भारतीय साहित्य में बसंत के बाद जिस मौसम की चर्चा की गयी है ....वो है श्रावण या सावन मास !
हो भी क्यों न , आखिर प्रकृति भी इस महीने पर बहुत मेहरबान जो होती है . सावन के वर्णन में कवियों ने कोई कसर नही छोड़ी है .
याद करे मुकेश का गाया हुआ वो मधुर गीत -
सावन का महीना, पवन करे सोर
पवन करे शोर पवन करे
सोर
पवन करे शोर अरे बाबा शोर नहीं सोर, सोर, सोर
पवन करे सोर.
हाँ, जियरा
रे झूमे ऐसे, जैसे बनमा नाचे मोर हो
सावन का महीना … मौजवा करे क्या जाने, हमको इशारा जाना कहाँ है पूछे,
नदिया की धारा मरज़ी है ...
या फिर ..
लगी आज सावन की फिर वो झड़ी है....
या फिर
सावन बरसे...धड़के दिल...क्यों ना घर से निकले दिल...
सावन का महिना प्यार का महिना कहलाता था .....पर प्यार तो अब बारहमासी हो गया है .
भगवान् शिव का प्रिय महिना भी सावन ही है ....इसी महीने में लोग सावन सोमवार का व्रत रखते है ...इसी महीने में कांवरिये कांवर में जल भर कर भगवन शिव का जलाभिषेक करने मीलो पैदल चल कर जाते है .
सावन के महीने में ही पपीहा स्वाति नक्षत्र का जल पीने पिहू-पिहू गाता फिरता है ...
सावन के महीने में ही किशोरियां कजरी तीज का व्रत रखती है ..
लेकिन मैं आज सावन की कसक की बात करना चाहूँगा .......
अब सावन पहले जैसा नही रहा ...
न ही सावन का इंतजार होता है . ...
न बागों में झूलें पड़ते है ...
न परदेस से पिया के आने का इन्तजार होता है ...
न कई दिनों की झड़ी लगती है ....
न सावन के मेले भरते है , जिसमे बच्चे साल भर के लिए खिलोने लेते थे ...
न सावन में गाँव में लोग विदेशिया या आल्हा गाते है .....
न बहनों के राखी बांधने जाने के लिए मायके जाने की वो बेकरारी रहती है ....
न नागपंचमी पर अखाड़ो में कुश्तियां होती है ....
न सावन में बेटी-बहनें अपने हाथों में पहले की तरह मेहंदी रचाती है ...
न सावन में बारिश के पानी में कागज की कश्तियाँ छोड़ी जाती है ..
न सावन की लड़ी में भीगने का मन होता है ....
आखिर बाजारवाद की अंधी दौड़ ...आधुनिकता के नाम पर ....पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव से हम क्यों अपनी संस्कृति ....अपनी प्रकृति ....से दूर होते जा रहे है ....
अब क्यों नही पहले जैसा सावन आता है ???