अभी तक आप लोगो ने पढ़ा दिलवालों की दिल्ली के दर्शन (भाग -1 )
अब उसके आगे की राम कहानी सुनिए। तो ओला कैब से हम लोग लाल किला देखने पहुँच गए। कमल भाई टिकट लेने लाइन में लगे , मैं उनके पास ही खड़ा गपशप करने लगा। किले में प्रवेश करने टिकट 30 रूपये की थी, और अगर आप किले के अंदर स्थित संग्रहालय भी देखना चाहते है, तो 5 रूपये अलग से मतलब कुल 35 रूपये की टिकट हुई। अंदर के संग्रहालय के लिए अलग से टिकट नहीं मिलती। अब एक मजेदार वाक़्या हुआ। एक आदमी टिकट काउंटर पर इसी बात पर बहस कर रहा था , कि उसे सिर्फ संग्रहालय ही देखना है , इसलिए उसे पांच रूपये की टिकट दी जाये ! जबकि टिकट कर्मचारी उससे कह रहा था, कि संग्रहालय की अलग से टिकट नहीं मिलती साथ में किले की भी टिकट लेनी होगी। हम भी मजे लेकर ये ड्रामा देख रहे थे। और इसके अलावा हमारे पास कोई चारा भी नहीं था। ड्रामे के पटाक्षेप के बाद अपनी टिकट लेकर चल पड़े लाल किले की ओर। .....
बचपन में टीवी पर स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्रता दिवस की परेड में लाल किले पर तिरंगा लहराते देखते थे, तो तभी से मन में एक सपना पाल लिया था , कि हम भी एक न एक दिन इस लाल के दीदार जरूर करेंगे। वैसे इतिहास का विद्यार्थी जरूर रहा हूँ , लेकिन आज लाल किले का इतिहास लिखने का मन नहीं हो रहा है। सो अगर आपको लाल किले का इतिहास जानना है , तो हमारे मित्र प्रदीप चौहान जी की पोस्ट पर क्लिक करके पढ़ सकते है। ये किला जहाँ मुगलों की शान और शौकत का गवाह रहा है , तो इसने मुगलों के साथ ही इस देश की दुर्दशा भी देखी है। मुग़ल बादशाह मुहम्मद शाह रंगीला (1721- 1748 ) के कार्यकाल में जब ईरानी शासक नादिरशाह ने 1739 ईस्वी में दिल्ली पर हमला कर कत्ले आम किया तो कई एकड़ के हरम वाले रंगीला की रूह कांप उठी थी। और नादिर शाह अपने साथ इसी लाल किले से कोहिनूर हीरा और तख्ते ताउस ( रत्न जड़ित मयूर सिंहासन ) भी ले गया। वही एक और मुग़ल बादशाह अकबर द्वितीय (1806 -1836 ) जिनकी पेंशन अंग्रेजो ने बंद कर दी थी। लाल किले के भीतर मुगलिया सल्तनत की इतनी बुरी हालात हो गए थे , कि शाही रसोई में तीन दिन तक चूल्हा नहीं जला और शहजादियों को लाल किले के बाहर आकर खाना मांगना पड़ा। बादशाह की पेंशन की अर्जी लेकर राममोहन राय ( महान समाज सुधारक ) को राजा की पदवी देकर इंग्लैंड भेजा गया। वो अलग बात है , कि रजक राम मोहन राय जी इंग्लैंड से लौटे ही नहीं और आज उनकी कब्र इंग्लैंड में ही बनी है। इतना ही नहीं आखिरी मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फर के सामने तो अंग्रेजो ने उनके ही बेटों के सिर काट कर थाल में ही परोस दिए थे। और ज़फर को देशनिकाला देकर रंगून भेज दिया , जहाँ आज भी उस बदनसीब बादशाह की रूह अपनी वतन की मिट्टी की चाहत लेकर भटक रही है।
लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में,
किस की बनी है आलम-ए-नापायदार में।
बुलबुल को बागबां से न सैयाद से गिला,
किस्मत में कैद लिखी थी फसल-ए-बहार में।
कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें,
इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दाग़दार में।
एक शाख गुल पे बैठ के बुलबुल है शादमान,
कांटे बिछा दिए हैं दिल-ए-लाल-ए-ज़ार में।
उम्र-ए-दराज़ माँग के लाये थे चार दिन,
दो आरज़ू में कट गये, दो इन्तेज़ार में।
दिन ज़िन्दगी खत्म हुए शाम हो गई,
फैला के पांव सोएंगे कुंज-ए-मज़ार में।
कितना है बदनसीब 'ज़फर' दफ्न के लिए,
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में॥
- बहादुर शाह ज़फर
खास महल |
लाल किले में सूर्यास्त |
टिकट के लिए लगी कतार |
लाहौरी गेट के सामने |
मीना बाजार |
शानदार पच्चीकारी का नमूना |
चलिए अब इतिहास की गलियों से निकल कर वर्तमान में आते है , हमने लाल किले के लाहौरी गेट से प्रवेश किया। जबकि दूसरा गेट जो दिल्ली गेट के नाम से जाना जाता है ,उसे निकास द्वार के प्रयोग किया जाता है। किले के अंदर प्रवेश करते ही एक बाजार मिलता मिलता है। जिसे एक समय मीना बाजार के नाम से जाना जाता था। आज भी यहां रास्ते के दोनों तरफ दुकाने लगी हुई है। दुकानों से गुजर कर हम छत्ता चौक पहुंचे फिर हमे गॉइड भी मिले , तो जैसा कि पहले ही बताया , आज समय की कमी थी , क्यूंकि आज दीपावली थी, और पूजा के पहले बहन जी के यहां पहुंचना था। खैर नौबत खाने की ओर बढे , यहां कभी वादकगण वाद्ययंत्र बजाया करते थे। फिलहाल हमारे सामने ऐसी नौबत नहीं आई। आगे बढ़ने पर दीवाने आम और अन्य इमारते मिलती है। दीवाने आम का प्रयोग मुग़ल बादशाहो द्वारा आम जनता से मिलने , उनकी समस्याओं को जानने , सुनने और उनका समाधान करने के लिए होता था। शाहजहां दरबार में बैठने के लिए तख्ते ताउस नामक आलीशान सिंहासन का प्रयोग करता था। शाहजहां था , बड़ा ही शौक़ीन बादशाह उसने तख़्त में भी नगीने जड़ा रखे थे। दीवाने खास का प्रयोग खास लोगो के लिए दरबार लगता था। तो हम खास तो इतने थे नहीं , इसलिए दीवाने खास से खाकसार रुखसत हुए। इसके बाद रंग महल , मुमताज महल , खास महल देखने के बाद जल्दी से पांच रूपये वाले टिकट वाले संग्रहालय की ओर भागे। क्यूंकि बंद होने का समय होने वाला था। संग्रहालय में मुगलो के ज़माने के हथियार , पोशाक , वस्तुओं आदि रखी थी। संग्रहालय बंद करने के कारण सबको बाहर कर रहे थे, जब लोग अपने मन से नहीं निकले तो अंदर की लाइट ही बंद कर दी , अब देखो अँधेरे ! मजबूरन सबको बाहर आना पड़ा। किले के अंदर ही वॉर मेमोरियल संग्रहालय है , जिसमे भारतीय वीरों से जुडी वस्तुएं राखी है। दीपावली की छुट्टी की वजह से वो बंद था। हम जब बाहर आये तो लाल किले की प्राचीर पर शान से तिरंगा लहरा रहा था। परेड की याद आ गयी। कुछ देर निहारने के बाद कुछ फोटो खींची। और चल दिए दिल्ली गेट से किले के बाहर की ओर। दिल्ली गेट के दोनों तरह दो विशालकाय पत्थर के हाथी खड़े थे। बाहर जब सड़क पर पहुंचे तो न कोई ऑटो रिक्शा , न कोई कैब और न कोई अन्य साधन ! दीपावली की शाम होने के कारण सब जल्दी घर के लिए निकल लिए और हम फंस गए। बस स्टॉप पर गए , मगर वहां पहले से ही भीड़ खड़ी अब करे तो क्या करे ?
बहादुर शाह जफ़र की यादें |
दिल्ली दरवाजे के बाहर खड़े हाथी |
लाल किले के लाइट और साउंड शो की जानकारी |
फिर बड़ी मुश्किल से एक रिक्शा वाला मिला जो मुस्लिम होने की वजह से दीपावली के लिए घर भागने की जल्दी में नहीं था। उसने हम लोगों निकटम मेट्रो स्टेशन चांदनी चौक तक छोड़ा। और हम किसी तरह दीपावली की पूजा से पहले अपने ठिकाने पर पहुंचे। लेकिन अगले दिन कुछ ऐसी घटनाएं हमारा इंतजार कर रही थी , कि उन्हें ताउम्र भुलाया नहीं जा सकता।
लाल किले की प्राचीर के सामने |