शनिवार, 5 नवंबर 2016

रायप्रवीण का सौंदर्य और ओरछा की नियति (ओरछा गाथा भाग-4)

रायप्रवीन महल से चतुर्भुज मंदिर का बिहंगम दृश्य 
अभी तक आप पिछले तीन भागो में ओरछा के जन्म से लेकर उत्थान तक पढ़ चुके है । पिछले भाग में आपने मुझे कंचना के साथ रायप्रवीन महल में अंधकारमय रात्रि में विस्मित होते देखा । अब उसके आगे
               कंचना के कहने पर मैंने अपनी आँखे बंद कर ली । आँखे बंद किये हुये कुछ पल भी नही बीते पास ही पूरा प्रांगण संगीत की सुमधुर स्वर लहरियों से गूंज उठा । ढोल, तबला, सारंगी की मधुर स्वर मन को मस्त कर रहे थे । मैं भी मदहोश होकर उस मधुरिम स्वर में खो गया फिर उसकी अमृतमयी सरगम ने मुझे आँखे खोलने पर मजबूर कर दिया । जैसे ही मैने आँखे खोली तो देखता ही रह गया । सामने रायप्रवीन महल के प्रांगण  में बने चबूतरे पर मनमोहक फर्श बिछा हुआ है । सम्पूर्ण प्रांगण को धवल चांदनी से ढक दिया है । चांदनी के अंदर विभिन्न रंगो के झाड़ फानूस जगह जगह चांदनी की छत से झूल रहे है । चांदनी में लटके रंगीन झाड़ फानूसों से रंगीन प्रकाश सम्पूर्ण पंडाल और मंच को इंद्रधनुषी रंग में प्रकाशित कर रहे थे । कार्तिक अमावस्या की घनघोर अँधेरी रात में पूरा ओरछा दीप मालाओं से सजा हुआ है । मानो चांदनी धरती पर उतर आई हो । दूर से दुर्ग और महलों के परकोटे, बुर्ज पर लाखों दीपक ऐसे टिमटिमा रहे है, जैसे किसी उपवन में जुगनुओं की फ़ौज बैठी हो । दीपावली की इस रात्रि में ओरछा नरेश राजा इंद्रजीत सिंह रामराजा और लक्ष्मी पूजन के पश्चात् राज महल से सीधे अपनी प्रेयसी पत्नी रायप्रवीन के महल की ओर आने की सूचना द्वारपाल ने दी । सूचना मिलते ही रायप्रवीन महल में हलचल बढ़ गयी । तभी आकाश में आतिशबाजी होने लगी , अभी तक घने अँधेरे में गुमसुम सा बैठा आसमान किसी नवबधु की भांति खिल उठा । आकाशीय आतिशबाजी के प्रतिबिम्ब बेतवा के जल पर रोशनियों की लहरें बना रहे थे । दुंदुभी की आवाज़ से रायप्रवीन महल में महाराज जू का स्वागत हुआ । द्वार पर रायप्रवीन की खास सखी और दासी महुआ ने महाराज जू को कुमकुम और हल्दी-चावल माथे पर लगाकर स्वागत किया । महाराज जू अपने विशिष्ट आसन पर विराजे । वादक गणों को छोड़ कर अन्य सभी लोग वहां से हट गए ।  सुरक्षा प्रहरी महल के चारो तरफ फ़ैल गए । पूरा माहौल सुगन्धित इत्र से महक रहा था ।
     छन छन ....छन की आवाज़ ने वातावरण में मधुरता घोली । महल के अंदर से महाराज जू की ह्रदय सम्राज्ञी रूप सुंदरी रायप्रवीन का आगमन हुआ । आज दीपावली के विशेष श्रृंगार ने रायप्रवीन के सौंदर्य  को चार चाँद लगा दिए । रायप्रवीन के कमर की स्वर्ण करधनी एवं पैरों का नुपुर रुन-झुन की सुमधुर ध्वनि पैदा कर रहे थे । स्वर्ण तारों और सितारों के साथ मोतियों से टँकी बनारसी सिल्क की रानी रंग का लहंगा, चुनरी एवं चोली में वह स्वर्ग की अप्सरा लग रही थी । रायप्रवीन के नाक में नगीनों जड़ा नकमोती एवं मारवाड़ी नथिया , कानों में हीरे-मोतियों की जड़ाऊ झुमकी, हाथों की कलाइयों में रत्न जड़ित कंगन रायप्रवीन के अनुपम यौवन को अत्यधिक मादक बना रहे थे । पैरों में गाढ़ा महावर, हाथों में गाढ़ी मेहंदी उसके अनिंध यौवन को आकर्षक एवं दैवीय रूप प्रदान कर रही थी ।उसके ललाट पर लटक रहे हीरा-मोती जड़ा मांग टीका जिससे जल रहे दीपों का प्रकाश इंद्रधनुषी प्रकाश उत्पन्न कर रहा था । रायप्रवीन उद्दाम यौवन का मद बिखेरते हुए सधे कदमों से चल रही थी । उसके गदराये बदन के सुगंध से सम्पूर्ण वातावरण सुगन्धित हो उठा था । उसकी गजगामिनी चाल लोचदार कटिबन्ध उसे कामदेव की रति का रूप प्रदान कर रही थी । उसका गौरांग शरीर अमावस्या की अँधेरी रात्रि में चमक रहा था । रायप्रवीन के नितम्ब पर झूलते लंबे बालों की बेणी काली नागिन का आभास दे रही थी ।
                   रायपरवींन  ने घूँघट में रहते हुए श्रीरामराजा , भगवान जुगल किशोर, भगवान चतुर्भुज और बुंदेला वंश की कुलदेवी मन विंध्यवासिनी के मंदिर की दिशा में उन्मुख होकर सिर झुकाकर करबद्ध प्रणाम किया । घूमकर अपने पूज्य गुरुदेव हिंदी साहित्य के प्रथम आचाय केशवदास को प्रणाम करने के पश्चात् अपने प्रिय महाराजा इंद्रजीत जू को करबद्ध प्रणाम किया । महाराजा जू उसके सम्मोहक सौंदर्य के मायाजाल में उलझकर एकटक देख रहे थे । रायप्रवीन ने अपना मनमोहक नृत्य से न केवल महाराज जू को प्रसन्न किया, बल्कि उपस्थित चराचर जीव भी मुग्ध हो गए ।
                अभी तल्लीनता से नृत्य के मोहपाश में बंधा ही था , कि कंचना की आवाज़ ने मेरी तन्द्रा को भंग किया । अरे ! मेरी आँखों के सामने तो बस कंचना ही है, कहाँ गया वो वैभवपूर्ण महल, वो मनोरम दृश्य, वो रायप्रवीन का नृत्य , वो महाराजा जू ! सब यकायक गायब ! कंचना ने अपनी आवाज़ में विनम्रता लाते हुए कहा - हे पथिक ! अब स्वप्न के संसार से यथार्थ के धरातल पर आ जाओ । अब तुम रायप्रवीन के काल में नही हो । तुम वर्तमान में हो । ये तो माँ वेत्रवती की तुम पर विशेष कृपा थी, जो रायप्रवीन से साक्षात्कार हो सका ।
मैं किंकर्तव्यविमूढ़ बैठा, सोच ही नही पा रहा था , कि किसे सत्य मानू ? जो अभी कुछ पल पूर्व जो मैं देख रहा था , या जो अभी देख रहा हूँ । मेरा तन भले ही वर्तमान में उपस्थित है, परंतु मन तो वही रह गया । तभी पृष्टभूमि में माँ बेतवा की लहरों ने गर्जना की । एक ठंडी हवा का झोंका पूर्व दिशा की ओर से आया , और मुझे वर्तमान में ले आया । अब रायप्रवीन के बारे में मेरी उत्सुकता बढ़ती जा रही थी । मैंने कंचना की ओर हाथ जोड़कर विनय पूर्वक रायप्रवीन के बारे में बताने का निवेदन किया ।
                     कंचना ने एक साँस भरी और बोली - हे पथिक ! तुम रायप्रवीन के सौंदर्य से परिचित तो हो चुके ही । तो सुनो रायप्रवीन की कहानी । जब ओरछा में महराज मधुकरशाह का शासन था, तो अपने एक पुत्र इंद्रजीत को महाराज जू ने कछौआ ( वर्तमान शिवपुरी जिले में ) का जागीरदार बना दिया ।वही माधव नाम का एक लुहार हथियार बनाता था । उसी की पुत्री सावित्री जिसे घर में पूनिया कहते थे, उसके सौंदर्य पर इंद्रजीत सिंह रीझ गए । जब महाराज मधुकरशाह की मृत्यु हुई तो इंद्रजीत ओरछा राजगद्दी के उत्तराधिकारी बने , फिर उन्होंने माधव लुहार को भी ओरछा ही बुला लिया । तभी एक दुर्घटना में माधव की मृत्यु हो गयी । महाराज इंद्रजीत सिंह ने माधव की विधवा सत्या और पुत्री सावित्री की विशेष व्यवस्था की । सावित्री ओरछा राज्य के कुलगुरु और हिंदी साहित्य के प्रथम आचार्य कवि पंडित केशवदास के संरक्षण में शिक्षा-दीक्षा पाने लगी । सावित्री के अनुपम सौंदर्य के कारण दरबार के कई लोग की निगाहे सावित्री पर रही , अतः आचार्य केशवदास ने सावित्री को नृत्य, संगीत और काव्य के साथ ही शस्त्र चलाना भी सिखाया । सावित्री की हर विद्या में प्रवीणता को देखकर महाराज जू ने उसे रायप्रवीन की उपाधि दी । रायप्रवीन के मोहपाश में बंधे महाराज इंद्रजीत सिंह ने आखिरकार अपनी प्रेयसी को विवाह कर पत्नी के रूप में स्वीकार कर लिया । और ओरछा के राजमहल के निकट ही रायप्रवीन महल बनाकर प्रेयसी पत्नी को उपहार दिया । जो आज भी है । महाराज जू के रायप्रवीन के प्रेमपाश में जकड़े रहने के कारण राजकाज की व्यवस्थाएं शिथिल हो गयी । ओरछा की महारानी जू के लिए ये सौतन मुसीबत बन गयी । अतः रायप्रवीन को ओरछा से अलग करने के लिए षणयंत्र रचे गए । उसी के अंतर्गत तत्कालीन अय्याश मुग़ल बादशाह अकबर को रायप्रवीन के सौंदर्य का बखान कर पत्र लिखे गए और गुप्त सन्देश वाहक भेजे गए ।अंततः विरोधियों की चालें कामयाब रही । अकबर ने ओरछा के महाराज इंद्रजीत को फरमान भेजा कि रायप्रवीन को जल्द से जल्द आगरा दरबार में हाजिर किया जाये  । महाराज जू बड़े धर्मसंकट में फंस गए ।  आखिरकार अकबर से दुश्मनी न लेनी पड़े और ओरछा असमय ही कोई संकट में न फंसे इसलिये महाराज इंद्रजीत सिंह ने बुझे मन से रायप्रवीन को आगरा दरबार में भेज दिया । रायप्रवीन के साथ कवि केशवदास भी गए ।
                   आगरा में बादशाहे हिन्द का दरबार प्रतिदिन के नियत समय से पूर्व ही लग गया । चोकीदार ने घण्टा पर ज़ोरदार प्रहार किया , और तेज आवाज़ में चिल्लाया -
बाअदब , बामुलाहिजा, होशियार,जिल्लेइलाही, हजरत मुगले आजम, शहंशाहे हिन्द जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर तशरीफ़ ला रहे है .....।
       दरबार में शांति छा गयी । दरबार में हाजिर सभी दरबारी बारी बारी से बादशाह को झुककर सलाम कर रहे थे ।
           अकबर के नवरत्नों में से एक अब्दुर्रहीम खानखाना जो कि हिंदी प्रसिद्ध कवि भी थे, ने अपने स्थान से उठकर महाकवि केशवदास और उनकी शिष्या रायप्रवीन का परिचय दिया । केशवदास जी और रायप्रवीन ने बादशाह अकबर को हाथ जोड़कर प्रणाम किया ।
अकबर दोनों का प्रणाम स्वीकार कर हाथ उठाकर अभिवादन किया । और केशवदास जी से पूछा - आजकल आप क्या लिख रहे है ?
केशवदास- हुजूर, मेरी दो रचनायें पूर्ण हो गयी है, जिनमे एक महाकाव्य रसिकप्रिया है । मेरी दूसरी रचना शिक्षा का काव्य कविप्रिया कुछ दिन पूर्व ही पूर्ण हुआ है ।
- आप अपनी रचनाओं में से कुछ सुनायें ।
अकबर के शाबाशी देने पर महाकवि ने अकबर को वृद्धावस्था में कामातुर होने की स्थिति के अनुसार सवैया सुनाया -
हाथी न साथी न घोरे चेरे न गांव न ठाँव को नाम विलैहें ।
तात न मात न मित्र न पुत्र व् वित्त अंगहु संग न रैहैं ।
केशव नाम को राम विसारत और निकाम न कामहि अइहें ।
चेत रे चेत अजौं चित्त अंतर अन्तक लोक अकेले हि जैहें ।
रहीम द्वारा सवैया का अर्थ समझाने पर अकबर लज्जित हो गया । अपनी झेंप मिटाने के लिए आदेश दिया-
महाकवि केशवदास की शिष्या ओरछा की नर्तकी रायप्रवीन अपनी कवित्त रचना पेश करे ।
रायप्रवीन पर्दा हटाकर दरबार के मध्य में अर्ध घूँघट में आकर खड़ी हो गयी। उसी स्थिति में घूमकर सभी दरबारियों का अभिवादन किया । दरबारी उसके नैसर्गिक सौंदर्य को देखकर मंत्रमुग्ध हो गए ।
रायप्रवीन ने अपना कवित्त सुनना आरम्भ किया -
स्वर्ण ग्राहक तीन, कवि, विभिचारि, चोर
पगु न धरात, संसय करत तनक न चाहत शोर ।
पेड़ बड़ौ छाया घनी, जगत केरे विश्राम
ऐसे तरुवर के तरे मोय सतावै घाम ।
कहाँ दोष करतार को, कूर्म कुटिल गहै बांह
कर्महीन किलपत फिरहिं कल्पवृक्ष की छाँह ।
      वाह-वाह ओरछा की शायरा नर्तकी । तुम मेरे हरम की नायाब नगीना बन जाओ । तुम्हे ओरछा से हजार गुना सुख-सुविधा मिलेगी ।
- जिल्ले इलाही मेरे विनम्र निवेदन को सुनने की कृपा करे ।
हाँ , हाँ सुनाओ
- विनती रायप्रवीन की सुनिए साहि सुजान,
  जूठी पातर भखत है वारी वायस स्वान ।
कवित्त सुनते ही अकबर का चेहरा तमतमा गया । परंतु अपना क्रोध पीते हुए अकबर ने घोषणा की -
ओरछा की नर्तकी को मुक्त किया जाता है । वह अपनी मर्जी से जब तक चाहे आगरा में रुक सकती है । जब भी मर्जी ओरछा जा सकती है । उपहारों से नवाजकर इसकी विदाई की जाये ।
    इस तरह से रायप्रवीन ने न केवल अपनी बल्कि ओरछा की इज्जत बचा ली । यह कह कर कंचना चुप हो गयी । मैंने अँधेरे में ध्यान से देखा तो वहां कोई नही था । मैं समझ गया ... चल पड़ा माँ बेतवा के आँचल की ओर ओरछा के नए रहस्य को जानने ...क्रमशः जारी
( इस भाग में कुछ तथ्य व वाक्य श्री शरत सोनकर जी के उपन्यास रायप्रवीण ..ओरछा की जन नायिका से साभार लिए गए है ।)
रायप्रवीन महल से दिखता जहागीर महल ।

orchha gatha

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