नमस्कार मित्रो,
आज सुबह सुबह जब दैनिक भास्कर पढ़ रहा था , तो अन्दर के पृष्ठ पर एक छोटी सी मगर चौका देने वाली ख़बर पढ़ी। जबलपुर हाई कोर्ट ने एक बलात्कार के आरोपी की १० वर्ष की सजा सिर्फ़ इसलिए कम कर दी क्योंकि आरोपी एक अनपढ़ और अनुसूचित जनजाति का था। गनीमत है की पीड़ित पक्ष सर्वोच्च न्यायलय की शरण में गया। सुप्रीम कौर्ट ने पीड़ित पक्ष को रहत देते हुए आरोपी की सजा बरक़रार राखी है।
धन्य है मेरे देश के लोग जो हर चीज को आरक्षण से जोड़ते है। सोचिये ! अगर अपराधियों को भी आरक्षण मिलने लगा तो देश का क्या हाल होगा ? आरक्षण के मामले को मैं सिर्फ़ इसलिए नही उठा रहा हूँ क्योंकि मैं सवर्ण या उच्च जाति से सम्बंधित हूँ। मैं आरक्षण के खिलाफ नही हूँ , बस तरीका गलत है। आरक्षण हो मगर जाति के आधार पर नही , बल्कि आर्थिक आधार पर होना चाहिए। इस बात को देश के कई जाने माने लोगो ने भी कहा है। नारायण मूर्ति (infosys) ने तो इस बात का प्रयोग सहित पुरजोर समर्थन किया है। हमारे देश के नेताओ को तो अपने वोट बैंक से मतलब है, मगर हम तो आज समझदार है । हम देख चुके है की आरक्षण के नाम पर एश का कितना नुक्सान हो चुका है । चाहे वो वी० पी० सिंह का मंडल कमंडल हो या अर्जुन सिंह का नया शिगूफा या फ़िर गुर्जरों का आन्दोलन । हमने कितना खोया कितना पाया है ?
अगर आप वंचितों को आरक्षण न देकर समुचित सुविधाए उपलब्ध कराते है तो शायद उन लोगो के साथ- साथ देश का भी भला हो सकता है। देश की आज़ादी के ६ धसक बाद भी दलित, मुस्लिम , आदिवासी पिछडे है ! क्यो नही वे आगे बढ़ पाए ? क्या हम फ़िर से नही सोच सकते की आख़िर कान्हा कमी है? आख़िर हम इस आरक्षण की ग़लत नीति के कारण उच्च जातियों को आरक्षित जातियों का दुश्मन नही बना रहे है ? आख़िर हम प्रतिभाओ का गला नही घोंट रहे है ?
कभी किसी पत्रिका में एक आरक्षण पढ़ी थी --
घोडो और गधो में हो रही थी रेस
अश्व थे आगे ,
गधे भी पीछे भागे ।
इतने में किसी ने लगाम खीची ,
अब गधे थे आगे और घोडे हुए पीछे ,
लगाम खीचने वाला कौन है ?
मेरे देश की संसद मौन है !
आरक्षण ! आरक्षण !!
ज़रा सोचे
आपका अपना ही मुकेश पाण्डेय