हाथ जोड़े जोड़े ही मैंने पूछा - क्या आप मुझे इस बक्सर शहर की गाथा सुनाएंगी ?
मां गंगा मंद मंद मुस्कुरा आई और बोली क्यों नहीं इस नगर को दो मैंने बड़ी करीब से देखा है बड़ा ही संघर्ष किया है इस नगर ने...

संघर्ष !! क्या शहर भी संघर्ष करते हैं ?

बिल्कुल पुत्र शहर जन्मते हैं बढ़ते हैं और मरते भी हैं उनमें भी जीवन होता है इसलिए वह संघर्ष भी करते हैं ।

तो फिर मुझे सुनाइए ना इस बक्सर शहर की जन्म गाथा से लेकर संघर्ष गाथा तक..

मां गंगा की लहरों में थोड़ा सा ठहराव  आ गया ,  जैसे वह इतिहास में गोता लगाने गई हो और मेरे लिए बक्सर के संघर्ष की गाथा साथ लेकर लौटने वाली हो ।

कुछ देर की शांति पश्चात लहरों से पुनः आवाज़ को गूंजी ! बक्सर को अलग अलग समय मे वेदगर्भपुरी , करूष , तपोवन, चैत्रथ, व्याघ्रसर और सिद्धाश्रम के नाम से जाना गया है । बक्सर के इतिहास के लिए हमें वैदिक काल की तरफ चलना होगा । वैदिक काल में इस स्थान पर बहुत ही घना जंगल होता था और उस जंगल में बाघों का निवास हुआ करता था । जंगल के बीचो-बीच एक बहुत बड़ा सरोवर भी था जहां बाघ पानी पीने आते थे । इसी कारण उस सरोवर का नाम व्याघ्र सर पड़ा । और व्याघ्रसर ही आगे चलकर बक्सर में रूपांतरित हुआ ।

लेकिन माते, जिस सरोवर के नाम पर बक्सर का नामकरण हुआ , वो वर्तमान में कहां गया ?

पुत्र,  वर्तमान रेलवे स्टेशन के पास जो कमलदह पोखरा है, वही कभी व्याघ्रसर सरोवर था । आज वह अतिक्रमण की भेंट में सिकुड़ गया है । व्याघ्रसर में बाघों के अलावा उस जंगल में मेरे तट पर 80,00 ऋषि मुनियों के आश्रम भी थे, जहां पर वह वेद पाठ और यज्ञ हवन आदि भी करते थे । कई वेद मंत्रों के रचयिताओं के आश्रम होने के कारण इस स्थान को वेद गर्भ भी कहा जाता था । इस क्षेत्र के आसपास ही महर्षि विश्वामित्र, गौतम ऋषि, भृगु ऋषि और उनके शिष्य दर्दर ऋषि आदि के प्रसिद्ध आश्रम थे । वर्तमान चरितर वन क्षेत्र में विश्वामित्र ऋषि का आश्रम था जबकि गंगा के दूसरे तट पर अहिरौली गांव में गौतम ऋषि का आश्रम था । नदांव ग्राम में नारद मुनि का आश्रम था , वर्तमान बलिया मैं भृगु ऋषि और उनके शिष्य )दर्दर ऋषि का भी आश्रम था । बक्सर को पुराणों में अनेक नामों से जाना गया है ।
वराह पुराण में लिखा है-
कृते सिद्धाश्रम प्रोक्तः त्रेतायां वामनाश्रमः ।
द्वापरे वेद गर्भेति कलौ व्याघ्रसयः स्मृतम ।।
कृते चैत्र स्थम प्रोक्तः त्रेतायां लटकाश्रम ।
द्वापरे चरितं नाम कलौवनं चरित्रकम ।।

ब्रह्म पुराण में कहा गया है-
महात्म्य वेदगर्भया वक्तं, कोहि क्षमो भवेत ।
यदि वर्ष सहस्रेण ब्रम्हा वक्तं, न शक्यते ।।
 त्रेता युग आते आते इस पुण्यभूमि पर राक्षसों का प्रवेश हुआ और ताड़का, मारीच और सुबाहु के आतंक से यह पूरा क्षेत्र परेशान हो गया । राजा से ऋषि बने राजर्षि विश्व मित्र अयोध्या नरेश दशरथ जी के यहां पहुंचे और उन्होंने अपनी व्यथा सुनाई कि इन राक्षसों के कारण वह यज्ञ हवन आदि कार्य नहीं कर पा रहे हैं । और राक्षसों से मुक्ति के लिए उन्होंने महाराज दशरथ से उनके यशस्वी पुत्र राम और लक्ष्मण को मांगा । कुलगुरु वशिष्ठ जी की आज्ञा के पश्चात बड़ी मुश्किल से महाराज दशरथ ने राजर्षी विश्वामित्र के साथ अपने प्रिय पुत्रों को भेजा । जहां विश्वामित्र जी ने न केवल राम और लक्ष्मण को शिक्षा दी बल्कि उन्हें युद्ध विद्या पर भी पारंगत किया । जब भगवान राम और लक्ष्मण महर्षि विश्वामित्र के आश्रम में शिक्षा प्राप्त कर रहे थे तो प्रतिदिन देखते कि ब्रह्म मुहूर्त के पूर्व ही अंधेरे में गुरुजी निकलकर गायब हो जाते और सूर्य उदय के पश्चात लौटते थे । एक दिन भगवान राम ने आखिरकार गुरु विश्वामित्र से पूछ ही लिया कि इतने अंधेरे में गुरु जी आप प्रतिदिन किधर जाते हैं ?
तब गुरु विश्वामित्र ने उत्तर देते हुए कहा कि वह प्रतिदिन गंगा स्नान करने काशी जाते हैं ।
काशी ! गंगा तो हमारे निकट से ही प्रवाहित होती है तब आपको स्नान करने इतनी दूर काशी क्यों जाना पड़ता है ?
वत्स काशी में गंगा उत्तरवाहिनी है जिसका अधिक पुण्य प्राप्त होता है इसलिए मैं प्रतिदिन गंगा स्नान काशी में ही करता हूं ।
भगवान राम बोले कि सिर्फ उत्तरवाहिनी गंगा के कारण आपको इतना परिश्रम करना पड़ता है तो गुरुदेव आज से आपको काशी जाने की आवश्यकता नहीं है । इतना कहकर भगवान राम ने अपने तरकश से एक बार निकाला और गंगा के पास एक रेखा खींची जिसके कारण गंगा यानी मैं बक्सर में भी उत्तरवाहिनी हो गई और तब से लेकर आज तक लोग उस तट को रामरेखा घाट के नाम से जानते हैं । आज ही यह घाट एक तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध है और दूर-दूर से लोग यहां पर गंगा स्नान करने, मुंडन इत्यादि कर्म करने भी आते हैं ।
                                                        गुरु विश्वामित्र के नित्य नियम हवन में राक्षसी ताड़का और उसके भाई मारीच और सुबाहु विघ्न डालते थे। ताड़का लंकाधिपति रावण की मौसी थी , और उस समय रावण पृथ्वी ही नहीं तीनों लोको में अपराजित था , अतः कोई भी शासक ताड़का और उसके भाइयों को रोकने में डरते थे। विश्वामित्र आदि ऋषि भी इनसे अत्यंत पीड़ित थे , इन राक्षसों के उत्पीड़न से बचने ही तो विश्वमित्र जी अयोध्या नरेश दशरथ जी के दोनों सुपुत्रों को अपने आश्रम लेकर आये थे।  एक दिन गुरुदेव विश्वमित्र जब अपने यज्ञ कर्म में लीन थे, तभी ताड़का अपने दोनों भाइयों के साथ विश्वामित्र आश्रम आ गयी और उत्पात करने लगी , तब विश्वामित्र जी के आदेशानुसार भगवान राम ने ताड़का और सुबाहु का वध किया जबकि मारीचि को अपने एक बाण से दूर समुद्र तट पर फेंक दिया । कहते हैं कि ताड़का के मरने पर उससे इतना अधिक रक्त प्रवाह हुआ कि एक नाला बन गया जिसे आज भी ताड़का नाला कहा जाता है । आगे चलकर यही मारीचि स्वर्ण मृग बना और सीता का रावण  अपहरण किया।  दुःख की बात है , कि  वर्तमान में विश्वमित्र आश्रम की हालत जीर्ण-शीर्ण हो गयी है। इस तरह भगवान राम ने इस पुण्य भूमि से ही असुर संहार कार्यक्रम की शुरुआत की । बक्सर से ही जब गुरु विश्वामित्र मुझे (गंगा को ) पारकर मिथिला में आयोजित धनुष यज्ञ को दिखाने राम और लक्ष्मण को लेकर जा रहे थे तो रास्ते में गौतम ऋषि का आश्रम पड़ा और वहां पर उनकी पत्नी अहिल्या पत्थर की शिला बनी पड़ी थी ।
कहानी में विघ्न डालते हुए मैंने मा गंगा से प्रश्न किया कि आखिर ऐसा क्या हुआ था कि गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या को पत्थर की शिला बनना पड़ा ?
(क्रमशः जारी )
बक्सर रेलवे स्टेशन पर लगा विश्वमित्र जी म्यूरल 
दिल्ली -हावड़ा लाइन पर बक्सर रेलवे स्टेशन 
जिन स्थानों पर भगवान श्रीराम के चरण पड़े 
अहिरौली का गंगा घाट 
नमामि गंगे 
रामरेखा घाट ( चित्र गूगल से साभार )
बक्सर किले की एक पुरानी पेंटिंग ( साभार -बक्सर प्रशासन )

42 टिप्‍पणियां:

  1. नई व रोचक जानकारी के साथ बहुत अच्छा लेख

    जवाब देंहटाएं
  2. बक्सर के पौराणिक इतिहास के बारे में जानकर अच्छा लगा।

    जवाब देंहटाएं
  3. वाह भैया बहुत अच्छा लिखे है।

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत सुंदर व रोचक विवरण

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत सुंदर संवाद। आगे की कड़ी के लिए इन्तजाररत हूँ!
    🤔🤔

    जवाब देंहटाएं
  6. तुम्हारी लेखनी में तो दम है ही ओर लिखा भी सजीव हैं इतिहास जानकर हर्ष हुआ।

    जवाब देंहटाएं
  7. वाह चंदनजी , बहुत बढ़िया साक्षात्कार करवाया आपने माँ गंगा मैया से हमारा....और साथ ही बक्सर का इतिहास जानकर अच्छा लगा।������

    जवाब देंहटाएं
  8. माँ गंगा की जुबानी बक्सर के पौराणिक इतिहास के बारे में पढ़कर अच्छा लगा.आप भी पुरानी लय में नज़र आये

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आभार प्रोत्साहन के लिए । इसी तरह के प्रोत्साहन से तो लय मिलती है ।

      हटाएं
  9. पांडेय जीजी प्रणाम... मां गंगा से संवाद व बक्सर का पौराणिक इतिहास को दिल से महसूस किया। आपके बताने की कला निराली है पाठक को बांध कर रखती है।

    जवाब देंहटाएं
  10. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (05-06-2018) को "हो जाता मजबूर" (चर्चा अंक-2992) (चर्चा अंक-2985) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    जवाब देंहटाएं
  11. ये वाला मैप संभाल के रखियेगा जिसमें भगवान् श्री राम की जगहों को दर्शाया गया है !! बक्सर होकर कई बार जाना हुआ होगा लेकिन अभी तक इसके गंगा घाट नहीं देखे !! बढ़िया विवरण लिखा आपने पांडेय जी

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. जी संभाले हुए हैं । आप इसे बक्सर के भक्तमाल जी के आश्रम में देख सकते हैं ।

      हटाएं
  12. आपकी लेखनी की तो कोई जबाब ही नही,मा गंगे की कहानी आपकी जुबानी बहुत ही खूबसूरत,,,,बहुत अच्छी प्रस्तुति ।।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आज मेरी लेखनी भी धन्य हो गई आपका कमेंट पढ़कर । स्नेह बनाये रखिये ।

      हटाएं
  13. बहुत बढ़िया वर्णन भाई जी। इतिहास को आपके नजरिये से जानने का आनंद ही अलग है। अभिनन्दन 💐

    जवाब देंहटाएं
  14. बहुत ही खूबसूरती से लिखा गया है ये लेख और लगता है आपके साथ हम भी गंगा मां से बतिया रहे हैं , कितना बड़ा इतिहास समेत दिया है आपने मैं भी वहां गई थी और कुछ देर खड़ी रही थी लेकिन आपने फिर से मुझे वहां में से पहुंचा दिया आगे का भाग भी भेज दें 🙏🙏🙏🙏✍️✍️✍️✍️✍️✍️✍️ वाह

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. बहुत बहुत आभार विजया जी , जल्दी ही आगे का भाग लिखुँगां ।

      हटाएं
  15. गंगापुत्र बनकर आपने बक्सर के अतीत और नगरनिर्माण कथा को एककथावाचक के रूप में सामने रखा है,,बहुत-बहुत धन्यवाद

    जवाब देंहटाएं
  16. बहुत बढ़िया सर! हम भी यहाँ घूमना चाहते हैं देखते हैं कब जाना होता है

    जवाब देंहटाएं
  17. क्या कोई इस तरह भी बेहते पानी से बात कर सकता है
    एक दो बार नहि पाँच बार पड़ा ये blog
    तब जाकर जीवन प्रदायनि माँ गंगा के अविरल रूप को हल्का सा समझ पाया।
    अब लगता है की कितना वृहद् स्वरूप है गंगा जी का।
    बहुत अच्छा लिखा है आपने मुकेश जी🙏

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सुमित जी बहुत बहुत आभार आपका । ईश्वर की कृपा कहिए कि मैं नदियों से बात करता हूँ । इससे पहले मैंने ओरछा में बेतवा नदी से भी बात की जो इसी ब्लॉग पर लगभग 6 भागो में उपलब्ध है ।

      हटाएं
  18. जहाँ जहाँ चरण परे रघुवर के बारे में मुझे और बताइए प्लीज्

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आभार राजीव जी, इस श्रृंखला का अगला भाग भी इसी ब्लॉग पर लिखा है ।

      हटाएं
  19. वाह भैया गजब जानकारी
    मां गंगा से आप का संवाद वाकई में लाजवाब है
    मां गंगा से आपके संवादों को बहुत रोचक तरीके से प्रस्तुत करा है आपने
    आनंद आ गया

    जवाब देंहटाएं

ab apki baari hai, kuchh kahne ki ...

orchha gatha

बेतवा की जुबानी : ओरछा की कहानी (भाग-1)

एक रात को मैं मध्य प्रदेश की गंगा कही जाने वाली पावन नदी बेतवा के तट पर ग्रेनाइट की चट्टानों पर बैठा हुआ. बेतवा की लहरों के एक तरफ महान ब...