शनिवार, 5 नवंबर 2016

रायप्रवीण का सौंदर्य और ओरछा की नियति (ओरछा गाथा भाग-4)

रायप्रवीन महल से चतुर्भुज मंदिर का बिहंगम दृश्य 
अभी तक आप पिछले तीन भागो में ओरछा के जन्म से लेकर उत्थान तक पढ़ चुके है । पिछले भाग में आपने मुझे कंचना के साथ रायप्रवीन महल में अंधकारमय रात्रि में विस्मित होते देखा । अब उसके आगे
               कंचना के कहने पर मैंने अपनी आँखे बंद कर ली । आँखे बंद किये हुये कुछ पल भी नही बीते पास ही पूरा प्रांगण संगीत की सुमधुर स्वर लहरियों से गूंज उठा । ढोल, तबला, सारंगी की मधुर स्वर मन को मस्त कर रहे थे । मैं भी मदहोश होकर उस मधुरिम स्वर में खो गया फिर उसकी अमृतमयी सरगम ने मुझे आँखे खोलने पर मजबूर कर दिया । जैसे ही मैने आँखे खोली तो देखता ही रह गया । सामने रायप्रवीन महल के प्रांगण  में बने चबूतरे पर मनमोहक फर्श बिछा हुआ है । सम्पूर्ण प्रांगण को धवल चांदनी से ढक दिया है । चांदनी के अंदर विभिन्न रंगो के झाड़ फानूस जगह जगह चांदनी की छत से झूल रहे है । चांदनी में लटके रंगीन झाड़ फानूसों से रंगीन प्रकाश सम्पूर्ण पंडाल और मंच को इंद्रधनुषी रंग में प्रकाशित कर रहे थे । कार्तिक अमावस्या की घनघोर अँधेरी रात में पूरा ओरछा दीप मालाओं से सजा हुआ है । मानो चांदनी धरती पर उतर आई हो । दूर से दुर्ग और महलों के परकोटे, बुर्ज पर लाखों दीपक ऐसे टिमटिमा रहे है, जैसे किसी उपवन में जुगनुओं की फ़ौज बैठी हो । दीपावली की इस रात्रि में ओरछा नरेश राजा इंद्रजीत सिंह रामराजा और लक्ष्मी पूजन के पश्चात् राज महल से सीधे अपनी प्रेयसी पत्नी रायप्रवीन के महल की ओर आने की सूचना द्वारपाल ने दी । सूचना मिलते ही रायप्रवीन महल में हलचल बढ़ गयी । तभी आकाश में आतिशबाजी होने लगी , अभी तक घने अँधेरे में गुमसुम सा बैठा आसमान किसी नवबधु की भांति खिल उठा । आकाशीय आतिशबाजी के प्रतिबिम्ब बेतवा के जल पर रोशनियों की लहरें बना रहे थे । दुंदुभी की आवाज़ से रायप्रवीन महल में महाराज जू का स्वागत हुआ । द्वार पर रायप्रवीन की खास सखी और दासी महुआ ने महाराज जू को कुमकुम और हल्दी-चावल माथे पर लगाकर स्वागत किया । महाराज जू अपने विशिष्ट आसन पर विराजे । वादक गणों को छोड़ कर अन्य सभी लोग वहां से हट गए ।  सुरक्षा प्रहरी महल के चारो तरफ फ़ैल गए । पूरा माहौल सुगन्धित इत्र से महक रहा था ।
     छन छन ....छन की आवाज़ ने वातावरण में मधुरता घोली । महल के अंदर से महाराज जू की ह्रदय सम्राज्ञी रूप सुंदरी रायप्रवीन का आगमन हुआ । आज दीपावली के विशेष श्रृंगार ने रायप्रवीन के सौंदर्य  को चार चाँद लगा दिए । रायप्रवीन के कमर की स्वर्ण करधनी एवं पैरों का नुपुर रुन-झुन की सुमधुर ध्वनि पैदा कर रहे थे । स्वर्ण तारों और सितारों के साथ मोतियों से टँकी बनारसी सिल्क की रानी रंग का लहंगा, चुनरी एवं चोली में वह स्वर्ग की अप्सरा लग रही थी । रायप्रवीन के नाक में नगीनों जड़ा नकमोती एवं मारवाड़ी नथिया , कानों में हीरे-मोतियों की जड़ाऊ झुमकी, हाथों की कलाइयों में रत्न जड़ित कंगन रायप्रवीन के अनुपम यौवन को अत्यधिक मादक बना रहे थे । पैरों में गाढ़ा महावर, हाथों में गाढ़ी मेहंदी उसके अनिंध यौवन को आकर्षक एवं दैवीय रूप प्रदान कर रही थी ।उसके ललाट पर लटक रहे हीरा-मोती जड़ा मांग टीका जिससे जल रहे दीपों का प्रकाश इंद्रधनुषी प्रकाश उत्पन्न कर रहा था । रायप्रवीन उद्दाम यौवन का मद बिखेरते हुए सधे कदमों से चल रही थी । उसके गदराये बदन के सुगंध से सम्पूर्ण वातावरण सुगन्धित हो उठा था । उसकी गजगामिनी चाल लोचदार कटिबन्ध उसे कामदेव की रति का रूप प्रदान कर रही थी । उसका गौरांग शरीर अमावस्या की अँधेरी रात्रि में चमक रहा था । रायप्रवीन के नितम्ब पर झूलते लंबे बालों की बेणी काली नागिन का आभास दे रही थी ।
                   रायपरवींन  ने घूँघट में रहते हुए श्रीरामराजा , भगवान जुगल किशोर, भगवान चतुर्भुज और बुंदेला वंश की कुलदेवी मन विंध्यवासिनी के मंदिर की दिशा में उन्मुख होकर सिर झुकाकर करबद्ध प्रणाम किया । घूमकर अपने पूज्य गुरुदेव हिंदी साहित्य के प्रथम आचाय केशवदास को प्रणाम करने के पश्चात् अपने प्रिय महाराजा इंद्रजीत जू को करबद्ध प्रणाम किया । महाराजा जू उसके सम्मोहक सौंदर्य के मायाजाल में उलझकर एकटक देख रहे थे । रायप्रवीन ने अपना मनमोहक नृत्य से न केवल महाराज जू को प्रसन्न किया, बल्कि उपस्थित चराचर जीव भी मुग्ध हो गए ।
                अभी तल्लीनता से नृत्य के मोहपाश में बंधा ही था , कि कंचना की आवाज़ ने मेरी तन्द्रा को भंग किया । अरे ! मेरी आँखों के सामने तो बस कंचना ही है, कहाँ गया वो वैभवपूर्ण महल, वो मनोरम दृश्य, वो रायप्रवीन का नृत्य , वो महाराजा जू ! सब यकायक गायब ! कंचना ने अपनी आवाज़ में विनम्रता लाते हुए कहा - हे पथिक ! अब स्वप्न के संसार से यथार्थ के धरातल पर आ जाओ । अब तुम रायप्रवीन के काल में नही हो । तुम वर्तमान में हो । ये तो माँ वेत्रवती की तुम पर विशेष कृपा थी, जो रायप्रवीन से साक्षात्कार हो सका ।
मैं किंकर्तव्यविमूढ़ बैठा, सोच ही नही पा रहा था , कि किसे सत्य मानू ? जो अभी कुछ पल पूर्व जो मैं देख रहा था , या जो अभी देख रहा हूँ । मेरा तन भले ही वर्तमान में उपस्थित है, परंतु मन तो वही रह गया । तभी पृष्टभूमि में माँ बेतवा की लहरों ने गर्जना की । एक ठंडी हवा का झोंका पूर्व दिशा की ओर से आया , और मुझे वर्तमान में ले आया । अब रायप्रवीन के बारे में मेरी उत्सुकता बढ़ती जा रही थी । मैंने कंचना की ओर हाथ जोड़कर विनय पूर्वक रायप्रवीन के बारे में बताने का निवेदन किया ।
                     कंचना ने एक साँस भरी और बोली - हे पथिक ! तुम रायप्रवीन के सौंदर्य से परिचित तो हो चुके ही । तो सुनो रायप्रवीन की कहानी । जब ओरछा में महराज मधुकरशाह का शासन था, तो अपने एक पुत्र इंद्रजीत को महाराज जू ने कछौआ ( वर्तमान शिवपुरी जिले में ) का जागीरदार बना दिया ।वही माधव नाम का एक लुहार हथियार बनाता था । उसी की पुत्री सावित्री जिसे घर में पूनिया कहते थे, उसके सौंदर्य पर इंद्रजीत सिंह रीझ गए । जब महाराज मधुकरशाह की मृत्यु हुई तो इंद्रजीत ओरछा राजगद्दी के उत्तराधिकारी बने , फिर उन्होंने माधव लुहार को भी ओरछा ही बुला लिया । तभी एक दुर्घटना में माधव की मृत्यु हो गयी । महाराज इंद्रजीत सिंह ने माधव की विधवा सत्या और पुत्री सावित्री की विशेष व्यवस्था की । सावित्री ओरछा राज्य के कुलगुरु और हिंदी साहित्य के प्रथम आचार्य कवि पंडित केशवदास के संरक्षण में शिक्षा-दीक्षा पाने लगी । सावित्री के अनुपम सौंदर्य के कारण दरबार के कई लोग की निगाहे सावित्री पर रही , अतः आचार्य केशवदास ने सावित्री को नृत्य, संगीत और काव्य के साथ ही शस्त्र चलाना भी सिखाया । सावित्री की हर विद्या में प्रवीणता को देखकर महाराज जू ने उसे रायप्रवीन की उपाधि दी । रायप्रवीन के मोहपाश में बंधे महाराज इंद्रजीत सिंह ने आखिरकार अपनी प्रेयसी को विवाह कर पत्नी के रूप में स्वीकार कर लिया । और ओरछा के राजमहल के निकट ही रायप्रवीन महल बनाकर प्रेयसी पत्नी को उपहार दिया । जो आज भी है । महाराज जू के रायप्रवीन के प्रेमपाश में जकड़े रहने के कारण राजकाज की व्यवस्थाएं शिथिल हो गयी । ओरछा की महारानी जू के लिए ये सौतन मुसीबत बन गयी । अतः रायप्रवीन को ओरछा से अलग करने के लिए षणयंत्र रचे गए । उसी के अंतर्गत तत्कालीन अय्याश मुग़ल बादशाह अकबर को रायप्रवीन के सौंदर्य का बखान कर पत्र लिखे गए और गुप्त सन्देश वाहक भेजे गए ।अंततः विरोधियों की चालें कामयाब रही । अकबर ने ओरछा के महाराज इंद्रजीत को फरमान भेजा कि रायप्रवीन को जल्द से जल्द आगरा दरबार में हाजिर किया जाये  । महाराज जू बड़े धर्मसंकट में फंस गए ।  आखिरकार अकबर से दुश्मनी न लेनी पड़े और ओरछा असमय ही कोई संकट में न फंसे इसलिये महाराज इंद्रजीत सिंह ने बुझे मन से रायप्रवीन को आगरा दरबार में भेज दिया । रायप्रवीन के साथ कवि केशवदास भी गए ।
                   आगरा में बादशाहे हिन्द का दरबार प्रतिदिन के नियत समय से पूर्व ही लग गया । चोकीदार ने घण्टा पर ज़ोरदार प्रहार किया , और तेज आवाज़ में चिल्लाया -
बाअदब , बामुलाहिजा, होशियार,जिल्लेइलाही, हजरत मुगले आजम, शहंशाहे हिन्द जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर तशरीफ़ ला रहे है .....।
       दरबार में शांति छा गयी । दरबार में हाजिर सभी दरबारी बारी बारी से बादशाह को झुककर सलाम कर रहे थे ।
           अकबर के नवरत्नों में से एक अब्दुर्रहीम खानखाना जो कि हिंदी प्रसिद्ध कवि भी थे, ने अपने स्थान से उठकर महाकवि केशवदास और उनकी शिष्या रायप्रवीन का परिचय दिया । केशवदास जी और रायप्रवीन ने बादशाह अकबर को हाथ जोड़कर प्रणाम किया ।
अकबर दोनों का प्रणाम स्वीकार कर हाथ उठाकर अभिवादन किया । और केशवदास जी से पूछा - आजकल आप क्या लिख रहे है ?
केशवदास- हुजूर, मेरी दो रचनायें पूर्ण हो गयी है, जिनमे एक महाकाव्य रसिकप्रिया है । मेरी दूसरी रचना शिक्षा का काव्य कविप्रिया कुछ दिन पूर्व ही पूर्ण हुआ है ।
- आप अपनी रचनाओं में से कुछ सुनायें ।
अकबर के शाबाशी देने पर महाकवि ने अकबर को वृद्धावस्था में कामातुर होने की स्थिति के अनुसार सवैया सुनाया -
हाथी न साथी न घोरे चेरे न गांव न ठाँव को नाम विलैहें ।
तात न मात न मित्र न पुत्र व् वित्त अंगहु संग न रैहैं ।
केशव नाम को राम विसारत और निकाम न कामहि अइहें ।
चेत रे चेत अजौं चित्त अंतर अन्तक लोक अकेले हि जैहें ।
रहीम द्वारा सवैया का अर्थ समझाने पर अकबर लज्जित हो गया । अपनी झेंप मिटाने के लिए आदेश दिया-
महाकवि केशवदास की शिष्या ओरछा की नर्तकी रायप्रवीन अपनी कवित्त रचना पेश करे ।
रायप्रवीन पर्दा हटाकर दरबार के मध्य में अर्ध घूँघट में आकर खड़ी हो गयी। उसी स्थिति में घूमकर सभी दरबारियों का अभिवादन किया । दरबारी उसके नैसर्गिक सौंदर्य को देखकर मंत्रमुग्ध हो गए ।
रायप्रवीन ने अपना कवित्त सुनना आरम्भ किया -
स्वर्ण ग्राहक तीन, कवि, विभिचारि, चोर
पगु न धरात, संसय करत तनक न चाहत शोर ।
पेड़ बड़ौ छाया घनी, जगत केरे विश्राम
ऐसे तरुवर के तरे मोय सतावै घाम ।
कहाँ दोष करतार को, कूर्म कुटिल गहै बांह
कर्महीन किलपत फिरहिं कल्पवृक्ष की छाँह ।
      वाह-वाह ओरछा की शायरा नर्तकी । तुम मेरे हरम की नायाब नगीना बन जाओ । तुम्हे ओरछा से हजार गुना सुख-सुविधा मिलेगी ।
- जिल्ले इलाही मेरे विनम्र निवेदन को सुनने की कृपा करे ।
हाँ , हाँ सुनाओ
- विनती रायप्रवीन की सुनिए साहि सुजान,
  जूठी पातर भखत है वारी वायस स्वान ।
कवित्त सुनते ही अकबर का चेहरा तमतमा गया । परंतु अपना क्रोध पीते हुए अकबर ने घोषणा की -
ओरछा की नर्तकी को मुक्त किया जाता है । वह अपनी मर्जी से जब तक चाहे आगरा में रुक सकती है । जब भी मर्जी ओरछा जा सकती है । उपहारों से नवाजकर इसकी विदाई की जाये ।
    इस तरह से रायप्रवीन ने न केवल अपनी बल्कि ओरछा की इज्जत बचा ली । यह कह कर कंचना चुप हो गयी । मैंने अँधेरे में ध्यान से देखा तो वहां कोई नही था । मैं समझ गया ... चल पड़ा माँ बेतवा के आँचल की ओर ओरछा के नए रहस्य को जानने ...क्रमशः जारी
( इस भाग में कुछ तथ्य व वाक्य श्री शरत सोनकर जी के उपन्यास रायप्रवीण ..ओरछा की जन नायिका से साभार लिए गए है ।)
रायप्रवीन महल से दिखता जहागीर महल ।

शनिवार, 8 अक्तूबर 2016

वो ठिठुरती सर्दी में सूबेदार साहब का कम्बल !


 एक अपनी यादगार रेलयात्रा सुनाता हूँ ।
जनवरी 2006 की बात है । तब मैं इलाहबाद में सिविल की तैयारी कर रहा था । उत्तर भारत कड़ाके की सर्दी और कुहरे में लिपटा हुआ था, लिहाजा सभी ट्रेनें परम्परानुसार लेट ही चल रही थी । कई ट्रेने कैंसिल भी हो चुकी थी । मेरी मम्मी का आदेश था , कि खिचड़ी ( मकर संक्रांति) को गांव (बक्सर जिला बिहार) आ जाओ । चूँकि कोचिंग की मात्र एक दिन की छुट्टी थी, तो मेरा मन नही था।लेकिन जब माँ का आदेश हो तो जाना ही है ।
13 जनवरी 2006 को इलाहाबाद में सर्दी कम थी, इसलिए मैने इनर के अलावा गर्म कपड़ो में कुछ नही पहना । हाँ बैग में एक हाफ स्वेटर डाल लिया। बस सुबह सुबह पहुँच गए इलाहबाद स्टेशन । बक्सर तक का इलाहाबाद से लगभग साढ़े चार-पांच घंटे का सफ़र है । अब स्टेशन पर पहुचने के बाद पता लगा सभी ट्रेनें अपने समय कुछ देरी से चल रही है । इसके लिए रेलवे की अनोउंसर बाकायदा खेद व्यक्त कर रही थी । हर थोड़ी देर में बताया जाता की फलानी ट्रेन अपने तय समय से कुछ (मतलब एक या दो घंटे की) देरी से चल रही है । इसके लिए रेलवे को हर बार खेद हो रहा था । हम भी उनके खेद को समझते हुए पूरे दिन से स्टेशन पर डटे रहे । अब दिन ढलने लगी , अँधेरा घिर आया और स्टेशन की बत्तियां जल उठी । बीच में कई बार मन वापस कमरे पर जाने का किया । मगर रेलवे की कुछ देर की देरी ने रोक रखा कि बस एक या दो ही घंटे की बात है । पर इस तरह पूरा दिन ही स्टेशन पर गुजर गया ।
         खैर हमारे इंतजार की इंतहा को तोड़ते हुए दिल्ली से हावड़ा जाने वाली जनता एक्सप्रेस आई । ये अपने समय से पूर्व थी । अब हमारे आश्चर्य का ठिकाना नही था । लेकिन जो लोग कभी गलती से इस ट्रेन में बैठे है । जानते होंगे कि इसका नाम में ही बस एक्सप्रेस है ,वरना ये अपनी रफ़्तार और रुकने में कई बार पैसेंजर को भी शरमा दे । इसमें अधिकांश सामान्य श्रेणी के डिब्बे है । खैर खुद की खैर मनाता हुआ मैं एक जनरल बोगी में जैसे तैसे दाखिल हुआ । पूरी बोगी में लोग भेंड़ बकरियों से भी बुरी हालात में ठुसे हुए थे । अब मरता क्या न करता । वापिस उतरने की हिम्मत या कहे जगह ही नही थी । अब खड़े खड़े ही सफ़र करना था । बोगी में अधिकांश यात्री दिल्ली में मजदूरी करने वाले बिहारी ही थे । अब एक साइड बर्थ में एक विकलांग किशोर बैठा अकेला ही बैठा था । एक उम्मीद जगी , मैं उसके पास खड़ा हो गया । अब उससे बातें करने लगा जैसे कहाँ से आ रहा है ? कहाँ जा रहा है ? साथ में कौन है ? इतनी बातों में पता चला वो किशोर अनाथ था , दिल्ली में किसी आमिर व्यक्ति ने पाला था । अब वो कोलकाता अपने किसी रिश्तेदार के पास जा रहा था। थोड़ी देर की बातचीत में उससे दोस्ती हो गयी । और उसने अपने बगल में बैठने की जगह दे दी । खैर गाड़ी अपनी रेंगती सी चाल में हर स्टेशन यहां तक हाल्ट पर भी रुकती जा रही थी । खैर हम कभी अपनी किस्मत पर रोते तो कभी भारतीय रेलवे की हालत पर रोते हुए आधी रात को बक्सर पहुंचे ।
                           लेकिन हमारी किस्मत तो पूरी तरह से परेशां करने के मूड में थी । बक्सर में भयंकर ठण्ड थी । लेकिन पूरा स्टेशन मकर संक्राति पर गंगा स्नान के लिए आये यात्रियों से भरा पड़ा था । लोग पुआल बिछाकर पुरे स्टेशन पर घर जैसे कम्बल ओढ़कर सो रहे थे । अब आधी रात को गांव जाने को कोई साधन मिलना ही न था । मतलब पूरी रात स्टेशन पर ही काटनी थी । बैग से हाफ स्वेटर निकालकर पहना, पर इससे तो ठण्ड पर कोई असर ही न पड़ा । अब बैठने की भी कोई जगह नही और ठण्ड अलग लग रही थी । जब ज्यादा ठण्ड लगती तो पूरे प्लेटफार्म का तेज क़दमों में चक्कर लगा आता । इससे गर्मी भी आ जाती और प्लेटफार्म में जगह की खोज भी हो जाती । इस तरह के सात आठ चक्करों के बाद एक बेंच पर एक आर्मी के सूबेदार अपने बैग के साथ बैठे दिखे । अपन भी चल दिए सूबेदार साहब सिग्नल कोर से थे , और हम भी एन सी सी में सिग्नल कोर में थे । बस क्या था ! शुरू हो गयी सिग्नलिंग । हमे ग्रीन सिग्नल देकर सूबेदार साहब ने अपना बैग बेंच से नीचे रखकर अपने बगल में पनाह दी । अब बैठने की जुगाड़ तो हो गयी , लेकिन ठण्ड का क्या करे ? बैठने के बाद तो और भी लगने लगी । हमारी कंपकपी को देखकर सूबेदार साहब ने अपने बैग से कम्बल निकाला और ओढ़ने को दिया । अब कुछ देर हम कम्बल ओढ़ते और सूबेदार साब पहरा देते । फिर हम पहरा देते तो सूबेदार साब कम्बल ओढ़कर लेटते थे । इस तरह रात काटी । सुबह तूफान एक्सप्रेस से मैं डुमराव और सूबेदार साब रघुनाथपुर उतरे । और हम किसी तरह घर पहुँच पाये । आज भी वो मकर संक्रांति याद आ जाती है ।
भयंकर सर्दी में लोगों से पटा रेलवे स्टेशन 


सोमवार, 3 अक्तूबर 2016

महाभारत कालीन माँ तारा चंडी मंदिर, सासाराम ( गुप्तेश्वर धाम यात्रा भाग-2)


शेरशाह के मकबरे के बाद हम लोग अपने मोबाइल के जीपीएस के भरोसे माँ ताराचंडी मंदिर की और निकल पड़े । धूप बहुत तेज हो चुकी थी । जीपीएस महोदय की सुचना के अनुसार चलते चलते जब हमने एक पहाड़ी पर मंदिर नुमा संरचना देखकर गाड़ी मोडी तो कुछ शंका हुई । तो रस्ते में मिले एक ऑटो वाले को रोककर पूछा , उसने बताया कि ये तो शहीद स्मारक है । इससे ज्यादा उसे भी कोई जानकारी नही थी । तो हम लोग पुनः मुख्य सड़क पर आ गए । मकबरे से लगभग 5 किमी चलने के बाद हम लोग माँ ताराचंडी के मंदिर पहुंचे । मंदिर के बारे में मुख्य जानकारी यह है , कि
सासाराम शहर से दक्षिण में कैमूर की पहाड़ी की मनोरम वादियों में मां ताराचंडी का वास है। ताराचंडी के बारे में स्थानीय लोगों का मानना है कि ये 51शक्तिपीठों में से एक है। कहा जाता है कि सती के तीन नेत्रों में से भगवान विष्णु के चक्र से खंडित होकर दायां नेत्र यहीं पर गिरा था। तब यह तारा शक्ति पीठ के नाम से चर्चित हुआ। कहा जाता है कि महर्षि विश्वामित्र ने इसे तारा नाम दिया था। दरअसल, यहीं पर परशुराम ने सहस्त्रबाहु को पराजित कर मां तारा की उपासना की थी। मां तारा इस शक्तिपीठ में बालिका के रूप में प्रकट हुई थीं और यहीं पर चंड का वध कर चंडी कहलाई थीं। यही स्थान बाद में सासाराम के नाम से जाना जाने लगा।
मां की सुंदर मूर्ति एक गुफा के अंदर विशाल काले पत्थर से लगी हुई है। मुख्य मूर्ति के बगल में बाल गणेश की एक प्रतिमा भी है। कहते हैं कि मां ताराचंडी के भक्तों पर जल्दी कृपा करती हैं। वे पूजा करने वालों पर शीघ्र प्रसन्न होती हैं। मां के दरबार में आने वाले श्रद्धालु नारियल फोड़ते हैं और माता को चुनरी चढ़ाते हैं।

चैत और शरद नवरात्र के समय ताराचंडी में विशाल मेला लगता है। इस मेले की प्रशासनिक स्तर पर तैयारी की जाती है। रोहतास जिला और आसपास के क्षेत्रों में माता के प्रति लोगों में अगाध श्रद्धा है। कहा जाता है गौतम बुद्ध बोध गया से सारनाथ जाते समय यहां रूके थे। वहीं सिखों ने नौंवे गुरु तेगबहादुर जी भी यहां आकर रुके थे।

कभी ताराचंडी का मंदिर जंगलों के बीच हुआ करता था। पर अब जीटी रोड का नया बाइपास रोड मां के मंदिर के बिल्कुल बगल से गुजरता है। यहां पहाड़ों को काटकर सड़क बनाई गई है। ताराचंडी मंदिर का परिसर अब काफी खूबसूरत बन चुका है। श्रद्धालुओं के दर्शन के लिए बेहतर इंतजाम किए गए हैं। मंदिर परिसर में कई दुकानें भी हैं। अब मंदिर के पास तो विवाह स्थल भी बन गए हैं। आसपास के गांवों के लोग मंदिर के पास विवाह के आयोजन के लिए भी आते हैं।

मां ताराचंडी का मंदिर सुबह 4 बजे से संध्या के 9 बजे तक खुला रहता है। संध्या आरती शाम को 6.30 बजे होती है, जिसमें शामिल होने के लिए श्रद्धालु बड़ी संख्या में पहुंचते हैं। मंदिर की व्यवस्था बिहार राज्य धार्मिक न्यास परिषद देखता है।
कैसे पहुंचे- ताराचंडी मंदिर की दूरी सासाराम रेलवे स्टेशन से 6 किलोमीटर है। मंदिर तक पहुंचने के लिए तीन रास्ते हैं। बौलिया रोड होकर शहर के बीच से जा सकते हैं। एसपी जैन कालेज वाली सड़क से या फिर शेरशाह के मकबरे के बगल से करपूरवा गांव होते हुए पहुंच सकते हैं। आपके पास अपना वाहन नहीं है तो सासाराम से डेहरी जाने वाली बस लें और उसमें मां ताराचंडी के बस स्टाप पर उतर जाएं।
मंदिर बहुत भव्य बना हुआ है , और अभी भी निर्माण कार्य चल रहा है । मंदिर में संगमरमर की शिलाओं पर दानदाताओं के नाम जगह जगह खुदे हुए है । तारा चंडी मंदिर प्रांगण में ही भैरव नाथ का नया मन्दिर बना है । एक नयी और रोचक बात मुझे ये दिखाई दी , कि मंदिर प्रांगण में ही एक मजार भी बनी हुए । इसके बारे में जब पुजारी जी से पूछा तो उन्होंने बताया कि पहले माँ ताराचंडी का मंदिर कम जगह में बना हुआ था । लेकिन जब मंदिर का विस्तार हुआ तो पास ही बनी ये मजार मंदिर परिसर के बीचोबीच आ गयी । लेकिन धार्मिक सद्भाव न बिगड़े इसलिए इसे कोई क्षति नही पहुचाई गयी । आज भी मुस्लिम धर्मं के लोग यहां उपासना करते है । देश में धार्मिक सद्भाव की अनूठी मिसाल देखने मिली । खैर दर्शन करने के बाद कुछ देर हम लोगों ने मंदिर परिसर में नीचे लेटकर आराम किया । संजय सिंह जी को रात को आना था , इसलिए हमारे पास पर्याप्त समय बचा था । मुंडेश्वरी देवी के बारे में पता करने पर मालूम हुआ , वहां जाने के लिये देर हो चुकी । अगर इस वक़्त (लगभग शाम के 5 बजे ) चले तो वहां पहुचते ही रात हो जायेगी । जबकि हमारी मंजिल तो बाबा गुप्तेश्वर नाथ धाम है । अब बचे समय में क्या किया जाये , यही सोचते हुए हम लोग मंदिर से बहार की और निकले तो देखा पास ही में एक दीवार पर परशुराम द्वारा पूजित शिव मंदिर सोनगढ़वा की जानकारी अंकित थी । मंदिर यहाँ से नजदीक ही था । फिर क्या था , चल पड़े NH-2 बाईपास से कुछ ही दुरी पर स्थित सोनगढ़वा शिव मंदिर । मंदिर बिलकुल राष्ट्रिय राजमार्ग 2 (जीटी रोड) के किनारे ही था । यहाँ न के बराबर लोग थे । मंदिर में बड़ी शांति थी । मंदिर के आसपास पड़े प्राचीन पत्थर  मंदिर की प्राचीनता को प्रमाणित कर रहे थे । हाथ-मुंह धोकर हमने मंदिर में प्राचीन शिवलिंग के दर्शन किये । कुछ देर मंदिर के पुजारी जी के पास बैठे । उनहोंने बताया कि मंदिर महाभारत कालीन है । पुराने समय में मंदिर के आसपास ही शहर बसा हुआ था । शेरशाह के समय वर्तमान जगह पर शहर फिर से बसाया गया । आज भी मंदिर के आसपास की जगहों पर खुदाई करने पर सोने के सिक्के या मुहरे मिलती है । इसलिए इस जगह को सोनगढ़वा कहा जाता है । कुछ देर आराम करने के बाद ड्राईवर ने वही के नल से कार धोई । सूर्य अस्त होने के पहले ही हम वापिस सासाराम की तरफ निकल लिए । सासाराम पहुँचते ही मोनू को भूख लग आई थी । तो स्टेशन के सामने एक जगह सबने चौमिन खाया । मोनू ने बताया कि पापा के एक सहकर्मी अखिलेश सिंह जी हाल ही में सोनपुर रेलवे के माइक्रो वेब में पदस्थ हुए है । तो संजय जी का इंतजार करते हुए उनसे भी मिल लिया जाये । तो मोनू ने मोबाइल से उन्हें कॉल किया । तो उन्होंने हमें रेलवे स्टेशन ही बुला लिया । खैर हम स्टेशन के नजदीक ही थे । तो पहुँच गए । फिर उनके साथ ही हमने मारवाड़ी भोजनालय में खाया । उनसे भी जब गुप्तेश्वर धाम चलने की बात बताई तो वो भी चलनेचलने तैयार हो गए । अखिलेश जी भी कई बार बाबा धाम (बैद्यनाथ धाम, झारखण्ड) कांवर लेकर जा चुके है । इसलिए पैदल चलना उनके लिए कोई समस्या नही थी । गुप्ता बाबा के लिए हम सब ने वही बाजार से बोल बम के कपडे (गेरुआ बस्त्र) और टोर्च खरीदी । अब बस इंतज़ार था , तो संजय सिंह जी का ! दिनभर घूमने से शरीर में थकावट तो हो चुकी थी, जो खाना खाने के बाद और मेहसूस हो रही थी । माइक्रो वेब के ऑफिस में जब ऎसी रूम में आये तो वही फर्श पर ही लेट गए । पता ही नही चला कब नींद आ गयी । बाहर बारिश बहुत जोरो की होने लगी ..

तारा चंडी मन्दिर के पीछे NH 2




माँ तारा चंडी का प्रवेश द्वार

मूख्य द्वार

मंदिर और मजार एक साथ 


सोनवागढ़ महादेव मंदिर 

अगले भाग में पढ़िए कैसे हम लोग नक्सली क्षेत्र में बम बने और कैसे बाबा गुप्तेश्वर नाथ के दुर्लभ और दुर्गम दर्शन हो पाये !

रविवार, 11 सितंबर 2016

जब नक्सली क्षेत्र में बम बने हम (गुप्तेश्वर नाथ धाम यात्रा भाग -1)

व्हाट्स एप ग्रुप " घुमक्कड़ी दिल से "  में पटियाला वासी श्री सुशिल कुमार जी ने एक नई श्रृंखला प्रारम्भ की " छुपा हीरा ( Hidden places)" इसी श्रृंखला में बिहार के आरा (भोजपुर जिला ) के रहने वाले श्री संजय कुमार सिंह जी ने सासाराम के पास गुप्तेश्वर नाथ धाम जिसे स्थानीय लोग "गुप्ता बाबा " के नाम से जानते है , का परिचय ग्रुप में कराया । अब चूँकि मैं भी बिहार के बक्सर जिले का मूल निवासी हूँ, और आरा और सासाराम हमारे पडोसी जिले है , तो मैंने संजय जी से गुप्ता धाम चलने की चरचा की , तो उन्होंने बताया कि वहां यात्रा सिर्फ सावन और फागुन के महीनों में ही होती है । मेरी तो बांछे खिल गयी (शरीर में जहाँ भी होती हो ) , क्योंकि 16 जुलाई 2016 को मेरे पुत्र की मूल पूजा (सताईसा) करने मुझे घर आना ही था । खैर 20 जुलाई से सावन का महीना शुरू हो रहा था । व्हाट्स एप्प पर ही संजय जी से चर्चा हुई और 22 जुलाई को सासाराम में मिलने का तय हुआ । 11 जुलाई को मैं सपरिवार ओरछा से अपनी कार से  बक्सर अपने घर आया । 16 जुलाई को बारिश के बीच सताईसा का कार्यक्रम संपन्न हुआ । अभी तक घर में मैंने गुप्ता धाम जाने की चर्चा नही की थी । गांव के कुछ घुमक्कडों से जरूर गुप्ता धाम के बारे पूछा । जब  घर पर चर्चा की तो कोहराम मच गया । गुप्ता धाम ही नही सासाराम जिला नक्सली क्षेत्र के रूप में बदनाम है । और गुप्ता धाम में तो प्रशासन है ही नही । सारी व्यवस्थाएं नक्सली ही सँभालते है । पूरा क्षेत्र घने जंगलों वाला पहाड़ी इलाका है । बरसात में तो और रास्ते बंद हो जाते है , जगह-जगह बरसाती नदियां और झरने बहते है । घर की इंवेस्टिगेशन में जब पूछा गया कि वहां के बारे में किसने बताया । तो संजय जी के बारे में बताया गया , अब और आफत कि एक अनजान आदमी जिससे कभी मिले नही , उसके कहने पर नक्सली क्षेत्र में जाने तैयार हो गए ! अब मैं किंकर्तव्यविमूढ़ कि जाना तो है, लेकिन कैसे ?
इसी बीच संजय जी से मोबाइल पर चर्चा हुई , तो उन्होंने बताया कि वो 22 जुलाई की रात सासाराम मिलेंगे , पहले बाइक से चलने का कार्यक्रम था , मगर हो रही बारिश के कारण मैंने अपनी कार से जाने का फैसला किया । घरवालों को बताया कि बस सासाराम घूम के लौट आऊंगा । जब कार से चलने का फैसला हो गया तो साथ चलने के लिए मेरा सबसे छोटा भाई अभिषेक (मोनू), मेरा ड्राइवर टिंकू भी तैयार हो गए ।  22 जुलाई को अंत में मेरे चाचा जी जो स्वास्थ्य कारणों से इस बार देवघर कांवर यात्रा में नही जा पाए , वो भी तैयार हो गए । खैर घर से कार में मैं, ड्राइवर टिंकू और चाचा जी निकल पड़े । सोनपुर में पदस्थ मोनू ट्रैन से आ रहे था, जिसे हमने डुमरांव रेलवे स्टेशन से साथ लिया । अब कार में चार लोग हो गए , सासाराम में संजय जी के मिलने पर कार फुल हो जानी थी । डुमरांव से हम लोग विक्रमगंज के रास्ते सासाराम की ओर बढ़ रहे थे । बक्सर जिले की सीमा पार करते ही जब हम रोहतास (सासाराम) जिले की सीमा में प्रवेश किये , तो सड़क के दोनों तरफ सिर्फ पानी ही पानी नज़र आ रहा था । खेत, घर सब पानी -पानी हुए जा रहे थे । कुछ खेतों में महिलाएं  धान रोप रही थी । रोहतास जिले को बिहार का धान का कटोरा कहते है । इस क्षेत्र में चावल बहुतायत में होता है , रास्ते में हर थोड़ी दूरी पर मिलती राइस मिलों ने पुख्ता किया । सासाराम मेरी घुमक्कड़ यात्रा में बहुत पहले से था , क्योंकि एक तो यह मेरे घर से नजदीक था , दूसरा इतिहास का विद्यार्थी होने के कारण मध्य कालीन इतिहास के सर्वश्रेष्ठ व्यक्तित्व शेरशाह सूरी की कर्मस्थली का अलग ही आकर्षण था ।  मेरी इच्छा आज पूरी होने वाली थी । अब चूँकि संजय जी अपना ऑफिस का कार्य पूरा करने के बाद रात्रि 9-10 बजे आने वाले थे, तो हम लोगो के पास सासाराम और आसपास घूमने के लिए पूरा दिन था । सबसे पहले हमने सासाराम की शान शेरशाह सूरी के मकबरे की ओर रुख किया । मोबाइल पर गूगल मैप की सहायता से हम शेरशाह के भव्य मकबरे पर पहुँचे ।

मेरे गांव में हर साल देवघर जाने वाले कांवरियां 
सड़क के किनारे धान के खेत में रोपणी करती हुई महिलायें

शेरशाह सूरी इतिहास में मेरे प्रिय पात्रों में से एक रहा है । उसका जीवन प्रेरणादायी रहा है । अपनी तलवार के एक वार से शेर के दो टुकड़े करने वाला बाबर की सेना का एक अदना सा सैनिक बहुत जल्दी ही हुमांयू को बुरी तरह हराकर हिंदुस्तान का शहंशाह बन जाता है । लेकिन मुझे शेरशाह इस वजह से पसंद नही है । बल्कि उसके अपने पांच वर्ष (1540-1545 ई0) के छोटे से कार्यकाल में जो कार्य किये वो अतुलनीय है ।उस ज़माने में कोलकाता से उत्तर भारत के सभी महत्वपूर्ण शहरों जैसे धनबाद, गया, सासाराम, ग़ाज़ीपुर, वाराणसी, इलाहबाद, कानपूर, आगरा, मथुरा, दिल्ली, अमृतसर, लाहौर से होकर पेशावर तक पक्की सड़क बनवाई । आज हम जिसे ग्रैंड ट्रंक रोड या जीटी रोड (NH No. 2) के नाम से जानते है । इस सड़क के दोनों तरफ छायादार और फलदार वृक्ष लगवाये , यात्रियों के रुकने के लिए सराय, कुंऐं आदि की व्यवस्था की । हमारी भारतीय करेंसी रुपया भी शेरशाह की देन है । भूमि की पैमाइश भी शेरशाह ने टोडरमल (जो बाद में अकबर के नवरत्नों में शामिल हुए ) से करवाई । इतिहासकार तो यहाँ तक लिखते है, कि अगर शेरशाह न होता तो अकबर भी महान न होता । क्योंकि अकबर शेरशाह की अधिकांश योजनाओं को आगे बढाकर प्रसिद्धि हासिल की । तो ऐसे महान शासक का मकबरा जो न केवल अपने गृहराज्य में बल्कि गृह जिले के पास हो देखना बनता है । अब इतिहास से वापिस वर्तमान में लौटते है । गूगल मैप के भरोसे हम मकबरे के चक्कर लगाते रहे , अंततः एक स्थानीय व्यक्ति से पूछकर प्रवेश द्वार पर पहुंचे ।टिकट काउंटर लिखी जगह पर पहुँचे तो वहां ताला लगा हुआ था । फिर पार्किंग वाले ने बताया कि गेट के पास बने काउंटर से टिकट मिलेगा । टिकट लेकर स्मारक के अंदर दाखिल हुए । शेरशाह का मकबरा भारत के सुन्दर मकबरों में से एक है । मकबरे के चारो तरफ एक बड़ा तालाब बना है , जिसके किनारों पर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI)  ने सुन्दर बगीचा विकसित किया है ।
शेरशाह ने अपने मकबरे का निर्माण कार्य स्वयं ही शुरू किया था, लेकिन 1545 में कालिंजर के किले को जीतने के प्रयास में बारुदखाने में आग लग जाने के कारण असमय ही मृत्यु हो जाने के कारण शेरशाह के पुत्र सलीम सूरी ने इसे पूरा करवाया था ।ये मकबरा भारत में अफगानी स्थापत्य का सर्वश्रेष्ठ नमूना है । एक तरफ ये भव्य है, तो दूसरी तरफ ये सादगी से भी परिपूर्ण है । तालाब के बीचो बीच बना इस  मकबरे में मध्य में एक बड़ा गुम्बद है, जिसके कोनों पर अष्टकोणीय शैली में अन्य छोटे गुम्बद बने है । पूरा मकबरा मूलतः ईटों से निर्मित है, जिस पर बाद में लाल पत्थरों को लगाया गया है । मुख्य गुम्बद के नीचे भीतर शेरशाह सूरी और उनके खास दरबारियो की कब्रें है । अंदर जूते-चप्पल पहनकर जाना मना है । जब अंदर घुसे तो बाहर की जालियों से रौशनी छनकर कब्रों के ऊपर आ रही थी । मानों  सूरज भी हिंदुस्तान की तारीख में दफन हो चुके अजीम सुल्तान का इस्तकबाल कर रहा हो । मैं भी कुछ देर तक उन कब्रों के बीच खड़ा फक्र महसूस कर रहा था । अंदर फ़ोटो खींचना मना था । फिर आँख बचाकर एक दो फ़ोटो खींच ही ली । मकबरे की दीवारों पर फ़ारसी या अरबी में कुरान की आयते लिखी थी । बाहर कुछ नवयुगल इतिहास से अनजान अपने वर्तमान में मगन थे । धूप बहुत ही तेज थी । लेकिन मकबरे से तालाब के दूसरी तरफ की हरियाली आँखों को सुकून दे रही थी । खैर कुछ देर और घूमने के बाद फ़ोटो खींच कर हम मकबरे की सीमा से बाहर निकल पड़े । अब हमारा अगला लक्ष्य सासाराम में ही स्थित ताराचण्डी देवी मंदिर था । अपनी कार हमने मकबरे के पीछे वाले रस्ते पर मोड़ ली ...क्रमशः जारी


टिकट कॉउंटर जहाँ टिकट नही मिलता 

प्रवेश द्वार 

प्रवेश करते ही दिखाई देता भव्य मकबरा 

हमारी घुमक्कड़ फैमिली 


शुक्रवार, 9 सितंबर 2016

रायप्रवीण : जिसके आगे अकबर को भी झुकना पड़ा ( ओरछा गाथा भाग - 3 )

मित्रों अभी तक आपने ओरछा गाथा के प्रथम दो भागों पर जो रूचि दिखाई और मुझ खाकसार का उत्साहवर्धन किया , मेरे लिए बड़े सम्मान की बात है । तो अभी तक हमने माँ बेतवा से ओरछा के उत्थान से लेकर रामराजा के आगमन की कथा जानी , अब उसके आगे की कथा माँ के शब्दों में ही ..
महराज मधुकर शाह की आठ संताने थी । बड़े पुत्र रामशाह अकबर के दरबार में बुंदेलखंड के प्रतिनिधि के तौर पर आगरा में थे । मधुकर शाह जू के निधन के बाद दूसरे पुत्र इंद्रजीत सिंह ओरछा की राजगद्दी पर बैठे । तीसरे पुत्र वीरसिंह को दतिया के पास बडौनी का जागीरदार बनाया गया । इसी तरह अन्य पुत्रों को भी जागीरदार बनाया गया । खैर  हम वापिस ओरछा लौटते है । ओरछा के राजगुरु के पद पर हिंदी के महान कवि रस सिद्ध आचार्य श्री केशवदास जी को बनाया गया । खैर हम बात करेंगे ओरछा की उस जन नायिका राय प्रवीण की , जो न केवल उस वक़्त सम्पूर्ण बुंदेलखंड बल्कि आगरा दरबार में अपने अप्रतिम सौंदर्य के कारण हर व्यक्ति के दिलोदिमाग में बसी थी । इतिहास में कई रूपसियो सह प्रेमिकाओं की चर्चा होती है । शकुंतला, आम्रपाली , करुवाकि, मालविका ,कुमारदेवी, ध्रुवस्वामिनी, संयोगिता, पद्मावती, रूपमती, नूरजहाँ , मुमताज आदि ।
मगर जब बुंदेलखंड को ही इतिहासकारों ने भुला दिया तो फिर राय प्रवीण के साथ कैसे इतिहास न्याय कर सकता था । एक ऐसी सर्वांगसुन्दरी जिसकी विद्वता के आगे मुग़ल दरबार भी अचंभित था । राय प्रवीण को ईश्वर ने न सिर्फ रूप प्रदान किया था , बल्कि वह नृत्य, गान , काव्य , घुड़सवारी , युद्धकला में भी उतनी ही प्रवीण थी । माँ सरस्वती की विशेष कृपापात्र इतिहास में ऐसे बहुत ही बिरले होते है ।
आज की शाम कुछ ज्यादा गहरी है । कृष्ण पक्ष के कारण चाँद भी अभी निकला नही । माँ बेतवा के तट पर ग्रेनाइट की चट्टानें ऐसी लग रही है ,मानो कोई भीमकाय प्राणी सुस्ता रहा हो । ऊपर आसमान में तारे टिमटिमा रहे है । हवा के साथ बादल भी इधर से उधर चक्कर लगा रहे है । ऐसा लगता है , मेरी तरह वो भी ओरछा गाथा सुनने को बेताब है । झींगुरों की आवाजे वातावरण की ख़ामोशी को सुमधुर बना रही है । खैर प्रतीक्षा पूरी हुई , माँ बेतवा से आवाज आई .. आ गये पुत्र!
मैंने कहा - माँ आपकी ममता और ओरछा की गाथा  मुझे यहां खींच ही लाती है ।
माँ बेतवा पुनः बोली-
लेकिन पुत्र आज की गाथा मैं तुम्हे नही सुनाऊँगी ।
ये सुनकर मेरा दिल धक्क सा कर गया । लगा किसी ने मेरा सब कुछ छीन लिया हो । तभी माँ बेतवा की ममतामयी आवाज़ गूंजी - पुत्र निराश न हो ! आज की गाथा तुम्हे कंचना सुनाएगी ।
कौन कंचना ? मैंने आश्चर्य के साथ बोला ।
तभी पायल की झंकार ने वार्ता को विराम दिया । तभी मैंने आवाज की तरफ नजरें घुमाई तो मुझे एक स्त्री की छाया घाट की ओर दिखाई दी ।
उस छाया की तरफ से आवाज़ आई ! आओ पथिक तुम्हे आगे की कथा मैं सुनाती हूँ ।
मैं घाट की ओर बढ़ा , अँधेरे के कारण मुझे चेहरा तो नही दिखा , परंतु आवाज़ और छाया की काया से मैंने अंदाज़ लगाया कि ये कोई युवती है ।
तभी फिर छाया से आवाज़ आयी - चलो पथिक !
कहाँ ?
जहाँ इस कथा का महत्वपूर्ण स्थल है ।
मैं भी भय मिश्रित उत्साह के साथ माँ बेतवा के किनारे किनारे छतरियों से होते हुए शाही दरवाजे पहुचे , फिर बड़ी माता मंदिर से किले के पिछले हिस्से में पहुँचे जहां रायप्रवीण महल बना है । रायप्रवीण महल परिसर में बने उद्यान में जाकर कंचना रुकी । अब भी मैं उसका चेहरा नही देख पा रहा था । उसने मुझे बैठने का इशारा किया , मैं वही चबूतरे पर बैठ गया । मेरे बैठने के बाद कंचना भी बैठ गयी ।
पथिक ! अभी तक माँ बेत्रवती ने तुम्हे ओरछा की स्थापना, रामराजा के आगमन की कथा सुनाई , अब आगे की कथा मुझसे सुनो । महराज मधुकर शाह जू की मृत्यु के पश्चात उनके ज्येष्ठ पुत्र रामशाह को आगरा दरबार में भेजा गया , जहाँ वो बुंदेलखंड के प्रतिनिधि बने । द्वितीय पुत्र इंद्रजीत सिंह को ओरछा की गद्दी पर बिठाया गया । और तृतीय पुत्र वीरसिंह को दतिया के पास बड़ौनी का जागीरदार बनाया गया । तीनो अपने आप में अद्वितीय योद्धा , राजनीतिज्ञ एवं कलाप्रेमी थे । इंद्रजीत सिंह अपने पिता जू की यश पताका बखूबी निभा रहे थे । उन्हें हिंदी के प्रथम आचार्य केशवदास का मार्गदर्शन के साथ मित्रता का सौभाग्य भी प्राप्त था । ओरछा का जीवन बड़ी ही शांति और सुख चैन से बीत रहा था । इंद्रजीत सिंह भी राजकाज में व्यस्त थे । परंतु होनी को तो कुछ और ही मंजूर था ।
रायप्रवीण का सौंदर्य और ओरछा की नियति (ओरछा गाथा भाग-4)
राय प्रवीण का महल , ओरछा 

शुक्रवार, 13 मई 2016

बेतवा की जुबानी : ओरछा की कहानी (भाग-2)

रामराजा मंदिर ओरछा का विहंगम दृश्य

पिछले भाग से अनवरत जारी ...
नमस्कार मित्रों
बहुत दिनों से माँ बेतवा के सानिध्य में नही गया था । मन तो कई बार किया लेकिन नौकरी की व्यस्तता ने पहुचने ही न दिया । खैर जब चांदनी रात में माँ बेतवा के पास पहुचा तो बेतवा की लहरें ग्रेनाईट की चट्टानों से धीरे धीरे टकरा कर रात की शांति को भंग कर रही थी । समय की तरह बेतवा की लहरें बिना रुके अनादि काल से अनवरत अपने सफर पर चले जा रही है । खैर माँ बेतवा ने बड़ी ख़ुशी से स्वागत किया । मैंने पूछा -माँ कहीं नाराज़ तो नही हो ?
वेत्रवती मुस्कुरातें हुए बोली - कोई माँ अपने बच्चों से नाराज़ हो सकती ?
वैसे भी अपनी ओरछा गाथा में प्रभु राम ओरछा आने वाले थे, लेकिन अच्छे कार्यों में बाधाएं तो आती रहती है , पुत्र चन्दन !
माँ बेतवा के मुख से अपना नाम सुनकर बड़ी ख़ुशी हुई । तो माँ गाथा शुरू करो न ! अब मन अधीर हो रहा है ।
पुत्र अभी तक तुमने सुना कि कैसे ओरछा में कृष्ण भक्त महाराज मधुकर शाह और उनकी रामभक्त महारानी गणेश कुंवर के संवाद के बाद महारानी अपने आराध्य राम को अयोध्या से ओरछा लाने निकल पड़ी थी। महारानी की कठिन तपस्या से प्रसन्न होकर भगवन राम बालरूप में प्रकट हुए ! भगवन राम ने महारानी से कहा - माँ मांगो वरदान ! हम आपकी भक्ति से प्रसन्न हुए !
गणेश कुंवर जू की आँखों से अनवरत ख़ुशी के आंसू बह रहे थे । बोली - प्रभु ! मैं आपको ओरछा ले जाने आई हूँ ।
आज भी रानी गणेश कुंवरि के कक्ष में राम दरबार का जीवंत चित्र है ।
राम - लेकिन माते ! अयोध्या तो मेरी जन्मभूमि है , मैं इसे कैसे छोड़ सकता हूँ ?
महारानी - प्रभु अगर आप ओरछा नही चलेंगे तो मुझे अपने प्राण त्यागने की अनुमति प्रदान करे ।
भगवान आखिरकार भक्त की जिद के आगे झुक ही गए । बोले - मैं ओरछा चलने तैयार हूँ , लेकिन मेरी कुछ शर्तें है ।
महारानी - प्रभु ! मुझे आपकी सारी शर्तें मंजूर है ।
राम - माँ , मेरी पहली शर्त ये है , कि ओरछा में राजा मैं होऊंगा ।
दूसरी शर्त - आप मुझे यहाँ से पैदल ही अपनी गोद में ओरछा लेकर चलेंगी ।
तीसरी शर्त - आप केवल पुष्य नक्षत्र में ही चलेंगी ।
चौथी शर्त - एक बार जहाँ रख देंगी मैं वहीँ स्थापित हो जाऊंगा ।
भगवन के अयोध्या से ओरछा जाने की बात सुनकर पुरे अयोध्या में हलचल मच गयी । सारे साधू-संत महारानी गणेश कुंवर को रोकने पहुँच गए । तब भगवान बोले - आप सभी अयोध्या वासी चिंतित न हो , मैं प्रतिदिन दिन में ओरछा में रहूँगा , लेकिन रात्रि शयन अपनी जन्मभूमि अयोध्या में ही करूँगा ।
प्रभु राजाराम के दो निवास है खास ।
दिवस ओरछा रहत है, रात अयोध्या वास ।
महारानी जी , तुरंत सन्देश वाहक से सन्देश महाराज मधुकर शाह के पास भिजवाया कि वो प्रभु राम को लेकर ओरछा आ रही है । प्रभु के लिए भव्य मंदिर का निर्माण करवाया जाये। महरानी जू अपनी गोद में राम लक्षमण की मूर्ति लेकर साधू संतो के जत्थे के साथ भजन कीर्तन करते हुए पुष्य नक्षत्र में ओरछा की और बढ़ने लगी...
बेतवा की लहरें तेजी से उछालने लगी । मनो स्वागतुर हो । मगर अच्छे कार्यो में बाधा तो आती ही रहती है....
कहकर माँ वेत्रवती भगवान के आगमन की ख़ुशी में मगन हो गयी । मैं ग्रेनाइट शिला पर सोच रहा ...कि कैसे प्रभु ओरछा पहुचे ? क्या मधुकर शाह भव्य मंदिर बनवा सके ? क्या महारानी जू प्रभु की सारी शर्तें पूरी कर सकी ? प्रतीक्षा करते है....बेतवा की लहरों की
माँ बेतवा की लहरों से फिर प्रसन्नचित ध्वनि प्रकट हुई  ...

महारानी साधू-सन्तों के साथ भजन-कीर्तन करते हुए पुष्य नक्षत्र में ओरछा की और बढ़ रही थी । बेतवा की लहरें प्रभु राम के ओरछा आगमन की कथा सुनाते हुए उल्लास से ऐसे उछल रही थी , मानो समुद्र में ज्वार आ गया हो । मैं ग्रेनाइट की चट्टानों पर बैठ कर बेतवा जल और राम रास दोनों में पुरी तरह भीग चूका हूँ । आशा है आप तक भी छीटें पहुचें होंगे । खैर माँ बेतवा ने कथा आगे बढ़ाते हुए बताया ... इधर पुरी ओरछा नगरी प्रभु राम के स्वागत के लिए उतावली हो रही थी । महाराज मधुकर शाह ने अपने राजप्रासाद के ठीक सामने बहुत ही भव्य चरमंजिला मंदिर का निर्माण प्रारम्भ करवा दिया था । मंदिर काफी ऊँची और पक्की नींव पर बनाया जा रहा था । विशेषज्ञ कारीगर और मजदुर दिन रात और खून पसीना एक किये हुए थे । महाराज ने मंदिर का ऊंचाई और संरचना इस प्रकार बनवाई थी , कि वे और महारानी अपने राजमहल की खिड़की से सोकर उठते ही प्रभु के दर्शन कर सके । ओरछा के लोग भी मंदिर की भव्यता देख कर अचंभित थे। आखिरकार ओरछा के इंतजार की घड़ियां समाप्त हुई और महारानी जू प्रभु राम को ओरछा लेकर आई । लेकिन मंदिर का थोडा सा कार्य शेष था, तो महाराज ने कहा - रानी जू ! एक दो दिन में मंदिर का निर्माण पूरा हो जायेगा । तब तक आप मंदिर के निकट वाले महल में ही प्रभु को भोग लगा दीजिये । महाराज की बात मानकर महारानी ने भी प्रभु को महल में भोग लगाया । मगर प्रभु की लीला कौन समझ सका है ! रानी जू तो प्रभु की एक शर्त भूल ही गयी । "एक बार जहाँ रख दिया मैं वही स्थापित हो जाऊंगा "
और प्रभु राम अपनी शर्त अनुसार वहीँ महल में ही स्थापित हो गए ।
माँ बेत्रवती से मैंने पूछा - आखिर क्यों भगवान ने अपनी ये लीला दिखाई ? क्यों भव्य मंदिर में नही गए ?
पुत्र ! प्रभु की हर लीला का कोई न कोई कारण होता है। वैसे ही इस लीला का भी का कारण है । पहली बात भगवान राम ओरछा में भगवान नही राजा बनकर आये तो क्या राजा कभी मंदिर में रहता है ? नही न ! राजा सदैव महलों में ही रहता है । दूसरा कारण राजा मधुकर शाह का घमंड भी तोडना था , कि प्रभु अयोध्या से ओरछा आये और वो दर्शन के लिए महल के शैय्या से भी नही उतारना चाहते थे !
बस इसी कारण से प्रभु राजा के बनवाये भव्य मंदिर में नही गए । जो प्रतिमा तब अपनी जगह से नही हिली थी, वो आज वर्ष में कई बार विशेष अवसरों पर जैसे - रामनवमी, श्रावण तीज़, रामजानकी विवाह, दीवाली और होली आदि पर्वो पर गर्भगृह से बाहर आती है ।
मैं जिज्ञासु भाव से माँ बेतवा को निहार रहा था । तो माँ ने कहा पूछो अपने मन का प्रश्न ?
मैंने हाथ जोड़कर पूछा - माते ! फिर उस भव्य मंदिर का क्या हुआ ?
भव्य चतुर्भुज मंदिर 
पुत्र ! वह भव्य मंदिर कई वर्षो तक वीरान और सूना डला रहा । बाद में उसमे भगवान विष्णु की प्रतिमा स्थापित की गयी और वो आज चतुर्भुज मंदिर के नाम से रामराजा मंदिर की निकट खड़ा है ।
माँ रामराजा मंदिर की ऐसी क्या विशेषता है , जो उसे अन्य राममंदिरों से विशेष बनाती है ?
पुत्र ! सिर्फ ओरछा के रामराजा मंदिर में ही -
राम राजा के रूप में विराजमान है । बाकि जगह भगवान के रूप में है ।
रामराजा को आज भी सुबह-शाम की आरती के समय सशस्त्र सलामी दी जाती है (मध्य प्रदेश सशस्त्र पुलिस बल द्वारा )
यही पर राम सिंहासन पर ढ़ाल-तलवार लिए बैठे है । बाकि जगह धनुषधारी है ।
यहीं पर राम बैठे अन्य मंदिरो में खड़े स्वरुप में है ।
यहां राम बैठे हुए एवं हनुमान जी खड़े है , अन्य जगह इसका विपरीत है ।
सामान्यतः किसी भी मंदिर में मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा होने के बाद मूर्ति अपने स्थान पर स्थिर होती है । यहां साल में कई बार मूर्ति गर्भगृह से बाहर आती है ।
मंदिर का समय भी सामान्य मंदिरों की तरह न होकर बल्कि एक राजा की दिनचर्या के अनुरूप है ।
मैं मंत्रमुग्ध होकर सुन रहा था,  कि बेतवा की लहरें शांत होने लगी । मैंने मायूस होकर पूछा - माँ क्या ओरछा की गाथा समाप्त हो गयी ?
जल कलरव से आवाज़ आई - नही पुत्र ! गाथा अब प्रारम्भ हुई है । अभी तो राय प्रवीण की अमर प्रणय कथा , वीरसिंह जूदेव का गौरव , हरदौल के लोकदेवता बनने की कहानी और भी बहुत कुछ बाकी है पुत्र ..बड़े दिनों बाद बेतवा के तट पर जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ ।  माँ बेत्रवती का वेग पहले से कम था । सूखे के इस मौसम में माँ भी बड़ी उदास सी लग रही थी । माँ तो आखिर माँ ही होती है । अपने बच्चों के दुःख से कैसे न दुखी होती । आखिर इस वर्ष पुरे बुन्देलखण्ड में लोग सूखे से त्रस्त है । कई जगह नदियों और जलस्रोतों पर पहरे लगाना पड़ रहा है । खैर बहुत दिनों बाद मिलने के कारण तो माँ नाराज नही हो सकती क्योंकि वो अपने बच्चों से नाराज नही हो सकती है । कुछ देर के इंतजार के बाद लहरों में हलचल शुरू हो गयी । मेरे शरीर में एक सिहरन सी दौड़ गयी । माँ वेत्रवती बोली - पुत्र तुम्हारी व्यस्तता समझ सकती है । मैं तुमसे नाराज़ नही हूँ ।
मैने माँ को प्रणाम किया और पूछा माँ क्या पहले भी इस तरह बुंदेलखंड के लोगो को भी इस तरह सूखे का सामना करना पड़ता था ?
माँ बोली - नही पुत्र , खजुराहो के अद्भुत मंदिरो के निर्माता चंदेल शासको द्वारा पुरे क्षेत्र में सातवी-आठवीं सदी में ही जगह बहुत बड़े और सुन्दर तालाब खुदवायें । आज भी उनके अवशेष है, कई जगह आज भी लोग उन्ही पर निर्भर है । लेकिन आज का मनुष्य अपने स्वार्थ के कारण अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मारने लगा है । जमीन का पानी तो चूस रहा है, लेकिन ज़मीन में पानी तो पहुँच ही नही रहा है । जो पानी के पुराने स्रोत जैसे तालाब और  कुंऐं या अतिक्रमित कर कॉलोनियां बना दी गयी या कचरेदान बना दिए गए है । माँ की बात सुनकर मैं निशब्द हो गया । सच में हमने प्रकृति का दम घोंट दिया । कुछ देर वातावरण में शांति छाई रही ।
फिर माँ बोली बेटा चलो अपनी ओरछा गाथा शुरू करते है ....
अभी तक हम ने ओरछा में महराज मधुकर शाह और महरानी गणेश कुँवर के माध्यम से रामराजा का आगमन सुना था । अब आगे सुनेंगे ओरछा की जन नायिका राय प्रवीण की कथा जिसके आगे मुग़ल बादशाह अकबर को भी झुकना पड़ा।
क्रमशः अगले भाग में जारी
रायप्रवीण : जिसके आगे अकबर को भी झुकना पड़ा ( ओरछा गाथा भाग - 3 )
वर्तमान रामराजा मंदिर में प्रतिष्ठित रामराजा सरकार

मंगलवार, 10 मई 2016

बेतवा की जुबानी : ओरछा की कहानी (भाग-1)

एक रात को मैं मध्य प्रदेश की गंगा कही जाने वाली पावन नदी बेतवा के तट पर ग्रेनाइट की चट्टानों पर बैठा हुआ. बेतवा की लहरों के एक तरफ महान बुंदेला शासको की छतरियां बनी हुई है, तो दूसरी तरफ ओरछा अभयारण्य जो कभी तुंगा मुनि की तपोभूमि रहा है. धवल चांदनी में बेतवा की लहरें हिलोर मार रही है .. तभी कलकल के कलरव के बीच कहीं से एक मधुर आवाज आती है...
हे पथिक...
क्या तुम मेरी आवाज सुन रहे हो ?
 हैरान होकर अपने आस पास देखा तो वहां मेरे अलावा कोई भी नही था. मैं आश्चर्य मिश्रित भय के साथ आने वाली आवाज के स्रोत को खोज रहा था. कभी फिर से आवाज ने मेरा ध्यान खींचा...
हे पथिक....
तुम्हे डरने की आवश्यकता नही है..
मैं हूँ....बेत्रवती !
जिसे तुम लोग अब बेतवा कहते हो .
मैंने ध्यान दिया तो आवाज बेतवा की लहरों से ही आ रही थी .....
मैने श्रद्धा वश हाथ जोड़ लिये
बेतवा की आवाज !
सुनकर तो मेरे रोंगटे ही खड़े हो गये . विश्वास ही नही हो रहा है, कि मैं जाग रहा हूँ , या सपना देख रहा हूँ. मुँह से आवाज ही नही निकल पा रही...तभी बेतवा की एक लहर तेजी से ग्रेनाइट की चट्टान से टकराई. पानी के छींटे मेरे ऊपर आये...मेरी तंद्रा टूटी ! हां मैं यथार्थ में ही बेतवा की आवाज सुन रहा हूँ , कोई स्वप्न नही देख रहा हूँ . मैने हाथ जोड़े ही माँ बेतवा से कहा - माता आपने मुझे ही वार्तालाप के लिए क्यों चुना ?
बेतवा- पुत्र मैं तो सदियों से अपनी आवाज सुनाने के लिए बसुधा पर प्रवाहित हो रही है, मगर मानव अपनी कथित प्रगति के शोरगुल में कहां प्रकृति या हम जैसी नदियों की आवाज सुन रहा है. आज तुम्हे अपने आंचल में बैठा देखा तो सोचा शायद तुम सुन पाओ .
मैं - माते मैं स्वयं को सौभाग्यशाली समझता हूँ , कि म० प्र० की गंगा स्वयं संवाद कर रही है.
बेतवा - पुत्र मैं बहन गंगा से बहुत ज्येष्ठ हूँ...वो तो धरा पर लाई गयी..जबकि मैं तो सदा से हूँ.
मैं - माँ जब आप सनातन काल से प्रवाहित हो तो क्या इस शहर की गाथा सुनाओगी ? तुमने तो इस नगर का जन्म, उत्थान, पतन सब देखा होगा.
धीरे-धीरे जैसे अंधेरा बढ़ रहा है, आकाश में चंद्रमा का तेज चरम की ओर जा रहा है, धवल चांदनी में बेतवा के जल में चंद्रमा का प्रतिबिंब भी हिलोरे ले रहा था. मानो बेतवा उसे अपने आंचल में बिठाकर झूला झुला रही हो ! कुछ देर की खामोशी के बाद ..बेतवा की सुमधुर आवाज फिर शुरू हुई ...
तुम इस नगर की कहानी पूछ रहे हो , मैने तो इस सृष्टि का भी उत्थान देखा है.मेरे उद्गम कुमरागांव (रायसेन जिला, म०प्र०) से प्रवाहित होकर यमुना से मिलने तक(हमीरपुर, उ०प्र०) सांची, विदिशा, ओरछा आदि का भूत, वर्तंमान देखा है.
बेतवा की लहरें कुछ शांत हुई , मानो ध्यान मग्न होकर अपने अतीत को याद कर रही हो . चंद्रमा भी आंचल के झूले से उतरकर एक तरफ चुपचाप सा बैठा गया. जैसे कोई शिशु माँ के स्तनपान के बाद सीने से लगकर ही सो गया हो. मैं भी आगे की गाथा सुनने को उत्सुक ग्रेनाइट की चट्टानों पर बैठा चारो तरफ आंखे फाड़कर देख रहा हूँ, न जाने कब मां बेत्रवती अपने अतीत के समुद्र में गोता लगाकर वापिस आ जाये. तभी लहरों में हलचल प्रारंभ हुई ...मेरी आंखे खुशी से चमक उठी ...
मैने पूछा- मां क्यों चुप हो गयी थी ?
बेतवा- पुत्र तुम्हारे प्रश्न ने मुझे अतीत की यादों में लौटने को विवश कर दिया. अशोक और कारूवाकी का मेरे तट पर प्रेम पनपने से लेकर पुष्यमित्र शुंग की विजय गाथा, हेलियोडोरस का भागवत धर्म अपनाना, गुप्त शासकों का स्वर्ण काल, ओरछा में बुंदेलाओं का उत्थान-पतन, रामराजा का आगमन, केशव का काव्य, रायप्रवीण की प्रेमगाथा, लक्ष्मीबाई की वीरता , चंद्रशेखर आजाद का अज्ञातवास तक सब स्मरण है. सृष्टिकर्ता ने मुझे कितने गौरव के क्षण प्रदान किये ...आभार परमपिता !
ये बोल कर परम पावन बेत्रवती फिर अपनी यादों में खो गई !
मैने हाथ जोड़कर बेतवा की तंद्रा तोड़ते हुये निवेदन किया . माते ! इस अबोध बालक की धृष्टता को क्षमा करते हुये मुझे ओरछा की गाथा सुनाइये ना .
बेतवा की हिलोरें तेज होने लगी ....लगा चक्रवात बनने लगे .....मुझे लगा मेरी गलती का दंड मिलने वाला है !
लेकिन
कुछ देर बाद लहरें शांत हो गयी . बेतवा बोली -पुत्र ...आज सुनती हूँ ..इस पावन पुण्य भूमि ओरछा की कहानी ......एक लहर तेजी से मेरे ऊपर से बिना भिगोये गुजर गयी, जैसे माँ ने अपना ममतामयी हाथ मेरे सर पर फेरा हो.
इस पुण्य भूमि की कहानी महाभारत काल से प्रारंभ होती है, जिसका वर्णन महाभारत में भी है .उस काल में किसी कारण वश वेदों का ज्ञान नष्ट हो गया था ,तो ब्रम्हा, बिष्णु और महेश ने मेरे ही तट पर मेधावी यज्ञ का आयोजन कर पुन: वेदों का प्राकट्य किया.
मेरा पावन तट मुनियों की तपोभूमि रही है. आज भी ओरछा में मेरा दक्षिण तट तुंगारण्य कहलाता है, वो तुंग मुनि की तपोभूमि रही है . तुंग मुनि के आशीर्वाद से ही बुंदेलाओं ने ओरछा बसाकर अपनी राजधानी बनाई....
धीरे-धीरे चंद्रमा की आभा कम होने लगी , वो छतरियों के पीछे छुपने लगा ...इधर पूर्व दिशा में भगवान भास्कर उदित होने वाले है...माँ बेतवा ओरछा की स्थापना की कहानी कल सुनाने का वादा कर अपनी लहरों में खो गई. मुझे अचेतन छोड़ !
ओरछा की गाथा की जिज्ञासा मुझे फिर बेतवा के किनारे ले आया . सूर्य बुंदेला शासको की छतरियों की पीछे अस्त हो गया . मैं पास ही ग्रेनाइट की चट्टानों पर बैठकर इंतजार करने लगा. बेतवा लहरें अपनी मस्ती में ही बहती हुई चट्टानों पर उछल-कूद कर रही है. मैं भी उन्हे निहार रहा था, तभी लहरों में से मां बेतवा की आवाज आई - स्वागत है , प्रिय पुत्र ! कहो आज क्या सुनना चाहते हो ?
मैं हाथ जोड़े बोला- माँ , आज मुझे इस बुंदेलाओं की गौरव नगरी ओरछा की गाथा प्रारंभ से सुनाओ न !
बेतवा की लहरें शांत हो गयी, जैसे समाधि में लीन हो गयी हो. कुछ देर के बाद आवाज आयी, पुत्र ओरछा की गाथा की शुरूआत के लिए हमे काशी चलना होगा .
पर माँ आप काशी कैसे जायेगी ? मैने पूछा
लहरों के ऊफान के साथ बेतवा मुस्कुराई ! बत्स मेरा संगम सूर्यपुत्री यमुना से हुआ है, और यमुना का संगम गंगा से हुआ ...और गंगा काशी में है , तो फिर मेरा अस्तित्व काशी में हुआ कि नही ?
बिलकुल ! मैं अपनी नासमझी पर शर्मिंदा होते हुये बोला.
तो बात शुरू होती है, 14 वी सदी के काशी से....काशी के राजा ग्रहरवार थे. राजा ग्रहरवार की दो रानियां थी, पहली से चार पुत्र और दूसरी से एक पुत्र जिसका नाम पंचम था. जब सत्ता प्राप्ति के लिए भाइयों में संघर्ष प्रारंभ हुआ तो पंचम ने स्वयं को इस संघर्ष से दूर कर लिया. पंचम बिंध्यवासिनी देवी का बहुत बड़ा भक्त था. वह प्रतिदिन देवी को अपने रक्त की बूंदों से तिलक करता था. पंचम की पूजा से देवी प्रसन्न हुई .
पंचम की रक्त बूंद पूजा से देवी प्रसन्न हुई और पंचम (जिसका मूल नाम हेमकरण है) को साम्राज्य निर्माता होने का वरदान दिया. चूंकि बिंध्यवासिनी की पूजा पांच रक्त की बूंदों से की गयी , तो हेमकरण पंचम बिंध्येला/बुंदेला कहलाये. देवी ने पंचम को बताया कि एक विशेष वृक्ष पर गिद्ध बैठा होगा , वही पर तुम अपने साम्राज्य की नींव डालना. हेमकरण देवी की आज्ञानुसार अपने कुछ विश्वस्त साथियों के साथ बिंध्यांचल की पहाड़ियों में खोजते-जोहते जेजाकभुक्ति क्षेत्र पहुँचा , यहां पर खंगार क्षत्रिय शासक राज कर रहे थे, उनकी राजधानी कुण्डार थी . कुण्डार का अभेद्य किला जो अब तक अपराजेय था, उसके पास ही वह विशेष वृक्ष जिस पर गिद्ध बैठा था, पंचम बुंदेला को नजर आया. पंचम ने आँख बंद कर देवी को स्मरण किया , देवी भी अपने भक्त की पुकार सुनकर गिद्ध पर सवार होकर पंचम की सहायता के लिए आ पहुँची. पंचम ने देवी का आशीर्वाद पाकर अपराजेय गढ़कुण्डार पर आक्रमण कर दिया. अचानक हुये हमले से खंगार शासक को संभलने का मौका ही नही मिला और अपराजेय गढ़कुण्डार पर विजय पंचम का राजतिलक कर रही थी. चूंकि देवी ने गिद्ध पर सवार होकर पंचम बुंदेला की सहायता की तो पंचम ने सर्वप्रथम देवी गिद्धवाहिनी का मंदिर निर्माण करवाया जो आज भी है. अब पंचम बुंदेला खंगारो के राज्य का शासक था, जिसे बुंदेलखंड नाम दिया गया. पंचम के बाद उनके वंशजों ने न केवल गढ़कुण्डार को सुदृढ़ किया बल्कि बुंदेलखंड के क्षेत्र का भी विस्तार किया. पंचम के वंशज रूद्रदेव ने अपने बढ़े हुये राज्य के हिसाब से नई राजधानी की जरूरत महसूस की. बुंदेलाओं का सौभाग्य था, कि उनके उदय के समय चंदेल साम्राज्य अपनी अंतिम सांसे गिन रहा था. पूरे क्षेत्र में कोई ताकतवर प्रतिद्वंदी नही था. हालांकि पश्चिम भारत में मुस्लिमों के आक्रमण शुरू हो चुके थे. पृथ्वीराज चौहान राजपूताना में गौरी के हाथों पराजित हो चुके थे ।
बेतवा की तरंगे आज कुछ ज्यादा ही हिलोरे मार रही है. मैने जब इसका कारण मां बेतवा से जानना चाहा तो बेतवा की एक लहर उछलकर मेरे ऊपर से गुजरी मेरे बालों को गीला करते हुये ..जैसे कोई मां अपने बच्चे के सर पर प्यार से हाथ फेर रही हो . मां का यह स्नेह मुझे हृदय तक भिगो गया. तब मां बेतवा ने बताया - पुत्र ! आज बुंदेला साम्राज्य की गाथा बहुत ही अहम् मोड़ लेने वाली है . आज बुंदेला वीर मेरे तट पर आने वाले है, यही याद कर प्रफुल्लित हो रही हूँ.
ये सुनकर मेरी उत्सुकता बढ़ने लगी . माँ जल्द ही बताओं न ! आगे क्या हुआ ?
बत्स ! जरा धैर्य धारण करो ! सब सुनाती हूँ . जरा मुझे भी तो उस क्षण को याद कर आनंद ले लेने दो. और बेतवा की लहरें ज्वार की भांति ऊंची उठकर शांत हो गयी. मैं ग्रेनाइट की चट्टानों पर बैठा प्रतिक्षारत बेतवा की लहरें पर चंद्रमा के प्रतिबिंब को झूला झूलते देखने लगा.
आत्म आनंद के बाद बेतवा की आवाज फिर से आई . रूद्रदेव अपनी राजधानी गढ़कुंडार से शिकार खेलने मेरे और जामनी के संगम से लगे तुंगारण्य क्षेत्र की ओर बढ़े . मेरे दक्षिण तट पर तुंग मुनि का आश्रम व तपोवन था, जिस कारण इस क्षेत्र को तुंगारण्य कहते है. पूरा क्षेत्र प्रकृति की गोद में बसा हुआ था, जिसे प्रकृति ने अपने दोनो हाथों से संवारा था. रूद्रदेव को यहां की प्राकृतिक सुंदरता ने मोह लिया. राजा रूद्रदेव ने तुंग मुनि से आज्ञा प्राप्त कर मेरे उत्तरी तट के घने वन में शिकार के लिए अपने दल-बल को आगे बढ़ाया. राजा का शिविर की व्यवस्था की गई . तभी रूद्र को एक शिकार नजर आया...उसने अपने शिकारी कुत्तों को आदेश दिया. ...ओरछा (मतलब उछलो) शिकार जिस दिशा में भागा वहां की सुंदरता रूद्र देखता ही रह गया ! रूद्र अपने प्रधानमंत्री से बोला - प्रधानमंत्री जू ! मेरे विचार से यह जगह राजधानी हेतु उत्तम रहेगी . आपका क्या विचार है ?
प्रधानमंत्री- महाराज ! आपका विचार अतिउत्तम है , यह जगह एक ओर बेतवा व जामनी की वजह से तो दूसरी ओर ऊंची पहाड़ियों की वजह से सुरक्षित भी है, और प्रकृति ने भी इस पर पूरा दुलार किया है . राजधानी के लिए इससे उत्तम स्थान आसपास कहीं नही है .
रूद्रदेव - लेकिन हम अपनी नई राजधानी का नाम क्या रखेंगे ?
प्रधानमंत्री - महाराज जू ! इस जगह के देखने के पूर्व आपके मुँह से " ओरछा " शब्द निकला था, तो क्यों न इसका नाम ओरछा ही ऱखे ?
रूद्रदेव - बहुत बढिया ! प्रधानमंत्री जू . आगे की तैयारी करें .....
और इस तरह मेरे तट पर बुंदेलाओं की नयी राजधानी ' ओरछा ' का निर्माण जोर शोर से शुरू हो गया .....
ओरछा का राजमहल 
यह कहकर बेतवा शांत हो गयी....
फिर कुछ समय पश्चात् ...
माँ बेतवा आनंदित होकर ओरछा की निर्माण गाथा सुना रही थी , उनकी लहरें प्रसन्नता के मारे हिलोर मार रही थी, ऊपर आकाश में चंद्रमा भी गाथा सुनने मेघ-झरोखे से झांक रहा था ! राजा रूद्रदेव ने सन 1531 में ओरछा किले की नींव रखी जिसे हजारों मजदूरों और सैकड़ो मिस्त्रियों ने दिन-रात मेहनत कर सन 1539 में किले सहित ओरछा का सुंदर व भव्य नगर तैयार किया. कहकर माँ बेतवा चुप हो गई ....लहरों का प्रवाह शांत ही रहा..बेतवा की ध्वनि कुछ पल बाद प्रकट हुई...बत्स ...रूद्रदेव के बाद उसका पुत्र भारतीचंद्र राजा हुआ, जिसने ओरछा को और सजाया संवारा. मगर ओरछा को गौरवमयी क्षण तो भारतीचंद्र के पुत्र मधुकर शाह के राज्यकाल में मिलने वाला था. मधुकर शाह सन 1554 ई० में ओरछा की राजगद्दी पर बैठे. मधुकर शाह कृष्ण भक्त थे, सखी संप्रदाय को मानने के कारण स्त्रियों की भेषभूषा में कृष्ण की भक्ति करते , नाच-गान करते थे. प्रतिवर्ष ब्रज की यात्रा करते थे. मैने पूछा - क्षमा कीजिए माँ , ये सखी संप्रदाय क्या है ?
माँ बेत्रवती मुस्कुराते हुये बोली- पुत्र बहुत से साधु कृष्ण को सखा और स्वयं को उनकी सखी मानकर उनकी भक्ति करते है . आराधना के समय स्त्रियों जैसे वस्त्र आभूषण पहनकर कृृष्ण की प्रतिमा के सामने नाचते गाते है . भले ही मधुकर के आराध्य कृष्ण थे , परंतु ओरछा की नियति में तो राम लिखे थे ! आखिर कैसे मधुकर शाह के जीवन में गणेश कुंवरि ने राम का प्रवेश हुआ ? कैसे अयोध्या के रामलला ओरछा में रामराजा हो गये ? क्यों मधुकर शाह का बनाया भव्य चतुर्भुज मंदिर सूना रह गया ? ये प्रश्न अनुत्तरित छोड़ बेतवा अपने मगन हो मुझे ग्रेनाइट की शिलाओं पर छोड़ गयी...
अगले दिन -
बेतवा की लहरें मध्यम गति से प्रवाहित हो रही है...मैं ओरछा की कहानी सुनने की जिज्ञासा लिए ग्रेनाइट की चट्टानों पर बैठा बेतवा के उत्तरी तट पर बनी बुंदेला शासको की छतरियों( समाधियों) में से मधुकर शाह की भव्य छतरी को निहार रहा हूँ...मधुकर शाह हुमांयु व अकबर के काल में भी मुगल हमलों से न केवल वीरता से लड़े बल्कि मुगल सेनाओं को नाको चने चबवायें. बढते मुगल साम्राज्य के बीचो बीच बुंदेला पताका लहरा रही थी . मैंने मन ही मन इस महान बुंदेला को नमन किया. तभी बेतवा की लहरों में हलचल शुरू हुई....मां बेतवा की उल्लासित आवाज़ ने मेरी तंद्रा भंग की. बत्स आगे की कहानी सुनो...मधुकर शाह जहां बहुत बड़े कृष्ण भक्त थे, वहीं उनकी पहली रानी गणेश कुंवरि महान रामभक्त थी. महाराज हर बर्ष की तरह ब्रज यात्रा करने वाले थे, तो उन्होने गणेश कुंवरि को भी साथ लेने का निश्चय किया. जब महाराज ने महारानी से जब ब्रजयात्रा की बात कही तो महारानी जू ने ब्रज की जगह अवध जाने की बात कही. महारानी की बात सुनकर महाराज क्रोधित हो गये , बोले- ठीक है, महारानी जू , अगर आप इतनी बड़ी रामभक्त हो , तो अवध से तभी लौटना जब अपने राम को ओरछा लेके आओ. महारानी गणेश कुंवरि भी क्षत्राणी थी, उन्होने भी संकल्प लिया कि वो ओरछा तभी लौटेंगी जब अपने आराध्य राम को लेकर ही आयेंगी अन्यथा प्राण त्याग देंगी. इधर महाराज मधुकरशाह ब्रज की यात्रा के लिए निकले और उधर महारानी गणेश कुंवरि अवध की यात्रा पर . अवध पहुँचकर महारानी जू ने सरयू तट पर अपने आराध्य श्री राम को पाने के लिए तपस्या शुरू कर दी ...जब प्रभु प्रसन्न नही हुये तो अन्न जल त्यागकर तपस्या शुरू कर दी ....शरीर बिलकुल सूख गया...बस प्राण किसी तरह प्रभु की आस में अटके थे, तब भी प्रभु प्रसन्न नही हुये तो रानी जू ने सरयू में छलांग लगा दी .......बेतवा की लहरें ववंडर की भांति तेजी से घूमने लगी.. मेरा मन भी आशंकित हुआ ...मगर बेतवा मेरे मन में कई प्रश्न छोड़कर चली गयी ..क्या गणेश कुंवरि ने प्राण त्याग दिये ? क्या प्रभु राम कलियुग में भी प्रकट हुये ? क्या राम ओरछा आ पाये ? क्या मधुकरशाह का मन पिघला ?
क्रमशः अगले भागों में भी जारी.....
बेतवा की जुबानी : ओरछा की कहानी (भाग-2)

सोमवार, 9 मई 2016

थरथराता प्लेटफॉर्म और आधी रात को लुटे-पिटे हम !


मित्रों कई बार घुमक्कडी के दौरान कई ऐसी घटनाएं हो जाती है , कि जीवन भर याद रह जाती है । ऐसी एक घटना आज आप से साझा कर रहा हूँ ।
 पांच साल पुरानी है , अप्रैल 2011 की तब भी बंगाल में विधानसभा चुनाव हो रहे थे ।
बिहार लोकसेवा आयोग की प्रारंभिक परीक्षा का परीक्षा केंद्र मुझे किशनगंज मिला । किशनगंज बिहार का एक पिछड़ा मुस्लिम बहुल इलाका है । जो चिकन नेक यानि बांग्लादेशी सीमा के नजदीक है । मैंने इस जगह का नाम सिर्फ शाहनवाज़ हुसैन के लोकसभा क्षेत्र के तौर पर सुना था ।
अकेले जाने की इच्छा नही हो रही थी । तो पटना में रह रहे मेरे मंझले भाई निकेश को तैयार करने को सोचा । मगर वो किशनगंज जाने को तैयार हो कैसे ? आखिर कोई घूमने वाली जगह तो है नही !
खैर दिमाग लगाकर उसे किशनगंज के नजदीक प्रसिद्द हिल स्टेशन दार्जलिंग घुमाने का लालच दिया। तो उसने अपने एक दोस्त आकाश अग्रवाल को भी तैयार कर लिया ।
खैर दार्जलिंग की बात घर में किसी को नही बताया ।खैर जैसे तैसे हम लोग शाम को किशनगंज पहुँच ही गए । मैंने कल्पना की थी , कि जिला मुख्यालय है तो ठीक ठाक शहर होगा । मगर मेरी कल्पना गाड़ी के स्टेशन पर पहुचते ही धराशायी हो गयी । पूरा स्टेशन परीक्षार्थियों से भरा पड़ा था । जहाँ नजरें घुमाओं वही नवयुवा समूह किताब - नोट्स लिए ठसे पड़े थे । खैर ट्रेन से उतरने में ज्यादा मशक्कत नही करनी पड़ी । बस अपने बैग उठा कर सीट से खड़े हुए । लोगों के रेले ने ठेल कर प्लेटफॉर्म पर पहुँचा दिया । उतारकर उन दोनों को खोजा।
अब पटना से ट्रेन पकड़कर कटिहार पहुँचे । वहां ट्रेन बदलनी थी । तो एक पैसेंजर ट्रेन मिली ठसाठस भरी हुई । हम 3 लोग दो बोगी में बैठे । केले के खेतों के नज़ारे खिड़की से दिखाई दे रहे थे । ट्रेन में परीक्षार्थी ही ज्यादा बैठे । वो भी बेटिकट । मैथिलि भाषी युवाओं के हुजूम की बातें सर के ऊपर से जा रही थी ।।

खैर ट्रेन किशनगंज पहुँच ही गयी ।
अब सबसे पहले सोचा कि पहले रात गुजारने की व्यवस्था कर ली जाये , फिर आगे सुध ली जाये । जैसा कि पहले बताया कि किशनगंज बहुत बड़ा शहर नही था । स्टेशन के बाहर निकला लेकिन मुसीबतें आना तो अब शुरू होना था । स्टेशन के आसपास के इक्का दुक्का लॉज नुमा होटल होउसफुल थे । यहां तक कि उनकी छत भी गद्दे लगाकर 50-50 रु0 में फूल हो चुकी थी ।खैर कुछ लोकल्स की बात मानकर मुख्य बाजार की तरफ गए । पूरा शहर (जितना भी था) छान मारा मगर कहीं रुकने का ठिकाना नही मिला । रात गहरी हो चुकी थी । भूख भी चरम पर पहुँच रही थी । फिर वापिस स्टेशन लौटे । खाने की दुकानों पर खाने के भाव बढ़ चुके थे । और खाने में भी बस दाल-चावल-चोखा ही था । बहुत थक चुके थे । इसलिए उसी के लिए तैयार हुए । पर हाय री किस्मत ... हमारे पहुँचने पर वो भी खल्लास !
जैसे तैसे नींद आई । तभी स्टेशन पर कोई ट्रेन आई । ट्रेन के आने से ही पूरा प्लेटफॉर्म थरथराने लगा । मेरी नींद खुल गयी । अब ट्रेन के जाने का इंतजार करने के अलावा कोई विकल्प नही था । चाय- मूंगफली वाले जोर जोर से चिल्ला रहे थे ।
कपडे उतारकर बरमूडा-टी शर्ट पहनी और नीचे चादर बिछाई ।बैग को तकिया बनाया और चादर के नीचे ही जूते छुपाये । मेरे भाई और उसके दोस्त को नींद नही आ रही थी । आती भी कैसे जो मच्छरों की फौज अपनी मौज में तल्लीनता से लगी थी । खैर मुझे सुबह पेपर देना था , तो मैं लेट गया गमछा ओढ़कर ।
अब मरता क्या न करता ।जो मिला उसी से काम चलाया । बिस्किट और नमकीन ।
और रात गुजरने के लिए रेलवे स्टेशन पहुचे । परीक्षार्थियों के बिछोने पुरे प्लेटफार्म पर बिछ चुके थे । अब सुबह से पेपर था तो सोना अनिवार्य था । जैसे तैसे कुछ जगह बनायीं । अप्रैल की गरमी थी ।
खैर कुछ देर में ट्रेन अपना कारवां लेकर चली गयी । धीरे धीरे माहोल पुराने रंग में आया । लेकिन मेरे तो पैरों तले से जमीन ही खिसक गयी .....
मैंने अपने आसपास देखा तो भाई और उसका दोस्त गायब ..और इतना ही नही बैग और जूते भी गायब !!
मेरा तो दिमाग ही सुन्न सा हो गया । आखिर कुछ समझ ही नही आ रहा था । मैं सिर्फ बरमूडा-टी शर्ट पर लुटा-पिटा सा हैरान चारो तरफ दोनों को और सामान को खोज रहा .....
न पास में मोबाइल
न जेब में पर्स या पैसे
न बदन पर पुरे कपडे ..
पुरा प्लेटफॉर्म खचाखच भरा हुआ । अब क्या करूँ ?
कहीं खोजने भी नही जा सकता क्योंकि हो सकता वो दोनों आसपास ही हो । और जब मुझे वहां न देखे तो परेशान हो सकते है । है तो बच्चे ही । अब मेरे पास उसी जगह पर  इंतजार करने के अलावा कोई विकल्प नही था ।संजय जी डर खुद के लिए नही उन दोनों के लिए चिंता थी

आँखों से नींद गायब हो गयी । अब चुपचाप चारो तरफ आँखे फाड़कर उन दोनों को खोज रहा था । सुबह के चार बज गए । लोग जागने लगे थे । लेकिन उन दोनों का कहीं पता ही नही । खैर जैसे तैसे प्लेटफॉर्म का एक चक्कर लगा कर आया , तो देखा दोनों मजे से वेटिंग रूम में चार्जिंग पिन में चार्जर लगाकर मोबाइल चार्ज कर रहे थे । अब मेरा गुस्सा फट पड़ा ।
 दोनों ने कहा कि नींद नही आने के कारण वो यहां मोबाइल चार्ज करने आ गए । बैग और जूते इसलिए उठा लाये ताकि मेरी नींद का फायदा उठाकर चुरा न ले । मुझे इसलिए नही बताया कि मेरी नींद ख़राब न हो । खैर नींद तो ख़राब तो हो ही गयी थी । सुबह पेपर दिया । और अपने वादे के मुताबिक निकल पड़े दार्जलिंग के लिए ।मगर...
और चल पड़े सिलीगुड़ी की  और
उस समय बंगाल में विधान सभा चुनाव होने के कारण बस बंद । बस स्टैंड पर कई घंटे गुजरने के बाद एक ठसाठस भरी बस आई । नीचे जगह न होने के कारण बस की छत पर बैठे (पहली बार )

आगे का सफ़र भी सुहाना नही रहा । चुनाव के कारण वाहन आसानी से नही मिल रहे थे । खैर जब दार्जलिंग में टाइगर हिल से कंचन जंघा को देखा तो सब कष्ट भूल गया ।


गुरुवार, 14 जनवरी 2016

आखिर भीमकुण्ड में ऐसा क्या रहस्य है ?

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जटाशंकर से दर्शन करने के बाद मैं और योगेन्द्र फिर अपनी बाइक से वापिस विजावर की ओर  आये।  बिजावर  दूसरी दिशा में भीमकुण्ड के लिए सड़क गयी है। सड़क की हालत देखकर लगता नही कि किसी दर्शनीय स्थल का रास्ता है।  कई जगह सड़क विलुप्त हो गयी।  कई बार  लगा कहीं गलत रास्ता तो नही पकड़ लिया है।  इसलिए कई जगह पूछ पूछ कर आगे बढ़ रहे थे।  रास्ता सुनसान और जंगली था।  खैर जब ओखली में सर डाल ही लिया तो मूसल से क्या डरना ! आखिर भीमकुण्ड में ऐसा क्या रहस्य है ? कि आखिर डिस्कवरी चैनल वाले भी चले आये लेकिन ये रहस्य उनसे भी नही उजागर हो पाया !
भीमकुण्ड की जानकारी पुराणों में भी मिलती है।  ऐसी जनश्रुति है, कि अपने अज्ञातवास के समय जब पाण्डव जेजाकभुक्ति ( वर्तमान बुन्देलखण्ड ) के जंगलों में छिपते-छिपाते घूम रहे थे , तो उसी समय द्रोपदी को बड़ी जोर से प्यास लगी।  लेकिन आसपास कही भी पानी का कोई स्रोत न मिला।  तब महाबली भीम ने एक पहाड़ पर अपनी गदा से जोर से प्रहार किया तो धरती फट गयी और सीधे पाताल से पानी की धार लग गयी।  जो आज भीमकुण्ड के रूप में विद्यमान है।  इस कुण्ड की सबसे बड़ी विशेषता यह है , कि पूरे विश्व में कहीं भी भूकम्प या सुनामी आती है , तो उससे पूर्व भीमकुण्ड की लहरें तेजी से कई मीटर ऊपर उछलने लगती है।  मैंने स्वयं कई बार अख़बार में ये खबर पढ़ी की  " भीमकुण्ड में लहरें ऊँची उठी " और दूसरे दिन उसी अख़बार में कही न कही भूकम्प या  सुनामी पढ़ी है ! स्थानीय लोग इसका कारण भीमकुण्ड का पाताल से जुड़ना बताते है।  चूँकि भूकम्प या सुनामी भूगर्भीय हलचलों के कारण आते है , तो इन बातों पर विश्वास करना पड़ता है।
भीमकुण्ड की सत्यता पता करने के लिए एक बार डिस्कवरी चैनल की टीम भी आ चुकी है।  उनकी टीम ने कुण्ड की गहराई पता करने का बहुत प्रयास किया , मगर एक सीमा के बाद वे भी असफल रहे।  भीमकुण्ड का पानी बिलकुल नीला और बहुत स्वच्छ है।  बताते है , कि भीमकुण्ड के जल में नहाने से चर्म रोगों से मुक्ति मिलती है।  सूर्य अस्तांचल की ओर बढ़ चला था।  हम लोगो  भी अब ज्यादा देर रुकना उचित नही समझा , क्योंकि वापिस टीकमगढ़ भी लौटना था।  फोटो बहुत ज्यादा नही ले पाये , क्योंकि एक मोबाइल कैमरे का प्रयोग कर रहे थे और रौशनी कम होने लगी थी।  चलिए अगली पोस्ट जल्दी लिखने  वादे के साथ फिर मिलते है।  

भीमकुण्ड का प्रवेश द्वार। ..और स्थानीय बच्चे 

भीमकुण्ड में नहाते हुए लोग ( फोटो नेट से साभार )

नीला स्वच्छ जल.... 

ऊपर से दिखता भीमकुण्ड का विशाल छिद्र 

भीमकुण्ड परिसर में बने विद्यालय का नरसिंह मंदिर 

भीमकुण्ड के बाद। ..मिलते है , नयी पोस्ट पर 

orchha gatha

बेतवा की जुबानी : ओरछा की कहानी (भाग-1)

एक रात को मैं मध्य प्रदेश की गंगा कही जाने वाली पावन नदी बेतवा के तट पर ग्रेनाइट की चट्टानों पर बैठा हुआ. बेतवा की लहरों के एक तरफ महान ब...