पिछली पोस्ट में आपने पढ़ा कि दशावतार मंदिर के अद्भुत शिल्प अंकन में हम इतना खो गए थे कि हमें न खुद की सुध बुध थी और ना ही अपनी भूख की । ऐसा लग रहा था कि मानो इन मंदिरों के शिल्प के साथ हम भी उस काल में पहुंच गए हो और मंदिर की भित्ति पर उत्कीर्ण प्रतिमाएं हम से साक्षात्कार कर रही हो और वह दृश्य हमारे सामने जीवित हो उठे हो । परंतु समय कब किसके लिए रुका है और यहां भी सूर्यदेव आकाश मार्ग में धीरे-धीरे अस्ताचल की ओर गमन करने लगे और हमें वर्तमान में ले आए । मैं और नयन सिंह जी भूख से बेहाल हो चुके थे, हालांकि साथ में ले आए सेव फलों (सेव फलों ने ही तो दुनिया में कई परिवर्तन ला दिए, न एडम वह स्वर्ग में सेव खाता और ना ही इस धरती पर हम इंसानों की दुनिया बसती । फिर न्यूटन महोदय के सर पर न पेड़ से सेव गिरता और ना वो गुरुत्वाकर्षण का नियम खोजते और ना ही आज विज्ञान इतनी तरक्की कर पाता ।) हमारी भूख को कुछ तो राहत दी । अब हमारे खाए हुए सेवफल ने भी कम गुल नहीं खिलाए ।
दशावतार मंदिर को देखने के बाद हमने वहां के चौकीदार सीताराम तिवारी जी से यहां आस-पास और दर्शनीय स्थलों के बारे में जानकारी ली तो उन्होंने बताया यहां पर भगवान महावीर वन्य जीव अभ्यारण के अंदर एक जैन मंदिर, वराह मंदिर, सिद्ध की गुफा, नाहर घाटी, राज घाटी और बेतवा नदी का मनोरम दृश्य है । यह सभी सदियों पुराने हैं । इसके साथ ही बेतवा के किनारे पर प्राकृतिक चट्टानों से बने घाट पर चट्टानों की दीवारों पर कई प्रतिमाएं उकेरी गई हैं । ब्राह्मी लिपि में एक अभिलेख भी लिखा हुआ है । यह सुनकर हम अपनी पेट की भूख भूल गए और घुमक्कड़ी की भूख जाग उठी । सेव फल अपना चमत्कार दिखाने लगे और देवगढ़ जहां हमें सिर्फ दशावतार मंदिर ही खींच लाया अब एक नई दुनिया से रूबरू होने वाले थे । अब हमारे पैरों में सनीचर हमें खुद ही उस जंगल की ओर बुलाने लगा । क्योंकि यह हमारे लिए अनजान जगह थी , इसलिए हमने सीताराम तिवारी जी से निवेदन करके उनके लड़के को अपने साथ एक मार्गदर्शक के रुप में ले लिया और हम चल पड़े जंगल की ओर । सबसे पहले हमने सबसे दूर वाली जगह जाने का निश्चय किया क्योंकि पहले वाली जगह देखने के चक्कर में अंधेरा हो सकता था और हम बाकी जगहों से मिलने से मरहूम हो सकते थे । पहाड़ी जंगलों के बीच पगडंडी नुमा सड़क पर हमारी Scorpio आराम-आराम से चली जा रही थी बीच-बीच में पेड़ पौधे झाड़ियां हमारा रास्ता रोकने की कोशिश भी कर रही थी, मगर हम उन्हें हटाते हुए अपनी मंजिल की ओर बढ़ रहे थे । कुछ दिन पहले हुई बरसात के कारण रास्ते में कीचड़ और गड्ढे भी थे । पर इन सब से बेपरवाह हम बढ़ते चले जा रहे थे , क्योंकि अगर हम रुकते तो सूर्य अस्त हो जाता और इस खजाने से वंचित हो जाते ।
सबसे पहले हम नाहर घाटी पहुंचे और यहां बेतवा नदी का विहंगम दृश्य देखकर मन मयूर सा नाचने लगा । बेतवा नदी और मेरा रिश्ता तो आप मेरी ओरछा गाथा सीरीज में पढ़ ही चुके हैं । मुझे यहां आने के पहले यह नहीं पता था कि देवगढ़ भी बेतवा नदी के किनारे बसा हुआ है । बेतवा का अपार चल देख कर मन प्रसन्न हो गया । यहां पर राजघाट बांध के कारण यह क्षेत्र डूब क्षेत्र में आता है इसलिए यहां पर बेतवा अपनी अथाह जलराशि से सागर जैसा एहसास दिला रही थी । बीच में टापू जैसी जगह पर कुछ मकान दिख रहे थे जो मध्य प्रदेश का एक गांव था । अर्थात बेतवा की तरफ उत्तर प्रदेश और दूसरी तरफ मध्य प्रदेश है । बेतवा मध्य प्रदेश की उत्तरी सीमा बनाने में सहायक है विशेषकर ललितपुर और झांसी जिलों में । नाहर घाटी के नाम में नाहर का अर्थ सिंह होता है, अतः नाम से लगता है कि कभी इन जंगलों में सिंह भी निवास करते रहे होंगे और हो सकता है इस घाट पर वह पानी पीने आते होंगे इसलिए इसका नाम नाहर घाटी पड़ा । यहां प्राकृतिक चट्टानों को काटकर सीढ़ियां बनाई गई थी और खड़ी चट्टानों की दीवारों पर छेनी और हथोंडो से खोदकर शिवलिंग और अन्य प्रतिमाएं बनाई गई थी । जिन जगहों पर यह प्रतिमाएं बनाई गई थी वहां पहुंच पाना ही बहुत कठिन था न जाने कैसे शिल्पकारों ने यह अद्भुत कारीगरी की होगी । एक तरफ चट्टानों पर मनुष्य कलाकृतियां देख कर मन विस्मित था तो दूसरी तरफ बेतवा नदी के सुंदर रूप को देखकर प्रकृति की कलाकारी पर हमने दांतों तले उंगलियां दबा ली थी । इन नजारों को देख कर मन नहीं भर रहा था ऐसा लग रहा था कि घंटों इस जगह पर बैठकर प्रकृति और मनुष्य की कलाकारी को निहारते रहे । पर हमारे पास समय कम था अंधेरा होने को आ रहा था और हमें और भी स्थान देखने थे इसलिए हम वापस हुए । राज घाटी में भी शिवलिंग, सूर्य की प्रतिमा और अन्य कुछ प्रतिमाएं खड़ी चट्टानों पर उत्कीर्ण की गई थी यह भी बेतवा के तट पर बनी घाटी थी ।
राज घाटी के बाद हम सिद्ध की गुफा पहुंचे। इस जगह खड़ी चट्टान को काटकर एक गुफा बनाई गई थी, जिसके आसपास महिषासुर मर्दिनी, शिव और अन्य देवी देवताओं की प्रतिमाएं उत्कीर्ण की गई थी । पास में ही ब्राह्मी लिपि में एक लेख लिखा हुआ था जो हमारी समझ से बाहर था। इसी के पास देवनागरी में भी एक लेख खुदा हुआ था जिसकी भाषा इसे बुंदेली शासकों की समय का बता रही थी । सिद्ध की गुफा देखने के पश्चात हम लोग वराह मंदिर की तरफ आए वराह मंदिर भी गुप्तकाल का एक मंदिर था जिसमें भगवान विष्णु के वराह अवतार की प्रतिमा विराजित थी । लेकिन चोरों द्वारा उस प्रतिमा को चुरा लिया गया परंतु उसे खंडित अवस्था में बरामद कर लिया गया और वह वर्तमान में भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण के स्टोर रूम में धूल खा रही है । वराह मंदिर में वर्तमान में भग्नावशेष इसकी भव्यता का यशोगान गा रहे हैं। वराह मंदिर के पश्चात हमारी गाड़ी जैन मंदिर की ओर मुड़ चली । जैन मंदिर का वास्तुशिल्प और बनावट आठवीं नवी सदी के चंदेल कालीन मंदिरों का है । जैन समाज द्वारा इन मंदिरों की देखरेख की जाने के कारण इनकी स्थिति बहुत अच्छी है यहां पर जंगल में यत्र-तत्र बिखरी पड़ी जैन तीर्थंकरों की प्रतिमाओं को एकत्र करके एक ही परिसर में स्थापित किया गया है । मुख्य मंदिर के गर्भ गृह में जैन तीर्थंकर शांतिनाथ की प्रतिमा है । मंदिर परिसर में ही एक संग्रहालय बना हुआ है ,जहां पर सुरक्षा व्यवस्था के लिए पुलिस चौकी भी है, परंतु सूर्य अस्त हो जाने के पश्चात यह संग्रहालय बंद हो गया था, इस कारण हम इसके दर्शन नहीं कर पाए । सीताराम तिवारी जी के सुपुत्र ने हमें एक नई जानकारी दी, कि
देवगढ़ के इन जंगलों में हाल में ही भगवान बुद्ध से संबंधित बहुत सारी प्रतिमाएं और अवशेष खोजे गए हैं, जिन पर अभी शोध चल रहे हैं. हालांकि घने जंगल में होने के कारण हम उनका फिलहाल मोह त्याग कर वापस लौटने का विचार बनाएं । वैसे भी अब वापसी की बेला हो चली थी और जठराग्नि भी प्रज्वलित हो रही थी । लौटते में देवगढ़ कस्बे में स्थित जैन धर्मशाला की स्थिति देखने हम लोग पहुंचे जहां पर 300 रुपये और 500 रुपये के दो प्रकार के कमरे बने हुए थे और व्यवस्था बहुत अच्छी थी । साथ ही शाकाहारी भोजन की भी सुलभता थी । अर्थात यहां आराम से रात गुजारी जा सकती है और हमने निश्चय किया कि कभी परिवार सहित यहां अवश्य आएंगे और एक रात्रि विश्राम करके आराम से और विस्तार से देवगढ़ का भ्रमण किया जाएगा । देवगढ़ के पास ही रणछोड़ धाम भी एक दर्शनीय स्थल है जहां भगवान श्री कृष्ण ने कालिया यवन का वध किया था और यहीं पर वह रणभूमि छोड़कर भागे थे जिस कारण उनका नाम रणछोड़ पड़ा। चूंकि रात्रि हो चुकी थी। अतः हमने वापसी में ही भलाई समझी और रणछोड़ धाम को दोबारा आने का एक निमित्त बनाकर अपने धाम को लौटने का विचार किया । देवगढ़ जाने के लिए नजदीकी रेलवे स्टेशन ललितपुर है और ललितपुर सड़क मार्ग द्वारा भी देश के बाकी हिस्सों से जुड़ा हुआ है ।
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हम चल पड़े प्रकृति की ओर |
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नयन सिंह जी और उनकी स्कार्पियो |
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बेतवा की पहली झलक (मेरे और माँ बेतवा के सम्बन्ध तो आप जानते ही है ) |
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इस नजारे ने तो दिल चुरा लिया |
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खड़ी चट्टानों को काटकर बनाई गयी सीढिया |
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नदी किनारे खड़ी चट्टानों को काटकर कैसे मूर्ति बनायीं गयी होगी ? |
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सप्तमातृकाएं और गणेश का साहसिक शिल्पांकन |
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शिवलिंग |
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भगवान भास्कर |
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कुदरत की कलाकारी |
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ये अभिलेख भी हमें प्राप्त हुआ। हालाँकि पल्ले कुछ भी नहीं पड़ा |
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सिद्ध गुफा |
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महिषासुर मर्दिनी का सुन्दर शिल्पांकन |
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इन किंगफिशर जनाब के काम में हमने शायद खलल डाल दिया |
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प्रकृति की इस अद्भुत चित्रकारी को हमने अपने कैमरे में कैद किया |
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वराह मंदिर के भग्नावशेष |
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जैन तीर्थंकर शांतिनाथ मंदिर |
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प्राचीन जैन मंदिर (नागर शैली ) |
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मंदिर परिसर में स्थापित की गयी अन्य तीर्थंकरों की प्रतिमाएं |
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अच्छा तो अब चलते है |