शनिवार, 8 अक्तूबर 2016

वो ठिठुरती सर्दी में सूबेदार साहब का कम्बल !


 एक अपनी यादगार रेलयात्रा सुनाता हूँ ।
जनवरी 2006 की बात है । तब मैं इलाहबाद में सिविल की तैयारी कर रहा था । उत्तर भारत कड़ाके की सर्दी और कुहरे में लिपटा हुआ था, लिहाजा सभी ट्रेनें परम्परानुसार लेट ही चल रही थी । कई ट्रेने कैंसिल भी हो चुकी थी । मेरी मम्मी का आदेश था , कि खिचड़ी ( मकर संक्रांति) को गांव (बक्सर जिला बिहार) आ जाओ । चूँकि कोचिंग की मात्र एक दिन की छुट्टी थी, तो मेरा मन नही था।लेकिन जब माँ का आदेश हो तो जाना ही है ।
13 जनवरी 2006 को इलाहाबाद में सर्दी कम थी, इसलिए मैने इनर के अलावा गर्म कपड़ो में कुछ नही पहना । हाँ बैग में एक हाफ स्वेटर डाल लिया। बस सुबह सुबह पहुँच गए इलाहबाद स्टेशन । बक्सर तक का इलाहाबाद से लगभग साढ़े चार-पांच घंटे का सफ़र है । अब स्टेशन पर पहुचने के बाद पता लगा सभी ट्रेनें अपने समय कुछ देरी से चल रही है । इसके लिए रेलवे की अनोउंसर बाकायदा खेद व्यक्त कर रही थी । हर थोड़ी देर में बताया जाता की फलानी ट्रेन अपने तय समय से कुछ (मतलब एक या दो घंटे की) देरी से चल रही है । इसके लिए रेलवे को हर बार खेद हो रहा था । हम भी उनके खेद को समझते हुए पूरे दिन से स्टेशन पर डटे रहे । अब दिन ढलने लगी , अँधेरा घिर आया और स्टेशन की बत्तियां जल उठी । बीच में कई बार मन वापस कमरे पर जाने का किया । मगर रेलवे की कुछ देर की देरी ने रोक रखा कि बस एक या दो ही घंटे की बात है । पर इस तरह पूरा दिन ही स्टेशन पर गुजर गया ।
         खैर हमारे इंतजार की इंतहा को तोड़ते हुए दिल्ली से हावड़ा जाने वाली जनता एक्सप्रेस आई । ये अपने समय से पूर्व थी । अब हमारे आश्चर्य का ठिकाना नही था । लेकिन जो लोग कभी गलती से इस ट्रेन में बैठे है । जानते होंगे कि इसका नाम में ही बस एक्सप्रेस है ,वरना ये अपनी रफ़्तार और रुकने में कई बार पैसेंजर को भी शरमा दे । इसमें अधिकांश सामान्य श्रेणी के डिब्बे है । खैर खुद की खैर मनाता हुआ मैं एक जनरल बोगी में जैसे तैसे दाखिल हुआ । पूरी बोगी में लोग भेंड़ बकरियों से भी बुरी हालात में ठुसे हुए थे । अब मरता क्या न करता । वापिस उतरने की हिम्मत या कहे जगह ही नही थी । अब खड़े खड़े ही सफ़र करना था । बोगी में अधिकांश यात्री दिल्ली में मजदूरी करने वाले बिहारी ही थे । अब एक साइड बर्थ में एक विकलांग किशोर बैठा अकेला ही बैठा था । एक उम्मीद जगी , मैं उसके पास खड़ा हो गया । अब उससे बातें करने लगा जैसे कहाँ से आ रहा है ? कहाँ जा रहा है ? साथ में कौन है ? इतनी बातों में पता चला वो किशोर अनाथ था , दिल्ली में किसी आमिर व्यक्ति ने पाला था । अब वो कोलकाता अपने किसी रिश्तेदार के पास जा रहा था। थोड़ी देर की बातचीत में उससे दोस्ती हो गयी । और उसने अपने बगल में बैठने की जगह दे दी । खैर गाड़ी अपनी रेंगती सी चाल में हर स्टेशन यहां तक हाल्ट पर भी रुकती जा रही थी । खैर हम कभी अपनी किस्मत पर रोते तो कभी भारतीय रेलवे की हालत पर रोते हुए आधी रात को बक्सर पहुंचे ।
                           लेकिन हमारी किस्मत तो पूरी तरह से परेशां करने के मूड में थी । बक्सर में भयंकर ठण्ड थी । लेकिन पूरा स्टेशन मकर संक्राति पर गंगा स्नान के लिए आये यात्रियों से भरा पड़ा था । लोग पुआल बिछाकर पुरे स्टेशन पर घर जैसे कम्बल ओढ़कर सो रहे थे । अब आधी रात को गांव जाने को कोई साधन मिलना ही न था । मतलब पूरी रात स्टेशन पर ही काटनी थी । बैग से हाफ स्वेटर निकालकर पहना, पर इससे तो ठण्ड पर कोई असर ही न पड़ा । अब बैठने की भी कोई जगह नही और ठण्ड अलग लग रही थी । जब ज्यादा ठण्ड लगती तो पूरे प्लेटफार्म का तेज क़दमों में चक्कर लगा आता । इससे गर्मी भी आ जाती और प्लेटफार्म में जगह की खोज भी हो जाती । इस तरह के सात आठ चक्करों के बाद एक बेंच पर एक आर्मी के सूबेदार अपने बैग के साथ बैठे दिखे । अपन भी चल दिए सूबेदार साहब सिग्नल कोर से थे , और हम भी एन सी सी में सिग्नल कोर में थे । बस क्या था ! शुरू हो गयी सिग्नलिंग । हमे ग्रीन सिग्नल देकर सूबेदार साहब ने अपना बैग बेंच से नीचे रखकर अपने बगल में पनाह दी । अब बैठने की जुगाड़ तो हो गयी , लेकिन ठण्ड का क्या करे ? बैठने के बाद तो और भी लगने लगी । हमारी कंपकपी को देखकर सूबेदार साहब ने अपने बैग से कम्बल निकाला और ओढ़ने को दिया । अब कुछ देर हम कम्बल ओढ़ते और सूबेदार साब पहरा देते । फिर हम पहरा देते तो सूबेदार साब कम्बल ओढ़कर लेटते थे । इस तरह रात काटी । सुबह तूफान एक्सप्रेस से मैं डुमराव और सूबेदार साब रघुनाथपुर उतरे । और हम किसी तरह घर पहुँच पाये । आज भी वो मकर संक्रांति याद आ जाती है ।
भयंकर सर्दी में लोगों से पटा रेलवे स्टेशन 


सोमवार, 3 अक्तूबर 2016

महाभारत कालीन माँ तारा चंडी मंदिर, सासाराम ( गुप्तेश्वर धाम यात्रा भाग-2)


शेरशाह के मकबरे के बाद हम लोग अपने मोबाइल के जीपीएस के भरोसे माँ ताराचंडी मंदिर की और निकल पड़े । धूप बहुत तेज हो चुकी थी । जीपीएस महोदय की सुचना के अनुसार चलते चलते जब हमने एक पहाड़ी पर मंदिर नुमा संरचना देखकर गाड़ी मोडी तो कुछ शंका हुई । तो रस्ते में मिले एक ऑटो वाले को रोककर पूछा , उसने बताया कि ये तो शहीद स्मारक है । इससे ज्यादा उसे भी कोई जानकारी नही थी । तो हम लोग पुनः मुख्य सड़क पर आ गए । मकबरे से लगभग 5 किमी चलने के बाद हम लोग माँ ताराचंडी के मंदिर पहुंचे । मंदिर के बारे में मुख्य जानकारी यह है , कि
सासाराम शहर से दक्षिण में कैमूर की पहाड़ी की मनोरम वादियों में मां ताराचंडी का वास है। ताराचंडी के बारे में स्थानीय लोगों का मानना है कि ये 51शक्तिपीठों में से एक है। कहा जाता है कि सती के तीन नेत्रों में से भगवान विष्णु के चक्र से खंडित होकर दायां नेत्र यहीं पर गिरा था। तब यह तारा शक्ति पीठ के नाम से चर्चित हुआ। कहा जाता है कि महर्षि विश्वामित्र ने इसे तारा नाम दिया था। दरअसल, यहीं पर परशुराम ने सहस्त्रबाहु को पराजित कर मां तारा की उपासना की थी। मां तारा इस शक्तिपीठ में बालिका के रूप में प्रकट हुई थीं और यहीं पर चंड का वध कर चंडी कहलाई थीं। यही स्थान बाद में सासाराम के नाम से जाना जाने लगा।
मां की सुंदर मूर्ति एक गुफा के अंदर विशाल काले पत्थर से लगी हुई है। मुख्य मूर्ति के बगल में बाल गणेश की एक प्रतिमा भी है। कहते हैं कि मां ताराचंडी के भक्तों पर जल्दी कृपा करती हैं। वे पूजा करने वालों पर शीघ्र प्रसन्न होती हैं। मां के दरबार में आने वाले श्रद्धालु नारियल फोड़ते हैं और माता को चुनरी चढ़ाते हैं।

चैत और शरद नवरात्र के समय ताराचंडी में विशाल मेला लगता है। इस मेले की प्रशासनिक स्तर पर तैयारी की जाती है। रोहतास जिला और आसपास के क्षेत्रों में माता के प्रति लोगों में अगाध श्रद्धा है। कहा जाता है गौतम बुद्ध बोध गया से सारनाथ जाते समय यहां रूके थे। वहीं सिखों ने नौंवे गुरु तेगबहादुर जी भी यहां आकर रुके थे।

कभी ताराचंडी का मंदिर जंगलों के बीच हुआ करता था। पर अब जीटी रोड का नया बाइपास रोड मां के मंदिर के बिल्कुल बगल से गुजरता है। यहां पहाड़ों को काटकर सड़क बनाई गई है। ताराचंडी मंदिर का परिसर अब काफी खूबसूरत बन चुका है। श्रद्धालुओं के दर्शन के लिए बेहतर इंतजाम किए गए हैं। मंदिर परिसर में कई दुकानें भी हैं। अब मंदिर के पास तो विवाह स्थल भी बन गए हैं। आसपास के गांवों के लोग मंदिर के पास विवाह के आयोजन के लिए भी आते हैं।

मां ताराचंडी का मंदिर सुबह 4 बजे से संध्या के 9 बजे तक खुला रहता है। संध्या आरती शाम को 6.30 बजे होती है, जिसमें शामिल होने के लिए श्रद्धालु बड़ी संख्या में पहुंचते हैं। मंदिर की व्यवस्था बिहार राज्य धार्मिक न्यास परिषद देखता है।
कैसे पहुंचे- ताराचंडी मंदिर की दूरी सासाराम रेलवे स्टेशन से 6 किलोमीटर है। मंदिर तक पहुंचने के लिए तीन रास्ते हैं। बौलिया रोड होकर शहर के बीच से जा सकते हैं। एसपी जैन कालेज वाली सड़क से या फिर शेरशाह के मकबरे के बगल से करपूरवा गांव होते हुए पहुंच सकते हैं। आपके पास अपना वाहन नहीं है तो सासाराम से डेहरी जाने वाली बस लें और उसमें मां ताराचंडी के बस स्टाप पर उतर जाएं।
मंदिर बहुत भव्य बना हुआ है , और अभी भी निर्माण कार्य चल रहा है । मंदिर में संगमरमर की शिलाओं पर दानदाताओं के नाम जगह जगह खुदे हुए है । तारा चंडी मंदिर प्रांगण में ही भैरव नाथ का नया मन्दिर बना है । एक नयी और रोचक बात मुझे ये दिखाई दी , कि मंदिर प्रांगण में ही एक मजार भी बनी हुए । इसके बारे में जब पुजारी जी से पूछा तो उन्होंने बताया कि पहले माँ ताराचंडी का मंदिर कम जगह में बना हुआ था । लेकिन जब मंदिर का विस्तार हुआ तो पास ही बनी ये मजार मंदिर परिसर के बीचोबीच आ गयी । लेकिन धार्मिक सद्भाव न बिगड़े इसलिए इसे कोई क्षति नही पहुचाई गयी । आज भी मुस्लिम धर्मं के लोग यहां उपासना करते है । देश में धार्मिक सद्भाव की अनूठी मिसाल देखने मिली । खैर दर्शन करने के बाद कुछ देर हम लोगों ने मंदिर परिसर में नीचे लेटकर आराम किया । संजय सिंह जी को रात को आना था , इसलिए हमारे पास पर्याप्त समय बचा था । मुंडेश्वरी देवी के बारे में पता करने पर मालूम हुआ , वहां जाने के लिये देर हो चुकी । अगर इस वक़्त (लगभग शाम के 5 बजे ) चले तो वहां पहुचते ही रात हो जायेगी । जबकि हमारी मंजिल तो बाबा गुप्तेश्वर नाथ धाम है । अब बचे समय में क्या किया जाये , यही सोचते हुए हम लोग मंदिर से बहार की और निकले तो देखा पास ही में एक दीवार पर परशुराम द्वारा पूजित शिव मंदिर सोनगढ़वा की जानकारी अंकित थी । मंदिर यहाँ से नजदीक ही था । फिर क्या था , चल पड़े NH-2 बाईपास से कुछ ही दुरी पर स्थित सोनगढ़वा शिव मंदिर । मंदिर बिलकुल राष्ट्रिय राजमार्ग 2 (जीटी रोड) के किनारे ही था । यहाँ न के बराबर लोग थे । मंदिर में बड़ी शांति थी । मंदिर के आसपास पड़े प्राचीन पत्थर  मंदिर की प्राचीनता को प्रमाणित कर रहे थे । हाथ-मुंह धोकर हमने मंदिर में प्राचीन शिवलिंग के दर्शन किये । कुछ देर मंदिर के पुजारी जी के पास बैठे । उनहोंने बताया कि मंदिर महाभारत कालीन है । पुराने समय में मंदिर के आसपास ही शहर बसा हुआ था । शेरशाह के समय वर्तमान जगह पर शहर फिर से बसाया गया । आज भी मंदिर के आसपास की जगहों पर खुदाई करने पर सोने के सिक्के या मुहरे मिलती है । इसलिए इस जगह को सोनगढ़वा कहा जाता है । कुछ देर आराम करने के बाद ड्राईवर ने वही के नल से कार धोई । सूर्य अस्त होने के पहले ही हम वापिस सासाराम की तरफ निकल लिए । सासाराम पहुँचते ही मोनू को भूख लग आई थी । तो स्टेशन के सामने एक जगह सबने चौमिन खाया । मोनू ने बताया कि पापा के एक सहकर्मी अखिलेश सिंह जी हाल ही में सोनपुर रेलवे के माइक्रो वेब में पदस्थ हुए है । तो संजय जी का इंतजार करते हुए उनसे भी मिल लिया जाये । तो मोनू ने मोबाइल से उन्हें कॉल किया । तो उन्होंने हमें रेलवे स्टेशन ही बुला लिया । खैर हम स्टेशन के नजदीक ही थे । तो पहुँच गए । फिर उनके साथ ही हमने मारवाड़ी भोजनालय में खाया । उनसे भी जब गुप्तेश्वर धाम चलने की बात बताई तो वो भी चलनेचलने तैयार हो गए । अखिलेश जी भी कई बार बाबा धाम (बैद्यनाथ धाम, झारखण्ड) कांवर लेकर जा चुके है । इसलिए पैदल चलना उनके लिए कोई समस्या नही थी । गुप्ता बाबा के लिए हम सब ने वही बाजार से बोल बम के कपडे (गेरुआ बस्त्र) और टोर्च खरीदी । अब बस इंतज़ार था , तो संजय सिंह जी का ! दिनभर घूमने से शरीर में थकावट तो हो चुकी थी, जो खाना खाने के बाद और मेहसूस हो रही थी । माइक्रो वेब के ऑफिस में जब ऎसी रूम में आये तो वही फर्श पर ही लेट गए । पता ही नही चला कब नींद आ गयी । बाहर बारिश बहुत जोरो की होने लगी ..

तारा चंडी मन्दिर के पीछे NH 2




माँ तारा चंडी का प्रवेश द्वार

मूख्य द्वार

मंदिर और मजार एक साथ 


सोनवागढ़ महादेव मंदिर 

अगले भाग में पढ़िए कैसे हम लोग नक्सली क्षेत्र में बम बने और कैसे बाबा गुप्तेश्वर नाथ के दुर्लभ और दुर्गम दर्शन हो पाये !

orchha gatha

बेतवा की जुबानी : ओरछा की कहानी (भाग-1)

एक रात को मैं मध्य प्रदेश की गंगा कही जाने वाली पावन नदी बेतवा के तट पर ग्रेनाइट की चट्टानों पर बैठा हुआ. बेतवा की लहरों के एक तरफ महान ब...