एक अपनी यादगार रेलयात्रा सुनाता हूँ ।
जनवरी 2006 की बात है । तब मैं इलाहबाद में सिविल की तैयारी कर रहा था । उत्तर भारत कड़ाके की सर्दी और कुहरे में लिपटा हुआ था, लिहाजा सभी ट्रेनें परम्परानुसार लेट ही चल रही थी । कई ट्रेने कैंसिल भी हो चुकी थी । मेरी मम्मी का आदेश था , कि खिचड़ी ( मकर संक्रांति) को गांव (बक्सर जिला बिहार) आ जाओ । चूँकि कोचिंग की मात्र एक दिन की छुट्टी थी, तो मेरा मन नही था।लेकिन जब माँ का आदेश हो तो जाना ही है ।
13 जनवरी 2006 को इलाहाबाद में सर्दी कम थी, इसलिए मैने इनर के अलावा गर्म कपड़ो में कुछ नही पहना । हाँ बैग में एक हाफ स्वेटर डाल लिया। बस सुबह सुबह पहुँच गए इलाहबाद स्टेशन । बक्सर तक का इलाहाबाद से लगभग साढ़े चार-पांच घंटे का सफ़र है । अब स्टेशन पर पहुचने के बाद पता लगा सभी ट्रेनें अपने समय कुछ देरी से चल रही है । इसके लिए रेलवे की अनोउंसर बाकायदा खेद व्यक्त कर रही थी । हर थोड़ी देर में बताया जाता की फलानी ट्रेन अपने तय समय से कुछ (मतलब एक या दो घंटे की) देरी से चल रही है । इसके लिए रेलवे को हर बार खेद हो रहा था । हम भी उनके खेद को समझते हुए पूरे दिन से स्टेशन पर डटे रहे । अब दिन ढलने लगी , अँधेरा घिर आया और स्टेशन की बत्तियां जल उठी । बीच में कई बार मन वापस कमरे पर जाने का किया । मगर रेलवे की कुछ देर की देरी ने रोक रखा कि बस एक या दो ही घंटे की बात है । पर इस तरह पूरा दिन ही स्टेशन पर गुजर गया ।
खैर हमारे इंतजार की इंतहा को तोड़ते हुए दिल्ली से हावड़ा जाने वाली जनता एक्सप्रेस आई । ये अपने समय से पूर्व थी । अब हमारे आश्चर्य का ठिकाना नही था । लेकिन जो लोग कभी गलती से इस ट्रेन में बैठे है । जानते होंगे कि इसका नाम में ही बस एक्सप्रेस है ,वरना ये अपनी रफ़्तार और रुकने में कई बार पैसेंजर को भी शरमा दे । इसमें अधिकांश सामान्य श्रेणी के डिब्बे है । खैर खुद की खैर मनाता हुआ मैं एक जनरल बोगी में जैसे तैसे दाखिल हुआ । पूरी बोगी में लोग भेंड़ बकरियों से भी बुरी हालात में ठुसे हुए थे । अब मरता क्या न करता । वापिस उतरने की हिम्मत या कहे जगह ही नही थी । अब खड़े खड़े ही सफ़र करना था । बोगी में अधिकांश यात्री दिल्ली में मजदूरी करने वाले बिहारी ही थे । अब एक साइड बर्थ में एक विकलांग किशोर बैठा अकेला ही बैठा था । एक उम्मीद जगी , मैं उसके पास खड़ा हो गया । अब उससे बातें करने लगा जैसे कहाँ से आ रहा है ? कहाँ जा रहा है ? साथ में कौन है ? इतनी बातों में पता चला वो किशोर अनाथ था , दिल्ली में किसी आमिर व्यक्ति ने पाला था । अब वो कोलकाता अपने किसी रिश्तेदार के पास जा रहा था। थोड़ी देर की बातचीत में उससे दोस्ती हो गयी । और उसने अपने बगल में बैठने की जगह दे दी । खैर गाड़ी अपनी रेंगती सी चाल में हर स्टेशन यहां तक हाल्ट पर भी रुकती जा रही थी । खैर हम कभी अपनी किस्मत पर रोते तो कभी भारतीय रेलवे की हालत पर रोते हुए आधी रात को बक्सर पहुंचे ।
लेकिन हमारी किस्मत तो पूरी तरह से परेशां करने के मूड में थी । बक्सर में भयंकर ठण्ड थी । लेकिन पूरा स्टेशन मकर संक्राति पर गंगा स्नान के लिए आये यात्रियों से भरा पड़ा था । लोग पुआल बिछाकर पुरे स्टेशन पर घर जैसे कम्बल ओढ़कर सो रहे थे । अब आधी रात को गांव जाने को कोई साधन मिलना ही न था । मतलब पूरी रात स्टेशन पर ही काटनी थी । बैग से हाफ स्वेटर निकालकर पहना, पर इससे तो ठण्ड पर कोई असर ही न पड़ा । अब बैठने की भी कोई जगह नही और ठण्ड अलग लग रही थी । जब ज्यादा ठण्ड लगती तो पूरे प्लेटफार्म का तेज क़दमों में चक्कर लगा आता । इससे गर्मी भी आ जाती और प्लेटफार्म में जगह की खोज भी हो जाती । इस तरह के सात आठ चक्करों के बाद एक बेंच पर एक आर्मी के सूबेदार अपने बैग के साथ बैठे दिखे । अपन भी चल दिए सूबेदार साहब सिग्नल कोर से थे , और हम भी एन सी सी में सिग्नल कोर में थे । बस क्या था ! शुरू हो गयी सिग्नलिंग । हमे ग्रीन सिग्नल देकर सूबेदार साहब ने अपना बैग बेंच से नीचे रखकर अपने बगल में पनाह दी । अब बैठने की जुगाड़ तो हो गयी , लेकिन ठण्ड का क्या करे ? बैठने के बाद तो और भी लगने लगी । हमारी कंपकपी को देखकर सूबेदार साहब ने अपने बैग से कम्बल निकाला और ओढ़ने को दिया । अब कुछ देर हम कम्बल ओढ़ते और सूबेदार साब पहरा देते । फिर हम पहरा देते तो सूबेदार साब कम्बल ओढ़कर लेटते थे । इस तरह रात काटी । सुबह तूफान एक्सप्रेस से मैं डुमराव और सूबेदार साब रघुनाथपुर उतरे । और हम किसी तरह घर पहुँच पाये । आज भी वो मकर संक्रांति याद आ जाती है ।
भयंकर सर्दी में लोगों से पटा रेलवे स्टेशन |
हमारे देश में जो जुगाड़ में फिसड्डी होगा उसका तो भगवान् ही मालिक है
जवाब देंहटाएंयादगार यात्रा
सही कहा कविता जी
हटाएंआभार
सही कहा कविता जी
हटाएंआभार
अपने देश में मौसम और ट्रेन का भरोसा ही नहीं है,
जवाब देंहटाएंशानदार रत गुजारी ठंड मै
आप इसे शानदार रात गुजारना कह रहे है ,आज भी याद कर के मेरे रोंगटे खड़े हो जाते है ।
हटाएंअपने देश में मौसम और ट्रेन का भरोसा ही नहीं है,
जवाब देंहटाएंशानदार रत गुजारी ठंड मै
यादगार यात्रा
जवाब देंहटाएंआभार
हटाएंयादगार यात्रा
जवाब देंहटाएंबहुत ही यादगार यात्रा दरोगा साब
जवाब देंहटाएंजी श्याम भाई
हटाएंबहुत ही यादगार यात्रा दरोगा साब
जवाब देंहटाएंपांडे जी काफी अच्छा लिखा है । फॉर्मेट नहीं किया शायद आपने । पिछली कुछ पोस्ट पढ़ी वहाँ भी यही महसूस हुआ । पैराग्राफ equalize कर लिया करें।
जवाब देंहटाएंजी आगे से आपकी इस महत्वपूर्ण सलाह का ध्यान रखूँगा । आभार
हटाएंआभार शास्त्री जी
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लिखा है आपने अपनी यादगार यात्रा को।
जवाब देंहटाएंआभार सचिन भाई
हटाएंरेलवे को हमेशा ही खेद होता है। मजेदार संस्मरण दरोगा बाबू।
जवाब देंहटाएंआभार बीनू भाई
हटाएंअपने देश में मौसम और ट्रेन का भरोसा ही नहीं है यादगार यात्रा पांडे जी
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर प्रस्तुति :)
बहुत दिनों बाद आना हुआ ब्लॉग पर प्रणाम स्वीकार करें
आभार संजय जी । स्नेह बनाये रखे ।
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