गुरुवार, 9 मई 2019

गंगा जी कहिन : अहिल्या का उद्धार (बक्सर गाथा -2)



अहिरौली गंगा घाट (बक्सर , बिहार ) चित्र प्रतीकात्मक है।  
इस श्रृंखला की पहली पोस्ट में आपने पढ़ा, कैसे मेरे और मां गंगा के बीच संवाद शुरु हुआ और मैंने उनसे कैसे बक्सर का प्रारंभिक इतिहास जाना । परंतु मेरा प्रश्न अनुत्तरित रह गया था , कि भगवान राम ने कैसे अहिल्या का उद्धार किया ?  
चूँकि मैं जीवन यापन के लिए मां गंगा से सैकड़ों किलोमीटर दूर बेतवा किनारे ओरछा में रहता हूं और साल में एक या दो बार ही आना हो पाता है, इसलिए मां गंगा से  मुलाकात अधूरी रही और महीनों तक यह प्रश्न मेरे मन में भ्रमण करता रहा, कि आखिर भगवान श्री राम अपने गुरु विश्वामित्र के साथ जब गौतम ऋषि के आश्रम पहुंचे होंगे तो वह दृश्य कैसा होगा और उस स्त्री को जिसको उसके स्वयं तपस्वी पति ने छोड़ दिया हो ,आखिर भगवान ने कैसे उस पर अपनी करुणा दिखाई होगी ?
 मां गंगा की कृपा बहुत जल्दी मुझ पर हुई और उन्होंने अपने तट पर मुझे जल्दी ही बुला लिया और इस बार मैं फिर हाजिर था।  अपने उन्हीं प्रश्नों या जिज्ञासाओं के उत्तर को पाने के लिए और मां गंगा के बक्सर स्थित उसी रामरेखा घाट पर मैं पहुंचा जहां कभी भगवान श्री राम अपने अनुज लक्ष्मण और गुरु विश्वामित्र के साथ स्नान करते थे। मैं मां गंगा के आंचल के  एक छोर पर प्रतीक्षारत बैठा था , कि कब मां गंगा अपनी कृपा मुझ पर बरसा दे  ! और महीनों से अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर मुझे मिले।  मां गंगा की कृपा मुझ पर हुई और गंगा की अविरल धारा से आवाज आई-  हे पुत्र ! आखिर तुम्हें आना ही पड़ा !  मैं हाथ जोड़कर नतमस्तक खड़ा था और मैंने कहा कि क्या ऐसा हो सकता है कि आप बुलाएं और आपका यह अनुग्रहित पुत्र आए ना ।
इसके पश्चात मैंने मां गंगा से अपना वही पुराना प्रश्न दोहराया कि आज मां बताइए पाषाण बनी अहिल्या से कैसे मिले प्रभु राम ? 
कुछ देर की शांति  के पश्चात गंगा की लहरें  शांत हुई और कुछ देर के बाद मां गंगा  बोली - मैं  त्रेता युग में पहुंच गई थी  और मुझसे बोली - पुत्र मुझे अच्छे से याद है, वह दिन जब ऋषि गौतम और उनकी पत्नी की  कथा महर्षि विश्वामित्र ने राम को सुनाई और राम ने अहिल्या के लांछन और अपमान की कथा सुनकर अपने गुरुदेव से कहा - कि मैं उस देवी के दर्शन करना चाहूंगा गुरुदेव !  गुरुदेव ने कुछ कहा नहीं केवल गर्व से देखा था राम की ओर और राम के निकट पहुंच कर उनके कंधे पर हाथ रख कर दूर आकाश की ओर निहारा और अपने शिष्य के मुख से उस तिरस्कृत और लोक निर्वासित महिला के लिए देवी का संबोधन सुन बोले कि आज तुम में मैं अपना आप में मेरा विस्तार देख रहा हूं।   कुछ क्षण  तक महर्षि विश्वामित्र आत्म मुग्ध से खड़े रहे और राम की ओर देखते हुए बोले उसे भी तुम्हारी ही प्रतीक्षा है।  राम ! अपमान और उपेक्षा ने उसकी चेतना को लगभग नष्ट कर दिया है, मनुष्यों की छाया से भी वह डरती है , किसी को दूर से ही देख कर छिपने या भागने का प्रयत्न करती है ,डरती है,  न जाने क्या अपशब्द सुनने पड़े ! चेतना का केवल यही प्रमाण शेष रह गया है।  समाज  उसे दूषित करने वालों की लोग पूजा करता है।   ! पुरुष जो ठहरे शक्तिशाली जो ठहरे वे छल कर सकते हैं ! लूट सकते हैं !दूसरों को अपमानित कर सकते हैं ! और जिन्हें चलते लूटते और अपमानित करते हैं, उन्हीं को इन सब के लिए दोषी भी सिद्ध कर सकते हैं।  आश्चर्य है !  जो सिरजता है, गढ़़ता है लोक  को जीवन और अवलंबन देता है, वही सबसे अधिक अपमानित भी होता है वह धरती हो,स्त्री हो या नदी  हो सबकी एक नियति है । महर्षि विश्वामित्र और उनके दोनों होनहार शिष्य धीरे धीरे मेरे किनारे ही उस स्थान पर पहुंचे जहां पर अहिल्या जीवित होते हुए भी पाषाण की तरह शापित थी।  राम ने अपने दोनों हाथ जोड़ लिए थे और दूर किसी स्त्री की छाया दिख रही थी, वह हाथ जोड़े उसी दिशा में चलते रहे लक्ष्मण भी उनका अनुगमन करके उनके साथ उसी तरह चल रहे थे, संभवत उन्हें भी लगा था कि वह व्यक्ति अन्य लोगों से भिन्न है ,  वह ना तो अपने स्थान से हिली थी और ना भागी थी।  संभव है उसे आंखों से कुछ दिख ही  ना रहा हो या संभव है कि उसमें हिलने की शक्ति ही ना रह गई हो ! नहीं ! वह शायद इधर देख ही नहीं पा रही थी,  मौन बैठी थी।  किसी सोच में डूबी थी। उसके निकट पहुंचकर राम उसके चरणों में लेट गए थे और बोली आपने बहुत दुख झेला है मां ! मैं समस्त पुरुष जाति की ओर से आपसे क्षमा मांगने आया हूं ! हे देवी मैं आपको अपमानित करने वाली उस दम्भी पुरुष जाति का प्रतिनिधि आपसे दंड मांगने आया हूं ।
उसे अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था।   यदि राम के शब्द उसके कानों में पड़ भी रहे थे, तो उनका अर्थ शायद उसकी समझ में नहीं आ रहा था ! वह जड़ सी एकटक राम को देखी जा रही थी ! नहीं,  उसके कानों में कोई ध्वनि आवश्यक टकराई थी उसने बोलने का प्रयत्न किया था,  होठ हिले थे, पर शब्द बाहर नहीं आ पा रहे थे।   कोई मरणासन्न व्यक्ति जैसे कुछ कहने का प्रयत्न करें और उसकी आवाज एक अस्पष्ट फुसफूसाहट बनकर रह जाए और बहुत ध्यान देने पर कुछ समझ में आए वैसे ही उसने कहा था - मैं लंछिता हूँ !  पतिता हूं !  उसने राम के सिर को अपनी दुर्बल अंगुलियों से कुछ इस तरह छुआ था, जैसे उठाने का प्रयत्न कर रही हो !
                                               और फिर वही शब्द 'पतिता  ' .. आप पतित नहीं हो सकती मां , जो पतित होते हैं,  वह अपने जघन्य कृत्य पर भी अपने को पतित नहीं कहते।  वह अपने पापों  को लेकर गर्व करते हैं , उनकी चेतना अहंकार से इतनी मलिन हो चुकी होती है , कि वे अपने पातकों को समझ ही नहीं पाते।  जिनमें पतित होने का बोध है,  जो उन अहंकारियों द्वारा पातिकी कहीं जाते हैं।  वे या तो अज्ञान अपज्ञान या व्यवस्था के कारण उनके ही पापों और पातकों का बोझ धोने को बाध्य कर दिए जाते हैं । राम ने प्रतिवाद करते हुए कहा था ।
                                             अहिल्या की समझ में कुछ नहीं आ रहा था।   वह केवल आश्चर्य से राम को निहार रही थी राम ने कुछ स्पष्ट स्वर में एक एक शब्द पर रुकते हुए और एक एक शब्द का स्पष्ट उच्चारण करते हुए फिर कहा  " तुम पतित नहीं हो मां तुमने दूसरों के पातक का प्रक्षालन अपनी पीड़ा और यात्रा से किया है । जैसे मां अपनी गोद के बच्चों की मल का प्रक्षालन करती है । हाँ मां, अपने समस्त अहंकार के बावजूद पुरुष जाति स्त्री के सम्मुख एक शिशु ही बना रह जाता है अपनी धात्री और पोषिका को ही दूषित और मलिन करके किलकारियां भरने वाले शिशु से अधिक क्या है वह "
तुम्हारी बातें मेरी समझ में नहीं आती अहिल्या ने दुर्बल और कांपते हुए स्वर में कहा था।  उसकी समझ में कुछ तो आ ही रहा था,  अन्यथा वाणी में यह परिवर्तन कहां से आता । उसके नकार में भी आत्मविश्वास कहां से लौटता ।  ' कुछ समझ में नहीं आता बेटा" बेटा शब्द का उच्चारण उसने इतने विलगित होकर किया था ,कि अपना संयम ना खोने वाले राम की भी आंखें भर आई थी ।
आततायी  होते हैं मां ,जो दूसरों को कुचलकर अकेले ऊपर उठना चाहते हैं ,सिर तान कर शिखर बनना चाहते हैं।  मैंने शिखरों को भूचाल तो दूर मात्र मेह से खिसकते और लुढकते देखा है । पर्वतों को अपने अहंकार के दरबार से बिना किसी बाहरी ठोकर या आघात के चूर चूर होते देखा है । लेकिन मैंने धरती को द्रवित होकर बहते तो देखा है, पर पतित होते नहीं देखा । स्त्री तो जननी होती है ! वह तो धरती होती है !  मां वह पतित नहीं हो सकती !  पतितो को भी वही संभालती है और वहीं संभाल सकती है । यदि वह पतित होगी तो उसे कौन संभालेगा । राम ने अपने संयत पर कोमल स्वर में कहा था । उस समय वृद्धा के मुख पर हो रहे भाव परिवर्तन को देखकर आश्चर्य हो रहा था उसमें एक ऐसी प्राणशक्ति आ गई थी मानो कोई सूखी लता वर्षा की झड़ी से एक ही क्षण में हरी हो गई हो ।

तुम कौन हो ? कौन हो तुम ? उसने अपने आंतरिक आह्लाद को दबाते हुए भर आई सी आवाज में कहा था । " तुम मनुष्य नहीं हो सकते " नहीं तुम मनुष्य नहीं हो सकते , तुम भगवान हो । तुम पतित पावन भगवान हो , पतितों को भी पवित्र मानने वाले, उपेक्षित और वंचितों को उनका लूटा हुआ सौभाग्य और गौरव दिलाने वाले अवतार हो तुम " वह बढ़कर राम के चरणों में लिपट गई और फूट-फूट कर रोने लगी थी राम बार-बार उठो मां ! उठो देवी !  कहकर बुला रहे थे ! 

मां गंगा की लहरें शांत हो चली थी , इधर मेरा मन अशांत हो चला था , आँखों से अविरल धारा बह रही थी  ......
( क्रमशः अगले भाग में जारी )
चित्रकला - अलका दास 


orchha gatha

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