शुक्रवार, 17 अप्रैल 2020

मेरी पहली हवाई यात्रा जो अविस्मरणीय बन गयी ।

                    हम आम भारतीयों के लिए हवाई यात्रा एक सपना ही होता है ।  मेरा भी बचपन से ही हवाई यात्रा का सपना रहा । बेरोजगारी के आलम में तो सपना ही रहा । नौकरी के बाद एकाध बार मध्य प्रदेश शासन के हेलीकॉप्टर में बैठने का सुख प्राप्त हुआ । फिर विवाह पश्चात एक बार वैष्णो देवी के दर्शनार्थ कटरा से सांझी छत तक हेलीकॉप्टर से गये । हिमालय की धवल श्रेणियों के भव्य दर्शन हुए । जुलाई 2018 में दिल्ली से अमरनाथ और लेह की यात्रा का सौभाग्य मिला , मगर 100 सीसी बाइक से । देश में सस्ती हवाई सेवा शुरू होने के बाद भी कभी अवसर नही मिल पा रहा था । सितम्बर 2019 ओरछा से स्थानांतरण पन्ना हो गया । अभी परिवार साथ नही लाया था । अकेले रहने का सुख या दुख जो समझ लीजिए भोग रहा था । दशहरा-दीपावली पन्ना में ही अकेले मनाया । फिर 8 नवम्बर को घर जाने की अनुमति मिली । एक दिन ऐसे ही फुरसत में बैठे बैठे मेक माय ट्रिप के एप पर खजुराहो से वाराणसी की हवाई जहाज खोजा । तो विस्तारा एयरलाइन की नई सेवा चालू हुई । और मात्र 3600 रुपये में उड़ान थी । फिर क्या अपना दिल बल्ली उछलने लगा । बचपन के सपने आंखों में तैर गए । हमने तुरंत फ्लाइट की टिकट बुक की । कार्यालय में बात करने के बाद 12 नवम्बर को वापिसी की टिकट 3800 रुपये में बुक कर दी । अभी घर में किसी को नही बताया । रात भर जागी आंखों से उड़ान के ख्वाब देख रहे थे । एक आम आदमी हवा में उड़ने की कल्पना से ही खुश हो जाता है । इधर मैंने तो टिकट ही बुक कर दी । खैर वो दिन भी आ गया , जब उड़नखटोला में बैठना था । मेरे जिला कार्यालय के बाबू  और स्टॉफ को पता चला तो वो लोग भी बोले - सर, हम लोग भी आपको छोड़ने चलेंगे । कम से कम इसी बहाने से एयरपोर्ट और ऐरोप्लेन तो देख लेंगे । अब हम सब पन्ना से खजुराहो हवाई अड्डे के लिए निकले । खजुराहो वैसे तो अपने आश्चर्य जनक स्थापत्य वाले नागर शैली के मंदिरों के लिए विशेष कर मन्दिर की बाह्य भित्तियों पर मैथुन शिल्पांकन के लिए विश्व विख्यात है । 42 किमी की दूरी तय करके खजुराहो पहुँचे , वहाँ मध्य प्रदेश पर्यटन निगम के होटल झंकार पहुँच कर प्रबंधक अमित कुमार जो मेरे मित्र भी है, उनके साथ चाय पी । फिर छोटू से खजुराहो हवाई अड्डे पहुँच गए । अपने सहकर्मियों के साथ हवाई अड्डे के बाहर फ़ोटो खिंचवाई और उनसे टाटा बाय करके टिकट दिखाकर अंदर प्रवेश किया । कुछ अंग्रेज और दो-चार भारतीय के अलावा अन्य यात्री नही थे । छोटा सा एयरपोर्ट जिसे एक नजर में ही देख लिया । चूंकि एक घण्टे पहले पहुँच गया था, तो तसल्ली से बोर्डिंग पास बनवाया । वैसे बड़े हवाई अड्डों पर एक घण्टे पहले पहुंचना यानी जल्दी से पहुँचना होता है । क्योंकि सुरक्षा जाँच की कतार लम्बी होती है, और उसमें समय लगता है । यहाँ तो गिने चुने यात्री ही थे । खैर हम चल पड़े द्वितीय तल पर स्थित प्रतीक्षालय में । आसपास देखने को कोई नजारे न थे । सामने एरोड्रम पर भी कोई उड़नखटोला न खड़ा था । वैसे भी पिछले कुछ साल से खजुराहो में विदेशी पर्यटकों की कमी के कारण कई हवाई कम्पनियों ने अपनी उड़ाने बन्द कर दी है । हाल ही में नई हवाई कम्पनी विस्तारा एयरलाइन्स ने अपनी उड़ान सेवा दिल्ली-खजुराहो-वाराणसी-दिल्ली के लिए चालू की है । जब से नेपाल में भूकम्प आया है, तबसे ये हवाई यात्रा सर्किट दिल्ली-खजुराहो-वाराणसी-बोधगया-नेपाल में विदेशी यात्री बहुत कम हो गए है । खैर हम कौन सा पर्यटन करने जा रहे है । इन्हें छोड़ अपनी उड़नखटोला यात्रा पर लौटते है ।  विस्तारा एयरलाइन्स सिंगापुर एयरलाइन्स (SIA) और टाटा कम्पनी का संयुक्त उपक्रम है । संयोग देखिए भारत के पहले कमर्शियल पायलट जमशेद जी टाटा थे, और टाटा एयरलाइन्स देश की पहली कमर्शियल एयरलाइन्स थी । स्वतन्त्रता पश्चात टाटा ने अपनी एयरलाइन्स देशहित में देश को समर्पित की जो आज एयर इंडिया के नाम से जानी जाती है । हमारी फ्लाइट आते ही सभी यात्रियों से अनुरोध किया जाता है, हम अनुरोध स्वीकार कर सीना ताने विमान में प्रवेश करते है । पहली बार हवाई यात्रा करने वाले आसानी से पकड़ में आ जाते है । हर चीज को ऐसे घूरते है, जैसे निपट देहाती व्यक्ति महानगरीय अट्टालिकाओं को । खैर 138 सीट वाले मेरे विमान में बमुश्किल 20 यात्री थे । विमान अंदर से रेलवे के प्रथम श्रेणी वातानुकूलित यान या चार्टेड बस की तरह ही लग रहा है । खिड़कियों का आकार ही उन्हें भ्रम मुक्त कर रहा था । विमान खाली होने से यात्रियों को निर्धारित सीट के अलावा अन्य सीट पर बैठने की छूट दी । परिचारिका जी ने मुझे बीच की सीट पर बैठने का संकेत किया । हम भी खुश की अगर विमान कही टकराया तो बीच वाले तो सुरक्षित रहेंगे । लेकिन तभी खयाल आया कि खजुराहो से वाराणसी के बीच कोई ऐसा पहाड़ तो है नही, जिससे विमान टकराये । और न सड़क मार्ग की तरह इतना ट्रैफिक है, कि कोई पीछे ही ठोक जाए । अब एक आशंका बच रही है, कि विमान दुर्घटनाग्रस्त हो जाये तो भले बीच से टूट जाये । ऐसे विचार पहली बार हवाई यात्रा करने वाले के मन में तो आते ही है । खैर हम खिड़की के पास वाली सीट पर बैठ गए । खिड़की के बाहर देखा तो पता चला कि हम उड़नखटोले के एक डैने के पास ही बैठे है । अब एक उड़न सुंदरी आई और अंग्रेजी में गिटर-पिटर करते हुए हाथ से इशारे के करने लगी । भारतीय शैली में अंग्रेजी बोलती तो कुछ पल्ले पड़ती मगर परले दर्जे की अंग्रेजी ऊपर से निकल गयी । खैर मुझे तो शुरुआत में उसका नाम दीक्षा और बाद में थैंक यू ही समझ आया । कुछ देर बाद वही उड़न सुंदरी आगे के मुसाफिरों से होते हुए मेरे पास आई । आते ही मुझसे बोली - व्हिच लैंग्वेज यू प्रिफर ?  इंग्लिश बोलने की गलती करते ही मोहतरमा अंग्रेजी में ऐसे सुपर फास्ट हुई कि हम प्लेटफॉर्म पर पैसेंजर के यात्री से देखते रह गए । खैर उनकी हरकतों से इतना समझ आया कि आपातकालीन परिस्थितियों में क्या करना है ? लेकिन अब कुछ समझ ही नही आया तो आपातकाल में क्या करेंगे ? खैर भगवान भरोसे हम सीट बेल्ट बांधकर बैठ गए । अब विमान में हरकत हुई इंजन स्टार्ट हुआ, दिल की धड़कन भी तेज हो गयी । तभी कॉकपिट से आवाज आई । नमस्कार, मैं आपकी पायलट कैप्टन अवन्तिका सिंह...हमारी उड़ान का निर्धारित समय है..1 घण्टा 35 मिनट और ...…..कैप्टन अवन्तिका सिंह ! वाह रे ! मेरी किस्मत, पहली उड़ान और पायलेट महिला ! पहले तो थोड़ा डर लगा, फिर सीना गर्व से चौड़ा हो गया । हमारे देश में लड़कियों ने हर क्षेत्र में पुरुषों को चुनौती दी है । वो अलग बात है, कि मैंने अभी तक अपनी पहली उड़ान की सूचना मायके में विराजमान अर्धांगिनी जी को नही दी है । अब विमान रनवे पर रेंगते रेंगते दौड़ने लगा । अभी तक लग रहा कि किसी लक्जरी बस में दौड़ रहा हूँ, फिर अचानक झटका लगा और उड़नखटोला आकाश की ओर उन्मुख हुआ , हम खिड़की से अपने मोबाइल में वीडियो बना रहे है, वीडियो को दिखा अपनी धाक भी तो जमानी पड़ेगी । नीचे खेत,मकान सड़क छोटे छोटे दिखने लगे थे । कुछ देर बाद बाहर का नजारा गजब का हो गया था, हम बादलों के बीच से गुजर रहे थे । रामानंद सागर की रामायण याद आ गयी । इंद्र आदि देवता बादलों के बीच ही तो रहते थे । हम अभी नजारों में ढंग से खो ही नही पाए कि विमान संचालिका कप्तान अवन्तिका जी की सुमधुर आवाज एक फिर से गूंजी । हम ....हजार फीट की ऊंचाई पर वाराणसी के आसमान में है, यहां तापमान है,28 डिग्री सेल्सियस और कुछ ही देर में हम लैंड करने वाले है, आप सभी अपनी पेटियां कस ले । लेकिन हम पेटी नही बैग लेकर आये थे । तभी आंग्ल संस्करण में पेटी मतलब बेल्ट पता चला । हमने खोली ही नही थी, तो कसने का सवाल ही नही । अब फिर से खेत मकान दिखने लगे । उम्मीद से भी कम समय में वाराणसी के लाल बहादुर शास्त्री अंतरराष्ट्रीय विमान तल बाबतपुर, वाराणसी पहुँच गए । यहाँ का हवाई अड्डा खजुराहो की तुलना में बड़ा था । यहाँ भीड़भाड़ भी दिख रही थी । कुछ दुकानें भी दिखी । खैर एकाध फ़ोटो खींच हम बाहर निकले । बाहर टैक्सी और ऑटो वालों की भीड़ यात्रियों को पकड़ने को आतुर दिखी । मैंने वाराणसी केंट (जंक्शन) का किराया पूछा तो 23 किमी के 250 रुपये से कम में कोई तैयार न हुआ । देवउठनी एकादशी के उपवास के कारण भोजन तो नही कर सकते थे, लेकिन हवाई अड्डे से थोड़ा आगे चलने पर एक दुकान पर कुल्हड़ में चाय पी । दुकान वाले से ही आसपास के टेम्पो स्थल की जानकारी ली । और हवाई यात्री पैदल ही लगभग एक किमी चले । ओवर ब्रिज के पास टेम्पो मिल गयी । 20 रुपये भाड़ा देकर स्टेशन पहुँच गए । पूछताछ केंद्र से बक्सर जाने वाली ट्रेन का पता किया । ट्रेन प्लेटफॉर्म पर पहुंचने वाली थी , हम भी दौड़कर ट्रेन के डिब्बे में दाखिल हो गए । डेढ़ घण्टे में बक्सर पहुँच गए । छोटा भाई बाइक से लेने आ गया । और लौटकर बुद्धू घर को आये । इस सफर में बुलेरो, हवाई जहाज, पैदल, ट्रेन और बाइक से अपना सफर पूरा किया । पर अब अपनी रामकहानी में ट्विस्ट आना बाकी है । घर पहुँचने के बाद हमारे जिला अधिकारी का कॉल आता है ! कल राम मंदिर अयोध्या का फैसला माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिया जाना है, पूरे देश मे हाई अलर्ट है अतः आप जितनी जल्दी हो सके वापिस लौटिए । माता श्री गांव गयी थी, तो उनसे मुलाकात हो न पाई । उन्हें जब कॉल कर वापिस जाने की बात बताई तो उन्हें भरोसा ही नही हुआ । वो इसे मजाक ही समझ रही थी । रात में ही वापिसी की फ्लाइट मोबाइल से बुक की । सुबह 7 बजे की ट्रेन से जाना तय हुआ । अब आंखों से नींद गायब ! जागती आंखों से रात काटी , सुबह 5 बजे नहा धोकर तैयार हुए । भाई स्टेशन तक छोड़ने आया । विदा होते समय आंखे नम थी । खैर प्लेटफॉर्म से बाहर यूटीएस एप्प के माध्यम से वाराणसी तक का टिकट लिया । अब ट्रेन में बैठ गए, 11 बजे ट्रेन के वाराणसी पहुँचने का समय था, और वाराणसी से 23 किमी दूर स्थित हवाई अड्डे पर रिपोर्टिंग टाइम 11:20 बजे तक का था । और मेरी ट्रेन अपनी परंपरा का पूर्णतः पालन करते हुए 30 मिनट देरी से चलने लगी । हवाई अड्डे समय पर पहुंचने की उम्मीद धुंधली पड़ने लगी । 11:30 पर वाराणसी पहुँच पाया तुरंत भागते ऑटो पकड़ा ईश्वर कृपा से पूरी सड़क खाली मिली,  रामजन्म भूमि पर माननीय उच्चतम न्यायालय से फैसला आना था । इसी कारण ऐतिहातन पूरे देश को हाइ अलर्ट पर रखा गया । ऑटो चालक ने पूरी स्पीड से ऑटो भगाया । हवाई अड्डे पर 12:15 बजे पहुँच पाया । 12:30 पर उड़ान थी । बोर्डिंग पास के लिए काउंटर पर बैठी भद्र महिला ने साफ मना कर दिया । आप बहुत लेट हो चुके है, आपको हम बोर्डिंग पास नही दे सकते , बस टेक ऑफ होने वाला है ।  अब मेरी हालत खराब । मैंने अपनी इमरजेंसी ड्यूटी का भी हवाला दिया । ये भी कहा कि अगर किसी से बात करनी हो बताए मैं बात करता हूँ ।  उन्होंने इनकार में सर हिला दिया । फिर किसी को फोन किया , वहाँ से भी मनाही हो गयी । अब ईश्वर ही याद आये । तभी चमत्कार हुआ । काउंटर का टेलीफोन घनघनाया । कुछ उम्मीद सी जगी । उधर से आवाज आई जल्दी भेजो ।  अब बोर्डिंग काउंटर पर हलचल तेज हुई । भद्र महिला बोली आप जल्दी से मेरे साथ आये, सिक्योरिटी चेक पर लम्बी लाइन लगी है । उनके साथ लाइन के बगल से गये, जल्दी से सिक्योरिटी चेक हुआ । सामान अलग से चेक हो रहा । भद्र महिला ने बोला जल्दी से आप ऊपर 4 नंबर गेट पर पहुँचे । हमने भी तेजी से दौड़ लगाई , ऊपर पहुँचा ही था, कि पीछे पीछे दौड़ता सीआईएसएफ का जवान आया । बोला- सर आपका समान कौन लाएगा ? अब फिर नीचे की ओर भागा ।  समान उठाया, बेल्ट गले में  लटकाया । फिर 4 नंबर की तरफ आया । यहाँ मेरा ही इंतज़ार हो रहा था । मेरे विमान में प्रवेश करने के कुछ देर बाद रनवे पर विमान दौड़ने लगा । तेज दिल की धड़कन सामान्य हुई । माथे से पसीने की बूंदे पोंछने पड़ी । विमान में सारी कवायद वही हुई । लौट के बुद्धू खजुराहो आये ।

खजुराहो हवाई अड्डे के बाहर
विमान के अंदर







शनिवार, 4 अप्रैल 2020

एक अनजान हसीना के साथ यादगार सफर


नमस्कार मित्रों, वैसे तो पूरी जिंदगी ही एक सफर है , और हम सब यात्री होने के साथ साथ किसी न किसी के हमसफ़र है । खैर मेरी हर यात्रा में कोई न कोई हमसफ़र अवश्य ही रहा है, क्योंकि मुझे अकेले घूमने में मजा नही आता । तो बड़ा मुश्किल होता है , किसी एक यात्रा को चुनकर उसमें एक हम सफर चुनने का ।  चलिए आज एक ऐसे हमसफ़र के बारे में बताते है , जो मेरे लिए आज भी गुमनाम है । बात आज से लगभग 13 साल पहले यानी 2006 के बरस की है । मैं इलाहाबाद में सिविल सेवा की तैयारी कर रहा था । कुछ दिन की दीपावली की छुट्टियां हुई थी, तो बक्सर (बिहार) गया था । फिर वहां से सागर (म0प्र0) अपने नाना जी के पास आना था, क्योंकि माताजी वही थी । बक्सर से हम लोग (मैं और मेरा मंझला भाई निकेश)  श्रमजीवी एक्सप्रेस से वाराणसी आये और वाराणसी से सागर के लिए कामायनी एक्सप्रेस पकड़ी । सामान्यतः कामायनी एक्सप्रेस पूर्वांचल से मुंबई जाने वाले मजदूरों और नौकरीपेशा लोगों से भरी रहती है, लेकिन दीपावली के कारण लोग अपने घरों को लौट रहे थे । इसलिए लोकमान्य तिलक टर्मिनस जाने वाली ट्रेन में लोक कम ही मान्य हो रहा था । दीपावली नजदीक होने के बावजूद उस साल सर्दी अभी ढंग से आई नही थी, लिहाजा हम दोनों भाई एक पतली सी टी शर्ट ही पहने थे । खैर तयशुदा कार्यक्रम अनुसार हम दोनों शयनयान श्रेणी डिब्बे की अपनी सीट पर बैठ गए । हमारी सीट के सामने वाली सीट पर मेहंदी किये लाल बाल और दाढ़ी वाले एक बुजुर्ग मुस्लिम तशरीफ़ रखे थे । बाकी का डिब्बा खाली ही था । हम दोनों भाई आपस में ही बतिया रहे थे । ट्रेन ने सीटी बजाई जो इस बात का इशारा था, कि  छुकछुक गाड़ी यहां से रुखसत होने वाली है । मैं वाराणसी जंक्शन को विदा देने डिब्बे के दरवाजे पर आ खड़ा हुआ । ट्रेन झटके के साथ आगे बढ़ने लगी अभी रफ्तार धीमी ही थी, स्टेशन अपनी भीड़ के साथ पीछे सरकने लगा । तभी एक नवयौवना कंधे पर बैग टांगे मेरी तरफ हाथ बढ़ाये दौड़ी चली आ रही थी । ट्रेन की रफ्तार के साथ मेरे दिल की धड़कन भी तेज होने लगी , तभी मोहतरमा चिल्लाई...मेरा हाथ पकड़ो ! मैंने भी फिल्मी स्टाइल में हाथ बढ़ा दिया और उन्हें अपनी तरफ खींच लिया । अब वो ट्रेन के अंदर आ चुकी थी । ट्रेन और हृदय की रफ्तार तेज हो चुकी थी । हम मानो जागी आंखों से ख्वाब देख रहे थे । साइड हटिये...प्लीज ! की आवाज़ से मेरी तन्द्रा टूटी ।
पूरा डिब्बा खाली था, तो वो नवयुवती हमारी सीट की साइड लोवर बर्थ पर बैठ गयी । मैं भी अपनी सीट पर आया तो देखा निकेश बाबू ऊपर की बर्थ पर चादर तान चुके है । सामने बैठे मौलवी जी अपनी दाढ़ी खुजाते हुए कुछ फ़ारसी में पढ़ रहे है ।  हमने भी अपनी सीट पर आसन जमाया । नवयुवती अपना बैग सीट के किनारे पर लगाकर  उसे तकिया बनाकर उस पर टिककर पैर फैलाकर बैठ गयी थी ।
पूरे डिब्बे में हम चार लोग ही थे । ट्रेन अपनी पूरी रफ्तार में आ गयी थी । खिड़की के बाहर पेड़, खेत , मकान तेजी से पीछे भागने लगे थे । कुछ देर ट्रेन की खटर-पटर सुनने के बाद मैंने अपनी खटर-पटर चालू करने का फैसला किया ।
नमस्कार अंकल  !
जवाब में मौलवी जी  अपनी किताब में से बिना सर उठाये सिर्फ सिर हिला दिया ।
आप कहाँ तक जाएंगे ?
जौनपुर
मतलब आपने बनारस से जौनपुर जाने के लिए रिजर्वेशन करवाया है ?
नही , हम डेली पैसेंजर है । एमएसटी
ओह, मतलब आप बनारस में काम करते है और जौनपुर के रहने वाले है ?
हाँ ,
तभी मैंने कनखियों से देखा तो नवयुवती मेरी तरफ ही देख रही थी । तो मैंने देखकर मुस्कुरा दिया ।
प्रत्युत्तर में भी हल्की सी मुस्कान मिली । तो मैंने मौलवी साहब को किताब में गड़ा देखकर अपना मुंह साइड बर्थ की ओर घुमा लिया ।
मेरे सिर घुमाते ही नजरे दो-चार हुई , उधर मुस्कान थोड़ी लम्बी हुआ और इधर बांछे (शरीर मे जहां कही होती हो ) खिल गयी ।
आप कहाँ तक जाएंगी ?
जी, इलाहाबाद !
अरे, वाह ! इलाहाबाद में ही तो मैं भी सिविल सर्विस की तैयारी कर रहा हूँ । (मैंने रोब जमाने के हिसाब से कहा )
इलाहाबाद में लोग सिविल सर्विस की तैयारी करने आते है, और कुछ साल बाद मास्टर बन जाते है ।  उसकी मुस्कान अब हंसी में बदल गयी ।
नही, उनमे कुछ सफल भी होते है ।
सिर्फ कुछ ही
जी, जो दृढ़निश्चय के साथ मेहनत करते है , वो सफल ही होते है ।
कोई उत्तर नही मिलने पर मैं भी कुछ देर चुप बैठा रहा ।
माहौल की खामोशी को रेल की खटर पटर और मौलवी साहब की बुदबुदाहट तोड़ रही थी ।  अब नवयुवती खिड़की से नजारे देखने लगी । तो हम भी अपनी तरफ वाली खिड़की की तरफ खिसक आये ।  ट्रेन कुछ धीमी सी होने लगी शायद कोई स्टेशन आने वाला था , लेकिन खिड़की से देखने पर ऐसी कोई संभावना नजर नही आ रही थी ।  तभी ट्रेन धीमी होती हुई खड़ी हो गयी , सामने खेतों में जुताई चल रही थी, ट्रैक्टर के पीछे पीछे बगुले झुंड के झुंड में कीड़े खाने के लिए मंडरा रहा और इधर मेरे मन में कई विचार मंडरा रहे थे । तभी एक जोरदार सीटी के साथ बगल की पटरी से एक ट्रेन धड़धड़ाती गुजर गई ।  इसी ट्रेन को गुजारने के लिए हमारी ट्रेन रोक दी गयी थी । अब हमारी ट्रेन भी रेंगने लगी थी , खिड़की में से खेत , ट्रेक्टर और बगुले पीछे छूटने लगे थे ।  मौलवी जी की बुदबुदाहट के साथ मेरे भाई के खर्राटे ताल मिलाने लगे ।  ट्रेन की रफ्तार के साथ खड़खड़ाहट भी तेज होने लगी ।  दूर क्षितिज में सूरज लाल चुनरियाँ फैलाये डूबने की तैयारी में था । ट्रेन की तेजी बढ़ गयी, मगर सूरज अपनी रफ्तार से था । पंछियों के झुंड अपने घोंसलों में लौटने लगे थे ,  जैसे इस ट्रेन में भी लोग त्यौहार के समय अपने अपने घर लौट रहे थे । ट्रेन अपनी रफ्तार में थी ।  नवयुवती खिड़की से बाहर देख रही थी, मौलवी जी अभी भी किताब में गड़े हुए थे, हम भी बोर होने लगे तो बैग से 'प्रतियोगिता दर्पण' निकाल कर पलटने लगे ।  देश-दुनिया की जानकारी में हम उलझने वाले थे, कि नवयुवती की आवाज आई ।
क्या आप मेरी खिड़की का कांच बन्द कर देंगे , मुझसे हो नही रहा ।
मैं अनमने भाव से उठा , खिड़की  का कांच बंद कर अपनी सीट पर लौट आया ।
दो बार मदद करने का कोई अहसान नही । खैर हमे क्या ? हम फिर देश-दुनिया की जानकारी में घुसने वाले थे , कि उधर से एक मधुर आवाज आई । थैंक यू ! 
मैंने  देश-दुनिया की जानकारी में से निकलकर देखा कि नवयुवती के अधरों पर मुस्कुराहट तैर रही है । मैंने भी औपचारिकता वश यॉर वेलकम कह दिया ।
मगर इस बार नवयुवती की आंखों में मुझे नमी सी दिखी, जिसने मुझे पुनः देश-दुनिया की जानकारी में उलझने नही दिया ।  खैर हिम्मत कर मैंने उससे पूछा - इलाहाबाद में आपका घर है ?
नही, इलाहाबाद में मेरी एक सहेली रहती है , उसी के पास जा रही हूँ ।
लेकिन लोग त्यौहार पर अपने घर जाते है, और आप सहेली के पास जा रही है !
मैं अपने घर से भाग रही हूं !
क्या ?
मेरे जोर से क्या बोलने पर मौलवी जी ने गर्दन ऊपर उठाई और मेरी तरफ देखा , फिर किताब में ही गड़ गए ।  मैं खिसक कर साइड बर्थ की तरफ आया ।
आप अपने घर से क्यों भाग रही हो ?
मैं आगे पढ़ना चाहती हूं, और मेरे घरवाले मेरी शादी करना चाहते है ।
तो आप अपने घरवालों को समझा सकती है , भागना कोई सही विकल्प नही है ।
मैं उन्हें समझा समझा कर हार गई हूं, इसलिए मैंने ये फैसला लिया ।
खिड़की के बाहर आसमान अंधेरे के गिरफ्त में आ चुका था ।
आपने ये फैसला बिल्कुल भी गलत लिया । आखिर  आपके घरवाले  भी तो सोच समझकर ये फैसला ले रहे होंगे।
मेरे पिता जी एक छोटी सी नौकरी करते है, और उन पर 4 बेटियों का बोझ है । मैं सबसे बड़ी बेटी हूँ । बेटे की चाह  में चार बेटियां हो गयी , अब किसी तरह से सबकी शादी करनी है ।  कहते है , रिटायरमेंट के पहले चारों की शादी निपटानी है ।
एक तरह से आपके पिता की सोच सही है , लेकिन आप इस तरह से घर से भागकर  अपने पिता की समस्या बढ़ा ही रही है । और लड़कियों को बोझ मानने की सोच को विस्तार दे रही है ।
तो मैं क्या करूँ ? मुझे अभी शादी नही करनी  , मुझे आगे  पढ़ना है ।
आप अपने पिता से एक बार फिर से बात कीजिये और उनसे अपने लिए 2 साल मांगिये , साथ ही हो सके तो  आप पढ़ाई के साथ कोई पार्ट टाइम जॉब भी कर लीजिए , जिससे उनकी आर्थिक मदद भी हो सके । आप अपने पिता का गर्व बनिये न कि शर्म
!  सोचिए गांधी जी के चार बेटे थे, उन्हें आज कोई भी नही जानता है , जबकि नेहरू जी की सिर्फ एक ही बेटी थी, जिसकी वजह आज भी लोग नेहरू जी को याद करते है ।
खिड़की के बाहर उजाला बढ़ने लगा था  । शायद कोई स्टेशन आने वाला है ।
मेरी बातों से वो युवती सहमत नजर आई । और जौनपुर स्टेशन पर गाड़ी रुकते ही , उसने अपना बैग उठाया । आप सही कह रहे । मेरे पापा मेरे लिए परेशान हो रहे होंगे । मैं वापस बनारस जा रही हूं । आपने मेरी आँखें खोल दी । धन्यवाद ....और वो जौनपुर स्टेशन पर उतर गई ।
मौलवी साहब भी अपनी बुदबुदाहट खत्म कर किताब में से उखड़े और स्टेशन की ओर रुखसत हुए । अब शोरगुल बढ़ने लगा , लोग डिब्बे में चढ़ने लगे । और मैं देश-दुनिया की जानकारी में उलझने की कोशिश करने लगा ।

orchha gatha

बेतवा की जुबानी : ओरछा की कहानी (भाग-1)

एक रात को मैं मध्य प्रदेश की गंगा कही जाने वाली पावन नदी बेतवा के तट पर ग्रेनाइट की चट्टानों पर बैठा हुआ. बेतवा की लहरों के एक तरफ महान ब...