मंगलवार, 23 जनवरी 2018

विश्वशांति स्तूप और सोनभंडार का रहस्य

पिछले भाग गया से राजगीर की राह में आपने पढ़ा कि हमारी यात्रा गया से किस तरह राजगीर के लिए शुरू हुई हम अपनी मोटरसाइकिल से राजगीर की सीमा पर स्थित प्रवेश द्वार तक पहुंच चुके थे । राजगीर यह नाम मैंने इतिहास कि किताबों में बहुत पढ़ा था । मगध राज्य के सबसे प्राचीन वंश का संस्थापक वृहद्रथ (महाभारत काल)  था , और इसकी राजधानी गिरिव्रज थी । चारों तरफ पर्वत या गिरी से घिरा होने के कारण इसका नामकरण गिरिव्रज हुआ । बृहद्रथ के पश्चात उसका पुत्र जरासंघ शासक बना । जरासंध के बारे में तो आपने कहां सुना ही होगा जरासंध की मृत्यु महाबली गदाधारी भीम के हाथों श्री कृष्ण के इशारों से हुई । जरासंध के बाद इस वैभव पूर्ण साम्राज्य के बारे में इतिहास मौन है । परंतु बौद्ध ग्रंथों के अनुसार 544 ईसा पूर्व में बिंबिसार ने हर्यक वंश की स्थापना की और मगध की गद्दी पर बैठे । बिंबिसार नहीं प्राचीन गिरी ब्रज को सुव्यवस्थित कार्यक्रम राजगृह नाम से अपनी राजधानी बनाया । बिंबिसार के समय महात्मा बुद्ध अपने धर्म का प्रचार प्रसार कर रहे थे और मगध के अंतर्गत ही बोधगया में उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई थी । अतः गौतम बुद्ध से प्रभावित होकर सम्राट बिंबिसार ने बौद्ध धर्म ग्रहण किया । बिंबिसार के दरबार में उस समय के प्रसिद्ध राजवैद्य जीवक रहा करते थे, जिन्हें बिंबिसार ने महात्मा बुद्ध की सेवा में भी भेजा था । इसके अलावा अवंती के शासक प्रद्योत के पांडु रोग से ग्रसित होने पर राजवैध जीवक ने ही उन्हें निरोगी किया । सम्राट बिंबिसार ने अंग देश (वर्तमान में बिहार का भागलपुर क्षेत्र ) के शासक ब्रम्हदत्त को हराकर उसे मगध का हिस्सा बनाया । आज इतिहास में हम देखते हैं कि मुगल काल में मुगल बादशाह अकबर ने वैवाहिक संबंधों के आधार पर अपने साम्राज्य का विस्तार किया महारानी जोधा इसका एक उदाहरण है । परंतु यह परंपरा भारतीय शासकों में बहुत पहले के समय से ही चली आ रही है । सम्राट बिंबिसार ने वैवाहिक संबंध स्थापित कर कौशल (वर्तमान पूर्वी मध्य प्रदेश) नरेश प्रसेनजित की बहन महाकौशला से वैशाली (हाजीपुर क्षेत्र) नरेश चेतक की पुत्री क्षेमा से और मद्र प्रदेश (वर्तमान पंजाब ) की राजकुमारी क्षेमा से विवाह कर अपने मगध साम्राज्य का विस्तार किया । 52 वर्षों तक बिंबिसार ने मगध साम्राज्य की उत्तरोत्तर प्रगति की लेकिन उसके ही पुत्र अजातशत्रु ने अपने पिता बिंबिसार की हत्या कर गद्दी हथियाई । अजातशत्रु जैन धर्म को मानने वाला था परंतु उसके ही शासनकाल में गौतम बुद्ध की मृत्यु हुई और मृत्यु उपरांत बौद्ध धर्म की प्रथम संगीति 483 ईसा पूर्व में राजगृह में संपन्न हुई इसके अध्यक्ष महा कश्यप को बनाया गया । इस तरह देखा जाए तो बौद्ध धर्म के लिए राजगृह यानी वर्तमान राजगीर बहुत ही महत्वपूर्ण केंद्र बन गया । बौद्ध धर्म के अलावा राजगीर में हिंदुओं, सिखों और जैनियों के भी धर्मस्थल हैं । अर्थात राजगीर सर्व धर्म समभाव वाला एक अनुपम प्राकृतिक परिदृश्य से परिपूर्ण स्थल है ।
                                              अब हम इतिहास के पन्नों से वापस वर्तमान के धरातल की ओर लौटते हैं । समय के साथ हमारी बाइक के पहिए घूम रहे थे और हम विश्व शांति स्तूप का प्रवेश द्वार को देख कर उस तरफ मुड़ गए । विश्व शांति स्तूप एक पहाड़ी के ऊपर बना हुआ है । जहां तक जाने के लिए दो मार्ग हैं एक सीढ़ियों से चढ़कर और दूसरा आकाशीय रज्जुमार्ग या रोपवे । रोपवे बिहार पर्यटन द्वारा संचालित किया जाता है और यहां पर पुरातन कालीन रोपवे के दर्शन हुए । रोपवे के दोनों का टिकट ₹80 है । जबकि एक तरफ ऊपर से नीचे उतरने का एक व्यक्ति का ₹50 टिकट है । नीचे से ऊपर जाने के लिए एक तरफ का टिकट नहीं मिलता  दोनों तरफ की टिकट लेने पड़ते हैं । अतः हम दोनों ने दोनों तरफ के टिकट लिए और लग गए रुपए की लाइन में । इससे पहले मैं मध्य प्रदेश के मैहर के शारदा माता मंदिर और भेड़ाघाट के धुआंधार जलप्रपात के रूप में में बैठ चुका था ,क्योंकि वह रोप वे चारों तरफ से बंद और आधुनिक प्रणाली के थे इसलिए उनमें कम डर लगता है । राजगीर के रोपवे की प्रणाली थोड़ी सी पुरानी है और बैठक व्यवस्था खुला है इसलिए डर होना लाजमी है । रोपवे काउंटर पर मोबाइल से सेल्फी लेना मना है का बोर्ड लगा हुआ था ।इसलिए हमने भी सेल्फी नहीं ली हालांकि वैसे भी हम सेल्फी बहुत कम लेते हैं । कुछ देर पश्चात हमारी बारी आई और हमें भी  खड़खड़ाते हुए आकाशीय रज्जुमार्ग के सिंहासन पर बैठाया गया । और हम चल पड़े विश्व शांति स्तूप को देखने पहाड़ियों के ऊपर हालांकि रुपए की खड़खड़ाहट से हमारी शांति जरूर भंग हो रही थी और नीचे खाई को देख कर सांसे अटक रही थी, मन भटक रहा था और तन लटक रहा था । हमने चलते हुए रोपवे में भी कुछ मोबाइल से फोटो निकाली जिसे ऊपर से नीचे आ रहे लोगों ने देखा आश्चर्यचकित हुए । जब एक सज्जन से रहा ना गया तो उन्होंने चिल्लाते हुए कहे दिया ' ए बाबू तनी देख के न तो मोबाइल गिर जाई ! '
                                                                                 खैर हम गृद्धकूट पर्वत के रत्नगिर शिखर पर पहुंचे जहां पर सफेद रंग का बना हुआ विश्व शांति स्तूप तेज धूप में अपनी अलग ही आभा बिखेर रहा था । एक जापानी लामा की परिकल्पना का शिलान्यास भारत के द्वितीय राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी ने 1965 में किया था, और इसका उद्घाटन 1969 में राष्ट्रपति वेंकट वराह गिरि जी ने किया था । स्तूप के ऊपर भगवान बुद्ध की प्रतिमाएं बनी हुई थी और उन प्रतिमाओं के आसपास जापानी और हिंदी में भगवान बुद्ध के वचन लिखे हुए है । स्तूप के बगल में ही एक जापानी मंदिर बना हुआ है, जिसका उद्घाटन 1978 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई द्वारा किया गया था । स्तूप के ठीक सामने एक बड़ी सी घंटी लगी हुई थी जिसके साथ लोग खड़े होकर फोटो खिंचवा रहे थे । तेज धूप होने के कारण गर्मी बहुत अधिक थी और इस वजह से हम यहां ज्यादा देर नहीं रुके और वापस आकाशीय रज्जुमार्ग से नीचे उतरे ।
                                                                       सूर्य देव चरम पर थे और अब हमें भूख भी लगने लगी थी लेकिन आस पास कोई अच्छा रेस्टोरेंट ना दिखने के कारण हम राजगीर शहर की ओर चल पड़े । राजगीर शहर में प्रवेश करने के पूर्व ही हमें सोन भंडार, जरासंध के अखाड़ा, मनियारी मठ आदि के संकेत बोर्ड देखें और हम चल पड़े सोन भंडार की ओर । सोन भंडार एक प्राकृतिक चट्टानों की गुफा थी जिसे तीसरी या चौथी सदी में जैन मुनि वीर देव ने बनवाया था । इसके बारे में जनश्रुति है कि यह सम्राट बिंबिसार का खजाना है जिसे किसी गुप्त मंत्र द्वारा सुरक्षित किया गया है और खजाने के द्वार पर यह मंत्र लिखा हुआ है । जिसे अब तक कोई पढ़ नहीं पाया । अंग्रेजों द्वारा इस खजाने को पाने के लिए तोप का भी प्रयोग किया गया लेकिन इस सोन भंडार का वे बाल भी बांका ना कर सके । अधिक गर्मी की वजह से जरासंध का अखाड़ा और ब्रिज बिहार जाने का कार्यक्रम निरस्त कर हम वापस उसी रास्ते पर लौटे और मनियारी मठ के दर्शन किए । कुए के जैसे बने इस मठ में अंदर एक देवी का स्थान बताया जाता है जो राजगीर के शासकों की कुलदेवी रही हैं । अब हम पुनः राजगीर जाने वाली मुख्य मार्ग की ओर चल पड़े ।
                                        राजगीर में प्रवेश करने के पश्चात हमने सबसे पहले गर्म पानी के कुंड देखने का मन बनाया । यहां पर सात अलग- अलग कुंड बने हुए हैं जो अलग-अलग ऋषि यों को समर्पित है सबसे बड़ा कुंड ब्रह्म कुंड है । मौसम में गर्माहट के कारण गर्म कुंड में नहाना हमें गवारा ना हुआ । परंतु आचमन अवश्य किया । गर्म कुंड मैं माननीय पटना उच्च न्यायालय द्वारा मुस्लिमों के प्रवेश पर रोक की तख्ती लगी देखकर थोड़ा सा आश्चर्य हुआ । क्योंकि मैंने अभी तक किसी अन्य धार्मिक स्थान पर दूसरे धर्म के लोगों के प्रवेश पर रोक की लगी तख्ती नहीं देखी थी वह भी किसी हाईकोर्ट के आदेश द्वारा । खैर हिंदू मुस्लिम होने की किसी भी प्रकार की जांच नहीं हो रही थी, और लोग बेरोकटोक आ जा रहे थे । गर्म कुंड के पास ही लगा ठंडे जल का मानव निर्मित तरणताल भी था । जो निजी संपत्ति लग रही थी और वहां टिकट लेकर लोग स्नान कर रहे थे । घर हमें तो अभी बड़ी जोरों से भूख लगी थी इसलिए गर्म कुंड के बाहर ही बने सरकारी रेस्टोरेंट में हम लोगों ने दो थाली ऑर्डर की । खाना साधारण ही था, लेकिन भूखे पेट तो सब अच्छा लगता है । उसके बाद हम लोगों ने वेणुवन के दर्शन किए । विष्णु शब्द का अर्थ बांस होता है अर्थात यह बांस का जंगल रहा होगा । यह गौतम बुद्ध का प्रिय स्थल रहा है और वह अक्सर अपने राजगीर प्रवास के दौरान इसी वेणुवन में रुकते थे । यहां उन्होंने कई चौमासे भी बिताए । वेणुवन के निकट ही एक थाई मंदिर बनाया गया है । गौतम बुद्ध को वन अधिक ही पसंद थे उन्हें बोधगया में जंगल में बोधि वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्ति हुई । आम्रपाली नामक उनकी प्रसिद्ध शिष्य ने उन्हें एक आम्र बन दान किया था । और अंगुलिमाल से भी वह एक वन में ही मिले थे । अब हमारी मंजिल विश्व विख्यात नालंदा विश्वविद्यालय के खंडहर थे इसलिए हमने राजगीर को छोड़ नालंदा की राह पकड़ी ।
विश्व शांति स्तूप का प्रवेश द्वार 


कृपया कतार में आये 


आकाशीय रज्जु मार्ग (रोप वे )

आकाशीय रज्जु मार्ग वाहन पर सवार हम 


शिखर पर स्तूप जाने का रास्ता 

विश्व शांति स्तूप 


हम दो हमसफर 

मनमोहक नज़ारे 


जापानी भाषा का शिलालेख 







सोनभंडार 

सोनभंडार के अंदर 




मनियर मठ 


गर्म कुंड 


सप्तकुण्ड 

मंगलवार, 16 जनवरी 2018

गया से राजगीर की राह.....

नमस्कार मित्रों,
 इस बार फिर से अपने ससुराल यानी गया से की गई यात्रा के बारे में आपको परिचित कराने जा रहा हूं जैसा की आप सभी को पता है कि मेरी पिछली यात्रा जो ससुराल से की थी, वह प्रसिद्ध दैनिक समाचार पत्र नई दुनिया में प्रकाशित हो चुकी है । आप इस लिंक पर क्लिक करके इस यात्रा को पढ़ सकते हैं। तो बात वर्ष 2017 के जून महीने की है । जब मैं अपनी पत्नी को छोड़ने गया गया । अपनी पिछली यात्राओं में मैं गया और बोधगया घूम चुका था इसलिए इस बार नालंदा और राजगीर भ्रमण का कार्यक्रम आनन-फानन में बनाया गया । और इस बार मैंने अपने साथ अपने बड़े साले ध्रुव उपाध्याय, जो कि दिल्ली में सिविल सर्विस की तैयारी कर रहे हैं को साथ लेकर उनकी बाइक से राजगीर और नालंदा नापने की तैयारी कर ली ।
                                            गया से राजगीर की दूरी गहलौर होकर 60 किलोमीटर है और उसके आगे नालंदा है । इसलिए हम लोग सुबह से ही बाइक से निकल पड़ी परंतु गया शहर में ही विष्णुपाद मंदिर के पास ही बारिश शुरू हो गई और हम लोगों को आसपास की दुकानों में शरण लेनी पड़ी । बारिश का होना हमारे लिए शुभ संकेत था क्योंकि अच्छे कार्यों में बाधा तो आती है । खैर एकाध घंटे के इंतजार के बाद बारिश थम गई और हमारी बाइक चल पड़ी । रास्ते में फल्गु नदी का पुल मिला । मोक्षदायिनी फल्गु जिसके किनारे पर लोग पितृ पक्ष में अपने पूर्वजों की मुक्ति के लिए पिंडदान करते हैं । फल्गु नदी एक बरसाती नदी है । इस में बरसात के बाद पानी ना के बराबर होता है, परंतु एक आश्चर्यजनक बात यह है कि ऊपर से सूखी देखने वाली फल्गु की रेत को जब खोदा जाता है, तो अंदर पानी अवश्य मिलता है । कहा जाता है कि माता सीता के श्राप से फल्गु का यह हाल हुआ । ऐसी जनश्रुति है कि जब भगवान राम माता सीता और भैया लक्ष्मण के साथ अपने पिता दशरथ जी का पिंडदान करने गया में आए तो माता सीता को फल्गु के तट पर छोड़कर पूजन सामग्री लेने चले गए । तभी पितर रूप में दशरथ जी आए और सीता जी से पिंड दान करने को कहा और  जल्दबाजी में सीता जी ने भगवान राम को ना आता देख कर रेत के पिंड बनाकर ही दशरथ जी को पिंडदान किए और उससे तृप्त होकर दशरथ जी मोक्ष को प्राप्त कर लिए । जब भगवान राम और लक्ष्मण पूजन सामग्री लेकर वापस लौटे तो सीता जी ने उन्हें पूरा किस्सा सुनाया । भगवान राम को इस बात पर विश्वास ही नहीं हुआ कि पिता श्री दशरथ रेत के पिंडदान से तृप्त होकर मोक्ष को प्राप्त कर गए । तब उन्होंने माता सीता से इस घटना के प्रत्यक्षदर्शियों और प्रमाण की बात कही । माता सीता ने 4 प्रत्यक्षदर्शियों को बताया । जिनमें पिंडदान कराने वाला ब्राह्मण, फल्गु नदी, पास में खड़ी गौमाता और दूब को प्रत्यक्षदर्शी बताया । दूब के अलावा ब्राह्मण फल्गु नदी और गौ माता सीता जी की बात से असहमत हुए । यह सुनकर सीता जी ने क्रोध में इन तीनों को श्राप दिया । उस पर आप के परिणाम स्वरुप ब्राह्मण चिरभिक्षुक हुए, फल्गु नदी अंतः सलिला बनी और गौ माता विस्टा खाने वाली । जबकि दूब किसी भी परिस्थिति में जीवित रहने का आशीर्वाद से लाभान्वित हुई । सूखी पड़ी फल्गु नदी में ट्रैक्टर और डंपर रेत खनन के कार्य लगे हुए थे ।                                                                 
                                                                           बारिश के बाद मौसम सुहाना हो चला था और नीलेआसमान में छोटे छोटे सफेद बादल बहुत खूबसूरत लग रहे थे । हम अपनी बाइक से मस्ती के साथ चले जा रहे थे । आगे गहलौर घाटी से गुजरे । गहलौर घाटी का नाम तो सुना ही होगा । माउंटेन मैन दशरथ मांझी ने इसी गहलौर घाटी में पहाड़ को अकेले चीरकर रास्ता बनाया । लोग कहते हैं कि भारत में प्रेम की सबसे बड़ी मिसाल शाहजहां और मुमताज के प्रेम की निशानी ताजमहल है । परंतु चौदहवी बार प्रसव पीड़ा के दर्द को झेलती हुई मुमताज मर जाती है और शाहजहां उसकी बहन से शादी कर लेता है । तो यहां कैसे सच्चा प्रेम हुआ ? मेरे विचार से तो सच्चे प्रेम की सबसे बड़ी निशानी यह गहलौर घाटी है जहां एक गरीब दशरथ मांझी अपनी पत्नी के प्रेम में पूरे पहाड़ को सिर्फ छैनी और हथोड़े से काट डालता है । इस प्रेम कहानी पर हिंदी फिल्म माउंटेन मैन भी बन चुकी है जिसमें नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने दशरथ मांझी का किरदार बहुत ही अच्छे तरीके से निभाया है । आप में से कुछ लोगों ने यह फिल्म देखी ही होगी । क्षेत्र से गुजरने पर सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है । समयाभाव में इस बार गहलोत घाटी को छोड़ कर हम प्राचीन मगध की राजधानी राजगृह की ओर चल पड़े...

अन्तः-सलिला फल्गु नदी 

और हम चल पड़े अपने दोपहिया से 

रास्ते के नजारे 




राजगीर का स्वागतद्वार 

orchha gatha

बेतवा की जुबानी : ओरछा की कहानी (भाग-1)

एक रात को मैं मध्य प्रदेश की गंगा कही जाने वाली पावन नदी बेतवा के तट पर ग्रेनाइट की चट्टानों पर बैठा हुआ. बेतवा की लहरों के एक तरफ महान ब...