शुक्रवार, 30 जून 2017

लालकिले की रोचक तारीख और बुरे फंसे हम !


अब उसके आगे की राम कहानी सुनिए।  तो ओला कैब से हम लोग लाल किला देखने पहुँच गए।  कमल भाई टिकट लेने लाइन में लगे , मैं उनके पास ही खड़ा गपशप करने लगा।  किले में प्रवेश करने  टिकट 30 रूपये की थी, और अगर आप किले के अंदर स्थित संग्रहालय भी देखना चाहते है, तो 5 रूपये अलग से मतलब कुल 35 रूपये की टिकट हुई।  अंदर के संग्रहालय के लिए अलग से टिकट नहीं मिलती।  अब एक मजेदार वाक़्या हुआ।  एक आदमी टिकट काउंटर पर इसी बात पर  बहस  कर रहा था , कि उसे सिर्फ संग्रहालय ही देखना है , इसलिए उसे पांच रूपये की टिकट दी जाये  ! जबकि टिकट कर्मचारी उससे कह रहा था, कि संग्रहालय की अलग से टिकट नहीं मिलती साथ में किले की भी टिकट लेनी होगी।  हम भी मजे लेकर ये ड्रामा देख रहे थे।  और इसके अलावा हमारे पास कोई चारा भी नहीं था।  ड्रामे के पटाक्षेप के बाद अपनी टिकट लेकर चल पड़े लाल किले की ओर। .....
बचपन में टीवी पर स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्रता दिवस की परेड में लाल किले पर तिरंगा लहराते देखते थे,  तो तभी से मन में एक सपना पाल लिया था , कि हम भी एक न एक दिन इस लाल  के दीदार जरूर करेंगे।  वैसे इतिहास का विद्यार्थी जरूर रहा हूँ , लेकिन आज लाल किले का इतिहास लिखने का मन नहीं हो रहा है।  सो अगर आपको लाल किले का इतिहास जानना है , तो हमारे मित्र प्रदीप चौहान जी की पोस्ट पर क्लिक करके पढ़ सकते है।  ये किला जहाँ मुगलों की शान और शौकत का गवाह रहा है , तो इसने मुगलों के साथ ही इस देश की दुर्दशा भी देखी  है।  मुग़ल बादशाह मुहम्मद शाह रंगीला (1721- 1748 ) के कार्यकाल में जब ईरानी शासक नादिरशाह ने 1739 ईस्वी में दिल्ली पर हमला कर कत्ले आम किया तो  कई एकड़ के हरम वाले  रंगीला की रूह कांप  उठी थी।  और नादिर शाह अपने साथ इसी लाल किले से कोहिनूर हीरा और तख्ते ताउस ( रत्न जड़ित मयूर सिंहासन ) भी ले गया। वही एक और मुग़ल बादशाह अकबर द्वितीय (1806 -1836 )  जिनकी पेंशन अंग्रेजो ने बंद कर दी थी।  लाल किले के भीतर मुगलिया  सल्तनत की  इतनी बुरी हालात हो गए थे , कि शाही रसोई में तीन दिन तक चूल्हा नहीं जला और शहजादियों को लाल किले के बाहर आकर खाना मांगना पड़ा।  बादशाह की पेंशन की अर्जी लेकर राममोहन राय ( महान समाज सुधारक ) को राजा की पदवी देकर इंग्लैंड भेजा गया।  वो अलग बात है , कि रजक राम मोहन राय जी इंग्लैंड से लौटे ही नहीं और आज उनकी कब्र इंग्लैंड में ही बनी है।   इतना ही नहीं आखिरी मुग़ल बादशाह  बहादुर शाह ज़फर के सामने तो अंग्रेजो ने उनके ही बेटों के सिर काट कर थाल में ही परोस दिए थे। और ज़फर को देशनिकाला देकर रंगून भेज दिया , जहाँ आज भी उस बदनसीब बादशाह की रूह अपनी वतन की मिट्टी की चाहत  लेकर भटक रही है।

 लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में,

किस की बनी है आलम-ए-नापायदार में।


बुलबुल को बागबां से न सैयाद से गिला,
किस्मत में कैद लिखी थी फसल-ए-बहार में।

कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें,
इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दाग़दार में।

एक शाख गुल पे बैठ के बुलबुल है शादमान,
कांटे बिछा दिए हैं दिल-ए-लाल-ए-ज़ार में।

उम्र-ए-दराज़ माँग के लाये थे चार दिन,
दो आरज़ू में कट गये, दो इन्तेज़ार में।

दिन ज़िन्दगी खत्म हुए शाम हो गई,
फैला के पांव सोएंगे कुंज-ए-मज़ार में।

कितना है बदनसीब 'ज़फर' दफ्न के लिए,
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में॥

  - बहादुर शाह ज़फर 



खास महल 

लाल किले में सूर्यास्त 
                                              
टिकट के लिए लगी कतार 
लाहौरी गेट के सामने 
मीना बाजार 
शानदार पच्चीकारी का नमूना 
चलिए अब इतिहास  की गलियों से निकल कर वर्तमान में आते है , हमने लाल किले के लाहौरी गेट से प्रवेश किया।  जबकि दूसरा गेट जो दिल्ली गेट के नाम से जाना जाता है ,उसे निकास द्वार के  प्रयोग किया जाता है।  किले के अंदर प्रवेश करते ही एक बाजार मिलता मिलता है।  जिसे एक समय मीना बाजार के नाम से जाना जाता था।  आज भी यहां रास्ते के दोनों तरफ दुकाने लगी हुई है।  दुकानों से गुजर कर हम छत्ता चौक पहुंचे  फिर हमे गॉइड भी मिले , तो जैसा कि पहले ही बताया , आज समय की कमी थी , क्यूंकि आज दीपावली थी, और पूजा के पहले बहन जी के यहां पहुंचना था।  खैर नौबत खाने की ओर बढे , यहां कभी वादकगण वाद्ययंत्र बजाया करते थे।  फिलहाल हमारे सामने ऐसी नौबत नहीं आई।  आगे बढ़ने पर दीवाने आम और अन्य इमारते  मिलती है।  दीवाने आम का प्रयोग मुग़ल बादशाहो द्वारा आम जनता से मिलने , उनकी  समस्याओं को जानने , सुनने और उनका समाधान करने के लिए होता था।  शाहजहां दरबार में बैठने के लिए तख्ते ताउस  नामक  आलीशान सिंहासन  का प्रयोग करता था।  शाहजहां था , बड़ा ही शौक़ीन बादशाह उसने तख़्त में भी नगीने जड़ा रखे थे।  दीवाने खास का प्रयोग खास लोगो के लिए दरबार लगता था।  तो हम खास तो इतने थे नहीं , इसलिए दीवाने खास से खाकसार रुखसत हुए। इसके बाद रंग महल , मुमताज महल , खास महल देखने के बाद जल्दी से पांच रूपये वाले टिकट वाले संग्रहालय की ओर भागे।  क्यूंकि बंद होने का समय होने वाला था।  संग्रहालय में मुगलो के ज़माने के हथियार , पोशाक , वस्तुओं आदि रखी  थी।  संग्रहालय बंद करने के कारण  सबको बाहर कर रहे थे, जब लोग अपने मन से नहीं निकले तो अंदर की लाइट ही बंद कर दी , अब देखो अँधेरे ! मजबूरन सबको बाहर आना पड़ा। किले के अंदर ही वॉर मेमोरियल संग्रहालय है , जिसमे भारतीय वीरों से जुडी वस्तुएं राखी है।  दीपावली की छुट्टी की वजह से वो बंद था।  हम  जब बाहर  आये तो लाल किले की प्राचीर पर शान से तिरंगा लहरा रहा था।  परेड की याद आ गयी।  कुछ देर निहारने के बाद कुछ फोटो खींची।  और चल दिए दिल्ली गेट से किले के बाहर की ओर।  दिल्ली गेट के दोनों तरह दो विशालकाय पत्थर के हाथी खड़े थे।  बाहर जब सड़क पर पहुंचे तो न कोई ऑटो रिक्शा , न कोई कैब और न कोई अन्य साधन ! दीपावली की शाम होने के कारण सब जल्दी घर के लिए निकल लिए  और हम फंस गए।  बस स्टॉप पर गए , मगर वहां पहले से ही भीड़ खड़ी अब करे तो क्या करे ? 
बहादुर शाह जफ़र की यादें 
दिल्ली दरवाजे के बाहर खड़े हाथी 
लाल किले के लाइट और साउंड शो की जानकारी 
फिर बड़ी मुश्किल से एक रिक्शा वाला मिला जो मुस्लिम होने की वजह से दीपावली के लिए  घर भागने की जल्दी में नहीं था।  उसने हम लोगों निकटम मेट्रो स्टेशन चांदनी चौक तक छोड़ा।  और हम किसी तरह दीपावली की पूजा से पहले अपने ठिकाने पर पहुंचे।  लेकिन अगले दिन कुछ ऐसी घटनाएं हमारा इंतजार कर रही थी , कि उन्हें ताउम्र भुलाया नहीं जा सकता।  
लाल किले की प्राचीर के सामने















गुरुवार, 22 जून 2017

दिलवालों की दिल्ली के दर्शन (भाग -1 )


नमस्कार मित्रों ,
पिछले साल दिवाली के समय ओरछा में अकेला ही था , श्रीमती जी मायके गयी हुई थी।  तो अब दीपावली जैसा महापर्व अकेले कैसे मनाया जाये।  घर ( बक्सर, बिहार ) जाने के लिए काम से काम एक हफ्ते की छुट्टी चाहिए।  इसलिए इस बार दिवाली के शुभ अवसर पर दिल्ली में अपनी इकलौती बहन निक्की के यहाँ जाने का ख्याल मन में आया।  इस ख्याल में दिल्ली में रहने वाले घुमक्कड़ दोस्तों से मिलने का लालच भी था।  ये सामान्य दोस्त नहीं है , इनसे जान-पहचान  इंटरनेट की दुनिया के दो सशक्त प्लेटफॉर्म फेसबुक और व्हाट्सएप्प  के माध्यम से हुई थी।  इनमे सभी आला  दर्जे के घुमक्कड़ तो थे ही , कुछ लोग ब्लॉग भी लिखते है।  इनमे से अधिकांश लोगों से इंटरनेट माध्यम से ही जुड़ा था।  वास्तव में मुलाकात का संयोग सिर्फ मनु प्रकाश त्यागी जी,  संदीप पंवार जी उर्फ़ जाटदेवता और कमल कुमार सिंह उर्फ़ नारद से ही इसलिए संभव हो पाया , क्यूंकि ये लोग ओरछा आये  थे। दिल्ली के लिए निकलने के पहले ही  मैंने व्हाट्स एप्प ग्रुप पर पहले ही घुमक्कड़ मित्रो को सूचित कर दिया था।
               अब अपने जिला अधिकारी से छुट्टी ली और निकल पड़ा दिल्ली की ओर...... झाँसी स्टेशन  से एक समय भारत की सबसे तेज ट्रैन रही  हबीबगंज ( भोपाल ) -नई दिल्ली शताब्दी एक्सप्रेस से  28  अक्टूबर की  शाम को निकल पड़ा।  चूँकि व्हाट्स एप्प ग्रुप पर भी मित्रों को अप डेट्स मिल रही थी।  दिल्ली पहुँचने के कुछ देर पहले ही प्रसिद्द घुमक्कड़ ब्लॉगर नीरज जाट जी का कॉल आया , दिल्ली में आखिरी  मेट्रो के बारे में बताया।  ( नीरज जी स्वयं दिल्ली मेट्रो में कार्यरत है।  ) लेकिन मेरी सबसे तेज ट्रैन परम्परानुसार विलम्बित होकर मुझे अंतिम मेट्रो से वंचित कर गयी।  नीरज जी ने इतनी रात को ऑटो की बजाय कैब से जाने की सलाह दी।  क्यूंकि दिल्ली के ऑटो रात के सफर के लिए सुरक्षित नहीं है।  और ये भी कहा कि अगर दिक्कत न हो तो उनके घर भी आ सकता हूँ  . खैर दिल्ली में ही रहकर संघ लोकसेवा आयोग (upsc ) की तैयारी कर रहा मेरा बड़ा साला ध्रुव तब तक नई दिल्ली स्टेशन पहुँच चुका था।  ध्रुव से मिलने के बाद मैंने नीरज जी को अपनी कुशल क्षेम बताई।  दिवाली के अवसर पर नई दिल्ली स्टेशन रौशनी से नहाया हुआ था। स्टेशन पर दिवाली और छठ  पर घर जाने वाले पूर्वांचल के  बटोही लोग भरे पड़े थे।  अब मैं और ध्रुव एक ऑटो पकड़ कर (कैब की अनुपलब्धता  कारण ) शादीपुर स्थित ध्रुव के कमरे के लिए निकल पड़े।  ऑटो वाला बिहारी ही निकला तो बोलते बतियाते कब पहुँच गए पता ही नहीं चला।  जब ऑटो के बारे आशंका  हो तो उसके बारे जाँच -परख करना ठीक होता है।  अब वर्दी वाला दिमाग तो चलेगा ही।
                                                         29 की सुबह ध्रुव के साथ मेट्रो से छतरपुर के लिए बहन निक्की से मिलने झोला उठा के चल पड़े।  सफर की थकान या दिल्ली के असर से रात में बुखार आ गया था।  इसलिए बहन के यहाँ खा-पीकर सो गया। तभी कमल जी की कॉल से नींद खुली।  उनसे मिलने की बात हुई।  सुबह से व्हाट्स एप्प पर कोई अपडेट न पाकर बाकि लोग चिंतित थे।  खैर फिर गुरुग्राम वासी अमित तिवारी जी का कॉल आया , वो बताये कि वो , डॉ श्यामसुंदर , नीरज अवस्थी जी के साथ छतरपुर मेट्रो स्टेशन आ रहे है।  कमल भाई को भी मैंने वही आने का बोला।  फिर हम लोगों की मुलाकात छतरपुर मंदिर के बाहर हुई।   उसके बाद आसपास कोई बैठने या बतियाने का उपयुक्त स्थान होने के कारण  हम लोग मेट्रो से ही गुरुग्राम पहुंचे।  वहां मेट्रो स्टेशन के बाहर अमित जी की सिफारिश पर  एक ठेले पर हम लोगों ने स्वादिष्ट लीटी-चोखा का आनंद लिया।   शाम तक हम लोग यूँ ही जल-पान करते हुए घूमते रहे।  बाकि मित्रों ने खमीर उठे हुए जौ  के रस का लुत्फ़ उठाया।  मैं इस विभागीय पेय से दूर रहा।  बातों -बातों में पता ही नहीं चला कि कब अँधेरा हो गया।  अभी तक आभासी दुनिया के मित्रों से प्रत्यक्ष मिलने पर लगा ही नहीं कि हम पहली बार मिल रहे है।  फिर सब अपनी अपनी राह पकड़ कर आशियाने की ओर चल पड़े। जाते समय डॉ श्याम सुन्दर जी ने पतंजलि के रसगुल्ले और अमित तिवारी जी ने  डेरी मिल्क का सेलिब्रेशन  पैक दिया।  छतरपुर पहुँचने पर बहन जी की प्यार भरी झिड़की की आशंका पर भांजी के प्यार ने पानी फेर दिया। इधर व्हाट्सएप्प ग्रुप पर दिल्ली और आसपास के मित्रों द्वारा मुझसे मिलने का प्रोग्राम बन रहा था।  खैर बहन जी से कुछ देर बतियाने के बाद खा-पीकर सो गया , फिर से बुखार की आगोश में।
                                  अगली सुबह यानि दीपावली का  दिन इसलिए किसी से मिलने की उम्मीद काम ही थी , तो सोचा कि आज का दिन बहन और भांजी के साथ ही आराम से रहेंगे।  परन्तु मोहि कहाँ विश्राम .. दिल्ली में हमारे अज़ीज दोस्त कमल कुमार सिंह  जी तो हमे दिल्ली दर्शन का बीड़ा प्रेम से उठाये हुए थे।  तो सुबह सुबह कॉल किया।  और हम बिना नाश्ता किये चल पड़े , मेट्रो की ओर।  आज क़ुतुब काम्प्लेक्स , रायसीना हिल्स ( इंडिया गेट, संसद भवन, राष्ट्रपति भवन, सचिवालय ), रेल म्यूजियम , लाल किला आदि देखने का कार्यक्रम था।  अब कमल भाई से हमारी मुलाकात कुतुबमीनार मेट्रो स्टेशन पर हुई।  कमल भाई की मोहब्बत भी गजब की थी , इससे पहले हम सिर्फ एक बार इस १५ अगस्त को ओरछा में  मनु प्रकाश त्यागी जी के साथ मिले। तब मैं कमल भाई को लगभग न के बराबर ही जानता था।  हाँ , ब्लॉगिंग के सुनहरे दिनों में नारद आम से लिखे इनके ब्लॉग पोस्ट्स को जरूर पढ़ा था , पर ये नहीं जनता था, कि कमल भाई ही नारद थे।  खैर जब नारद से मिल ही लिए तो नारायण-नारायण होना तय था।  अब क़ुतुब काम्प्लेक्स में सुबह का नाश्ता किया।  फिर निकल पड़े क़ुतुब मीनार के दर्शन करने के लिए ... क़ुतुब मीनार के बारे में अभी तक किताबों में ही पढ़ा था।  आज देखने का मौका मिला।  चूँकि आयोग की परीक्षाओं में इतिहास का विद्यार्थी होने के नाते क़ुतुब मीनार के बारे में बहुत कुछ पढ़ा था , जैसे क़ुतुब मीनार कुतुबुद्दीन ऐबक ने नहीं बनवाई थी , बल्कि उसने तो उस पर मुस्लिम बाना चढ़ाकर उसे क़ुतुब मीनार ( सूफी संत कुतुबुद्दीन काकी के सम्मान में ) नाम दिया।  तो  इस मीनार को देखने की रूचि इसलिए भी ज्यादा थी।  जब क़ुतुब मीनार प्रांगण में प्रवेश किया तो चारो तऱफ हिन्दू स्थापत्य के ध्वंष बिखरे  पड़े थे , और इन सबके बीच ठीक क़ुतुब मीनार के बगल में लौह स्तम्भ सीना ताने खड़ा था।  चौथी सदी में बने इस अद्भुत धातु शिल्प पर  आज का  विज्ञान  भी अचंभित है।  किसी चंद्र नामक शासक ( जिसकी साम्यता गुप्त शासक चन्द्रगुप्त द्वितीय से की जाती है।  ) ने इस स्तम्भ को बनवाया था। सदियों से  खुले में खड़े इस लौह स्तम्भ पर जंग न लगना सचमुच प्राचीन भारतीय धातु विज्ञान का चमत्कार था।  इस पर किसी प्रकार  इस्लामिक मुलम्मा ही चढ़ पाया , इसलिए यह सुरक्षित हिन्दू  बना रहा।  क़ुतुब मीनार के चारो तरफ जिस प्रकार से  हिन्दू स्थापत्य बिखरा पड़ा है , इससे यह स्वमेव ही प्रमाणित होता है , कि यह क़ुतुब मीनार बनने से पहले विष्णु स्तम्भ (जैसा कि माना जाता है , कि पृथ्वीराज चौहान ने इसे बनवाया था ) या विजय स्तम्भ रहा होगा।  इतिहास में जो कहा जाता है , कि क़ुतुब मीनार का निर्माण कुतुबुद्दीन ऐबक ने प्रारम्भ करवाया था, और इसे इल्लुत्मिश ने पूर्ण करवाया।  अब  मैंने जितना इतिहास पढ़ा है ( मैं इतिहासकार होने का दावा नहीं कर रहा हूँ ) तो न तो कुतुबुद्दीन ऐबक और न ही इल्तुतमिश को इतनी फुर्सत और शांति - सुकून मिला कि वो किसी ईमारत का निर्माण करवा सके।  ये गुलाम शासक आक्रमणकारी के रूप में भारत आये , और इनका समय लूट-पाट के बाद बचे समय में खुद को सुरक्षित करने में लगा।  ऐबक ने तो अजमेर (जिसका पुराना नाम अजयमेरु था ) में चौहान शासक (पृथ्वीराज के  पूर्वज ) विग्रहराज चतुर्थ के सरस्वती मंदिर को तोड़ कर अढ़ाई दिन मस्जिद बना दिया  और नाम दिया - अढ़ाई दिन का झोंपड़ा।  इसी तरह इसी क़ुतुब काम्प्लेक्स में कुब्बत-उल-इस्लाम मसजिद , अलाइ दरवाजा जैसे इस्लामिक नमूने भी प्राचीन भारतीय स्थापत्य नींव पर खड़े गए  . हालाँकि सच्चाई जो भी हो , सात बार बसी दिल्ली की ये मीनार आज भी महत्वपूर्ण पहचान है।  पास ही में हवाई अड्डा होने से इसके ऊपर से हवाई जहाज निकलते रहते है।
                                            क़ुतुब मीनार से फुर्सत होने के बाद कमल भाई ने आर्कियोलॉजिकल पार्क घूमने का प्रस्ताव रखा , जिसे ध्वनिमत से पारित किया गया।  पर हाय री ! किस्मत।, भरी दुपहरी में पसीना -पसीना होने के बाद भी हम इस पुरातात्विक उद्यान की दीवाल के चक्कर दिवाली के दिन काटते रहे , पर हमे प्रवेश द्वार न मिला।  अगर मिल जाता तो कुछ गड़े मुर्दे हम भी उखाड़ लेते।  जब थक गए तो फिर पहुंचे मेट्रो स्टेशन सीधे संसद में शिकायत करने के लिए।  पर दिवाली की छुट्टी थी , तो संसद बंद मिली।  तो मन मार कर संसद , नार्थ ब्लॉक , साउथ ब्लॉक के सामने फोटो खिचवाये।  सामने राष्ट्रपति भवन था, सोचा कोई बात नहीं , महामहिम प्रणब दा  से ही मिल आये , परन्तु वहां खड़े सुरक्षा कर्मियों ने तो मुख्य द्वार के पास ही नहीं जाने दिया।  हमने अपना आई डी कार्ड भी दिखाया पर ो भी कुछ काम न आया।  कुल मिला कर इतने द्वारों से हमें निराश ही लौटना पड़ा।  रास्ते में रेल म्यूजियम भी दिवाली की छुट्टी के कारण  बंद मिला।  अब सोचा एक गेट में और कोशिश कर ली जाये , तो पहुँच गए इंडिया गेट , ये गेट तो खुला मिला मगर इसमें घुसना मना था।  तो दूर से फोटो खिंचवाए। प्रथम  विश्वयुद्ध में मारे गए भारतीय सैनिको की स्मृति में इसका निर्माण किया गया था। इस गेट की दीवारों पर शहीद सैनिको के नाम लिखे हुए है।  बाद में श्रीमती इंदिरा गाँधी जी स्वतंत्रता पश्चात् के शहीदों की स्मृति में अमर जवान ज्योति का निर्माण किया। अमर शहीदों को मन ही मन नमन किया।  फिर याद आया कि मेरे बड़े साले ध्रुव का आज जन्मदिन है , इसलिये उसे कॉल करके कनॉट प्लेस बुलाया।  तब तक कमल भाई पैदल ही कनॉट प्लेस की ओर मुझे भी ले चले।  रास्ते में महाराष्ट्र सदन में बैठे हुए डॉ आंबेडकर जी की मूर्ति दिखाई दी , सामान्यतः हर जगह खड़े हुए , ऊँगली दिखते आंबेडकर जी ही दीखते है।  हमने फोटो लेने की कोशिश की , लेकिन बहुत अच्छी फोटो न ले सका।  रस्ते में  ही उग्रसेन की बावली भी देख आये  . हालाँकि कोई बहुत विशेष  बावली नहीं है, प्रेमी युगलों का मिलान स्थल ज्यादा है, लेकिन अभी हिंदी फिल्म पीके में दिखाई देने के कारण  चर्चित ज्यादा हुई।  कुछ देर बाद पदयात्रा करते कनॉट प्लेस पहुंचे। हमसे पहले ध्रुव पहुँच चूका था , लेकिन कुछ देर बाद हम पदयात्री भी पहुँच ये , वही कमल भाई ने क जगह प्रसिद्द वेज विरयानी खिलवाई।  अब ओला कैब बुक करके निकल पड़े दिल्ली की शान लाल किला को देखने के लिए ... 

लेकिन आज किस्मत पूरी तरह से रूठी हुई थी , दिवाली के दिन हमारे साथ ही ऐसा होना था।  जानने के लिए जल ही पढ़िए अगला भाग , तब तक फोटो तो देख ही लीजिये ---- 

जगमगाता नई दिल्ली रेलवे स्टेशन 

लिट्टी-चोखे का आनंद 

जहाँ चार यार मिले। 
दिल्ली की पहचान : क़ुतुब मीनार 
धातुकला का अद्भुत नमूना : लौह स्तम्भ 
अलाइ दरवाजा 

क़ुतुब मीनार परिसर में ही हिन्दू स्थापत्य कला के प्रमाण 

इसके बारे में आपका क्या विचार है ?  

ये स्पष्टतः हिन्दू स्थापत्य है।  


हवाई जहाज और क़ुतुब मीनार 
इंडिया गेट के साथ सेल्फी 
देश की सबसे बड़ी पंचायत : संसद 
कमल भाई के साथ 
नार्थ ब्लॉक : केंद्र सरकार का मंत्रालय 
इंडिया गेट की दीवाल पर लिखे शहीदों के नाम 
 महाराष्ट्र सदन के बाहर  बैठे हुए आंबेडकर जी की मूर्ति 
उग्रसेन की बावली 

orchha gatha

बेतवा की जुबानी : ओरछा की कहानी (भाग-1)

एक रात को मैं मध्य प्रदेश की गंगा कही जाने वाली पावन नदी बेतवा के तट पर ग्रेनाइट की चट्टानों पर बैठा हुआ. बेतवा की लहरों के एक तरफ महान ब...