शनिवार, 7 अक्तूबर 2017

वीर सिंह ने दोस्ती निभाने के लिए किया अबुल फज़ल का क़त्ल (ओरछा गाथा -5 )

माँ बेतवा से साक्षात्कार 
नमस्कार मित्रों ,
अभी तक आपने मेरे द्वारा लिखी गयी ओरछा गाथा के सभी भाग उम्मीद  से अधिक न केवल पसंद किये बल्कि इतना प्रोत्साहित किया कि मैं इस गाथा को इस मुकाम तक ला पाया।  मेरी यह ओरछा गाथा मेरे ब्लॉग की सबसे लोकप्रिय पोस्ट साबित हुई।  रामराजा सरकार और माँ  बेतवा की असीम कृपा सदैव साथ रही।  अभी तक के भागों में आपने माँ बेतवा की जुबानी से बुन्देलाओं का जन्म , बुंदेलखंड की स्थापना , प्रथम राजधानी गढ़कुंडार से लेकर द्वितीय राजधानी ओरछा की स्थापना , ओरछा में अयोध्या से रामराजा का आगमन , रायप्रवीण को अकबर को झुकाना आदि कहानी सुनी अब उससे आगे...... 

बहुत दिनों के बाद आज फुरसत में माँ बेतवा से मिलने का मौका मिला।  कुछ विभागीय व्यस्तता रही तो कुछ अपना आलसी स्वाभाव  भी रहा।  खैर माँ से बेटा कब तक दूर रहता।  माँ की पुकार पर आखिरकार समय निकाल ही लिया।  चांदनी रात में चंदा  मामा ऊपर आसमान में मुस्कुराते से अपनी चंद्र किरणों को माँ बेतवा के लहराते आँचल पर बिखेर रहे थे।  इधर जमीन पर हम ग्रेनाइट की चट्टानों बैठे हुए माँ से संवाद की प्रतीक्षा में लहराती -बल खाती चट्टानों से टकराती बाल-सुलभ चंचलता वाली लहरों के सौन्दर्य में खोये थे।  अभी तक माँ बेतवा ने मुझे ओरछा के उत्थान से लेकर रामराजा के अयोध्या से ओरछा आने की कथा , रायप्रवीण की सौंदर्य और प्रवीणता की कहानी सुनाई थी।  मैं अपने भाग्य पर इठला रहा था  कि मध्य प्रदेश की गंगा कही जाने वाली पूण्य सलिला माँ वेत्रवती (बेतवा ) ने मुझे ओरछा-गाथा सुनाने के लिए चुना।  और इसी ओरछा गाथा की वजह से देश के लगभग 14 राज्यों के घुमक्कडों का महामिलन भी बेतवा तट पर करने और मेजबान बनने का सुअवसर मिला। इस ओरछा गाथा ने न केवल ओरछा को सोशल मीडिया पर चर्चित किया  बल्कि मुझ जैसे यदा-कदा  ब्लॉगर को स्तरीय ब्लॉगर बनने की प्रेरणा मिली।  इसी ओरछा गाथा की वजह से बड़े घुमक्कड़ और ब्लॉगर जगत में मुझ नाचीज ओ एक पहचान मिली।  कुछ मित्रों का कहना है, कि मेरी वजह से ओरछा का नाम हुआ , मगर असलियत में ओरछा गाथा से मुझे पहचान मिली।  चाँदनी रात में ठंडी-ठंडी हवाओं में मैं इन्ही विचारों में खोया हुआ था , मेरे बांये और से एक लहर उठी और मेरे सर के ऊपर से इस तरह से निकल गयी जैसे कोई माँ अपने बच्चे के सर के ऊपर दुलार से हाथ फेर रही हो।  इस जाने-पहचाने अहसास से मेरे ह्रदय के अंतिम छोर तक प्रफुल्लता समा गयी। माँ बेतवा अपनी ममतामयी आवाज़ में बोली - पुत्र ! तुम्हारा बहुत दिनों बाद आगमन हुआ , फिर भी स्वागत है ! और कैसे हो वत्स ?
माँ की आवाज़ से ही कानों में मिसरी सी घुल गयी थी।  मैंने माँ बेतवा के जल को स्पर्श कर आशीर्वाद लिया  और अपना कुशल मंगल सुनाया।  और अधूरी पड़ी ओरछा गाथा को आगे बढ़ाने का निवेदन किया।
माँ बेतवा - पुत्र ! पिछली बार हमने रायप्रवीण की प्रवीणता के आगे मुग़ल बादशाह अकबर को झुकते देखा था।  अब कहानी मुग़ल काल में आगे बढ़ेगी।  जैसा कि पिछली बार देखा था, भले ही अकबर ने अपने साम्राज्य का विस्तार नर्मदा के आगे दक्कन तक कर लिया था , मगर बुंदेलखंड अभी भी बुन्देलाओं की जागीर था।  महाराज मधुकर शाह के सुपुत्र वीरसिंह बुंदेला वर्तमान दतिया (म प्र)  के  पास बड़ौनी जागीर के जागीरदार थे।  आगरा  में मुगले  आज़म जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर को गद्दी  पर बैठे हुए काफी वक़्त हो चुका था , उसके बेटों में गद्दी के लिए बेकरारी बढ़ने लगी।  सबसे बड़े बेटे सलीम ने तो अपने वालिद बादशाह अकबर के खिलाफ बगावत का बिगुल फूंक  दिया।  अकबर  इलाहाबाद के किले में छिपे अपने अपने बेटे सलीम को सबक सिखाने के लिए अपने सेनापति और मशहूर साहित्यकार (आईने अकबरी और अकबरनामा का का लेखक ) और अकबर के नवरत्नों  में से एक अबुल फज़ल के नेतृत्व में बड़ी सेना भेजी।  ये खबर वीरसिंह बुंदेला को  पता  चल  गयी।  और वीर सिंह बुंदेला ने अपने मंत्री और सलाहकार चंपतराय से सलाह ली और इसे एक बेहतरीन मौका मानते हुए ग्वालियर के पास आतरी गांव में अबुल फजल की हत्या कर दी और उसका सिर इलाहाबाद के किले में शहजादे सलीम के सामने अपनी दोस्ती के तोहफे के रुप में किया । शहजादा सलीम वीर सिंह जूदेव के इस कारनामे से बहुत ही खुश हुए और उन्होंने बीर सिंह को अपना दोस्त बनाया । इस तरह बुंदेलों और मुगलों के बीच दोस्ती का एक नया रिश्ता कायम हुआ ।
                                                    आगे चलकर अकबर की मृत्यु के बाद जब शहजादा सलीम  हिंदुस्तान की गद्दी पर मुगल बादशाह के रूप में जहांगीर नाम से बैठे, तो उन्होंने इस दोस्ती को और मजबूत किया और वीर से को ओरछा का राजा घोषित किया । एक बार  जहांगीर  अपने दक्षिण अभियान  से  लौटते समय  वीर सिंह जूदेव  के  अनुरोध पर ओरछा में एक  विशेष महल में ठहरे । इस महल का निर्माण बुंदेला स्थापत्य और मुगल स्थापत्य के सुंदर संयोजन के साथ किया गया पूरे देश में इस तरह के हिंदू और मुस्लिम मिश्रित स्थापत्य के कॉल 127 इमारते हैं, जिनमें वीर सिंह बुंदेला द्वारा बनवाया गया यह जहांगीर महल अपना एक विशिष्ट स्थान रखता है । जहांगीर महल जहां पत्थर पर की गई अद्भुत नक्काशी के लिए प्रसिद्ध है, वही इसकी पत्थर की सुंदर जालियां भी देशी और विदेशी पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करती हैं । वीर सिंह जूदेव ने जहांगीर महल की दूसरी तरफ ठीक ओरछा के दूसरे छोर पर एक पहाड़ी के ऊपर लक्ष्मी नारायण मंदिर का निर्माण कराया जिसका स्थापत्य अपने आप में अनूठा है. इस मंदिर को लक्ष्मी के वाहन उल्लू की आकृति में पंख फैलाए हुए बनाया गया ,इसके मुख्य द्वार के ऊपर चोंच द्वारा यह स्पष्ट परिलक्षित होता है । सामने से देखने पर यह मंदिर त्रिभुजाकार नजर आता है परंतु वास्तव में यह चतुर्भुज आकार में है और प्रत्येक भुजा की शिखर पर सहस्त्रदल अंकन है । वर्तमान में यह मंदिर अपनी चित्रकारी के लिए प्रसिद्ध है । वीर सिंह जूदेव के परवर्ती शासकों ने इस मंदिर की दीवारों पर अद्भुत चित्रकारी करवाई जिनमें रामायण,महाभारत के अलावा लोकजीवन, सैन्य जीवन और युद्धों का बड़ा ही मनोहारी चित्रांकन है ।
            वीर सिंह जूदेव बुंदेला साम्राज्य के सभी शासकों में ना केवल सबसे ज्यादा प्रसिद्ध थे , बल्कि योग्य शासक भी थे । वीर सिंह जूदेव ने ओरछा के साथ साथ आसपास के इलाकों में कई महल और किले बनवाएं । वीर सिंह जू देव के समय में बुंदेला स्थापत्य मुस्लिम स्थापत्य के सुंदर संयोजन के साथ और निखरकर सामने आया । बीर सिंह ने ओरछा का किला, झांसी का किला, दतिया का किला दतिया में वीर सिंह महल, धामोनी का किला और आसपास की कई सुंदर इमारतें बनवाई ।
मां बेतवा के मुंह से मैं बड़े ही इत्मीनान से ओरछा के राजा वीर सिंह जूदेव के बारे में सुन रहा था , पर झांसी के किले का नाम सुनकर मेरे कान खड़े हुए और अपनी जिज्ञासा को शांत करने के लिए मैंने मां बेतवा से प्रश्न पूछा कि मैं झांसी का किला तो झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के लिए प्रसिद्ध है तो मेरे ख्याल से तो इसे मराठों ने बनवाया होगा ?
मां वेत्रवती मेरी अज्ञानता पर हल्की सी मुस्कुराई जिसका बताओ मुझे लहरों में हुई हलचल से पता चला ।
 मां बोली- पुत्र मराठे बाद में आये । झांसी शहर की स्थापना भी बुंदेलों द्वारा कराई गई और झांसी का किला भी  वीर सिंह जूदेव द्वारा बनवाया गया । अभी कुछ समय पहले एक फिल्म आई थी बाजीराव मस्तानी शायद तुमने भी देखी होगी ।
मां वेत्रवती के मुंह से फिल्म का नाम सुनकर मुझे थोड़ी सी हैरानी हुई परंतु अभी मेरा ध्यान अपनी जिज्ञासा को शांत करने में था, इसलिए मैंने सिर्फ हामी मैं सिर हिलाया। मां आगे बोली इस फिल्म में दिखाया गया कि वीर छत्रसाल जब बुजुर्ग हो गए और उन पर मुगलों ने आक्रमण किया तब उन्होंने बाजीराव पेशवा की सहायता ली और विजय उपरांत उन्हें  बुंदेलखंड का कुछ  क्षेत्र भी 1728 में मराठों को दिया तबसे मराठे  बुंदेलखंड में अंग्रेजों के आने तक राज करते रहे ।
मां के उत्तर से मैं संतुष्ट तो हो गया परंतु बुंदेलों और मराठाओं को छोड़कर मेरे मन में बाजीराव मस्तानी फिल्म की बात घुमने लगी कि आखिर मां वेत्रवती को इस फिल्म की जानकारी कैसे है ?
जब रहा न गया तो मैंने मां बेतवा से आखिरकार पूछी लिया कि माते आपको फिल्मों के बारे में जानकारी कैसे ?
मेरे इस प्रश्न पर मां बेतवा ने अट्टहास किया जिसकी गर्जना मुझे लहरों के साथ सुनाई दी । मां बोली पुत्र तुम मुझसे सदियों पुरानी कहानी सुन रहे हो ,जब मैं इतिहास से परिचित हूं तो क्या वर्तमान से अनभिज्ञ होउंगी ? ना तो मैं फिल्म देखने जाती हूं और ना ही किसी से कुछ पूछने जाती  हूं , मेरे किनारे जो मुसाफिर आते हैं ,  सदियों से उनके ही द्वारा मुझे इतिहास वर्तमान और भविष्य का ज्ञान होता रहता है । हां तुम जैसा जिज्ञासु बहुत कम आता है कि जो मुझसे प्रश्न पूछता है ! वरना मैं तो बस लोगों की सुनती रहती हूं और बहती रहती हूं । चलो तो फिर हम इतिहास के अनंत सागर में फिर से गोता लगाते हैं । वीर सिंह जूदेव बुंदेला साम्राज्य का ना केवल विस्तार कर रहे थे, बल्कि बुंदेला साम्राज्य का समग्र विकास भी कर रहे थे । उनके राज्य में प्रजा भी बहुत सुखी और संपन्न । वीर सिंह जूदेव के बारे में इतना सुनकर मुझे भी बड़ा अच्छा लगा  । चलिए जिन्हें इतिहासकारों द्वारा भुला दिया गया ऐसे प्रजावत्सल शासकों के बारे में तो पता चला । मैंने मां बेतवा से राजा वीर सिंह जूदेव की प्रजावत्सलता की कोई घटना सुनाने का आग्रह किया ।
मेरा आग्रह सुनकर मां बेतवा फिर से अतीत की गहराइयों में गोता लगाने चली गई और काफी देर तक लहरों में कोई हलचल नहीं हुई,आकाश में टिमटिमाते तारे स्थिर जल में इस तरह प्रतीत हो रहे थे , कि मानो आज सारी आकाशगंगा के तारे बेतवा स्नान करने बेतवा के जल में एक साथ उतर आए हो !
अचानक मां बेतवा का स्थिर जल  हिलोरे लेने लगा और एक लहर मेरे समीप से इस तरह से गुजरी जैसे मां ने अपने बच्चों के गालों को वात्सल्य भाव से सहलाया हो ।
मां बेतवा बोली पुत्र राजा वीर सिंह जूदेव का एक पुत्र बाघबहादुर  एक दिन जंगल में शिकार खेलने गया और एक हिरण का पीछा करते करते वह काफी दूर निकल गया और हिरन उसकी आंखों से ओझल हो गया । तभी राजपुत्र ने देखा कि एक योगी इस घने जंगल में तपस्यारत हैं, तो उसने सोचा अवश्य ही इन्होंने मेरे शिकार को भागते हुए देखा होगा । अतः योगी के समीप पहुंचकर राजपुत्र बाघबहादुर  ने योगी से अपने शिकार के बारे में पूछा । परंतु योगी मौन व्रत किए हुए थे, इसलिए उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया । दिन भर से भूखे-प्यासे शिकार के पीछे भागते हुए राजपुत्र बाघबहादुर  बुरी तरह से थक चुका था अतः योगी द्वारा कोई उत्तर ना दिए जाने पर वह क्रोधित हो गया और उसने अपने शिकारी कुत्तों को योगी पर छोड़ देने का आदेश दिया । आदेश का पालन होते ही शिकारी कुत्ते तपस्यारत योगी पर झपट पड़े और कुछ ही देर में योगी का निधन हो गया । जब यह बात वीर सिंह जूदेव तक पहुंची तो उन्होंने दूसरे दिन भरे राजदरबार में सबके सामने अपने पुत्र बाघबहादुर के इस अक्षम्य अपराध की सजा सुनाते हुए कहा कि इस दुष्ट ने जिस तरह इन भूखे कुत्तों को उन आदरणीय योगी के ऊपर छोड़ा उसी तरह  बाघबहादुर जीरों में बांधकर इन भूखे शिकारी कुत्तों के सामने डाल दिया जाए । तो पुत्र आज जहां वर्तमान शासक पुत्र मोह में देश की दुर्गति कर रहे हैं, वही वीर सिंह जूदेव न्याय का एक अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत करते हुए अपने स्वयं के पुत्र को मृत्युदंड दिया ।
इतना कहकर माँ बेतवा शांत हो गयी ,उनकी लहरें अब पहले की तरह मचल नहीं रही थी ! लेकिन अभी तक अपने अनुभव से मैं इतना तो समझ ही गया था , कि ये शांति सिर्फ ऊपर ही ऊपर की है।  अंदर घनघोर मंथन चल रहा होगा , या माँ अपनी यादों के भंवर से कोई अद्भुत रहस्य निकालने गयी होंगी।  जब तक पुनः अपने साथ फिर किसी कहानी को लेकर नहीं आती , आप भी मेरी तरह प्रतीक्षा कीजिये न जाने क्या  मिल जाये ....... 
पावन माँ वेत्रवती गंगा (बेतवा)
बेतवा की एक शाम 
वीरसिंह जूदेव और जहांगीर की दोस्ती की मिसाल जहांगीर महल 
बेतवा तट पर बनी वीरसिंह जूदेव की छतरी (समाधि )
जहांगीर महल का भव्य द्वार 

34 टिप्‍पणियां:

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    1. आभार तो आपका आदरणीय । आपका प्रोत्साहन भी शामिल है, इसमें । जय हो।
      इसी तरह स्नेह बनाये रखियेगा ।

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  2. आप से बढ़िया बेतवा को ओरछा को किसने जाना है।
    पोस्ट डायरेक्टली फ्रॉम द हॉर्सेज माउथ।

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    1. मुझसे बढ़िया जिसने जाना उसी माँ बेतवा से तो हमने ओरछा की कहानी सुनी है । स्नेह बनाये रखिये ।

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  3. ऐतिहासिक सीरीज का दूसरा भाग और जोरदार होना चाहिए था कुछ तो कमी लगी इसमे मुझे जो पहले भाग की तरह बांधे नही रखती है और वर्तनी में त्रुटि है

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    1. विनोद भाई , आभार ! कृपया वर्तनी त्रुटि भी बताने का कष्ट करें, ताकि उसमे सुधार किया जा सके । अगले भाग में प्रयास करूंगा कि कथा आपको बांधे रखे ।

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  4. बघबहादुर के मृत्युदंड वाली बात बहुत अच्छा एहसास करा गयी...अच्छा लगा फिर से बेतवा गाथा के आगे के भाग पढ़ कर...बहुत बढ़िया पोस्ट चन्दन जी

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    1. आज भी इतिहास में कई ऐसे चरित्र है, जिन्हें हम आप नही जानते जबकि मुगलों-अंग्रेजो से कहीं ऊपर थे । अब माँ बेतवा कहानी सुना रही तो अच्छा लगना ही था ।

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  5. माँ बेतवा और आपको आभार ,जिनके कारण इतिहास के अनदेखे पहलू को जानने का मौका मिलता है ।

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  6. पढना शुरू करते ही महाभारत के सूत्रधार "समय" की याद आ जाती है. सचमुच ऐसा प्रतीत होता है मानों साक्षात् माँ ने आपको सारी गाथा साक्षात् सुनाई और आपने हमें....
    आभार पाण्डेय जी बड़ा ही जिवंत वर्णन....

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    1. यहां भी समय की तरह माँ बेतवा ने भी सूत्रधार की भूमिका निभाई । कभी फिल्मांकन का मौका मिला तो माँ बेतवा को भी समय की तरह प्रस्तुत करेंगे । आभार

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  7. ओरछा का इतिहास आपके द्वारा दिखाया व बताया गया था।
    आज उसे आपके लेखन के जरिए उसका पुनः स्मरण हो गया।

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    1. उस समय किया गया वादा अभी भी पूरा होने की प्रतीक्षा में है । आभार

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  8. वाह...प्रभु आखिर इंतजार की घड़ियां खत्म हो ही गयीं।

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  9. वाह बहुत ही अच्छा और सुंदर विवरण। अब आपके लिखे पर मैं क्या टिप्प्णी करूं यही सोच कर पढ़ने के 7 घंटे बाद भी मैं एक टिप्पणी के लिए शब्दों का इंतजाम नहीं कर सका।
    आरंभ से, ठीक कहा आपने बेटा मां से ज्यादा दूर नहीं रह सकता। बहुत अच्छा लगा पढ़कर नदी मां और चंदा मामा। कितना सुनहरा पल होगा वो जब सारे घुमक्कड़ बेतवा के किनारे पर एक साथ मिले होंगे। जी जरूर आपकी वजह से ओरछा का नाम तो जरूर हुआ, जब इतने सारे घुमक्कड़ एक जगह इकट्टा हुए होंगे और सब अपनी नजर से एक ही जगह के बारे में लिखे होंगे तो हजारों लोग उस बेतवा को एक साथ जान गए। आपका यह आलेख बेतवा और ओरछा की पूरी ऐतिहासिकता को समेटे हुए है, इससे ज्यादा हम कुछ नहीं पाएंगे। क्योंकि इससे ज्यादा लिखना सूरज को दीपक दिखाने जैसा होगा। आभार जल्दी ही अगली कड़ी लिखिएगा। इंतजार में........

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    1. कुछ न कहके भी बहुत कुछ कह गए । सब रामराजा और माँ बेतवा की कृपा है ।

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  10. भाई जी बहुत सुंदर ।
    एक नई तरह की रचना पढ़ करके मन प्रफुल्लित हो गया। इसको अपनी व्यस्तताओं से समय निकाल कर आगे बढ़ाते रहें।
    पुनः आभार इतिहास में मेरी बहुत ज्यादा रुचि नहीं है लेकिन इसको पढ़ करके कहीं से ऐसा नहीं लगा कि हम उस युग में नहीं जी रहे हैं।

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    1. इसे इतिहास की तरह लिखा ही नही । ये बस माँ-बेटे का संवाद है ।

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  11. बहुत बढ़िया विवरण पांडेय जी ।

    ओरछा के इतिहास की आपको विधिवत जानकारी है और उसका लाभ हमे आपके ज्ञान से हो रहा है।

    चित्र खूबसूरत आये है , क्या नए कैमरे की कारिगुजारी है ये ?

    धन्यवाद

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    1. नही ये चित्र तो पुराने ही है । शायद अगले भाग में नए कैमरे की कारगुजारियां देखने मिले ।
      आभार
      सब रामराजा और माँ बेतवा की कृपा है ।

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  12. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, जाने भी दो यारो ... “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  13. पता नही मेरा झाँसी का बचपन कभी लौट पायेगा कि नही।

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    1. बचपन और जवानी कभी लौटकर नही आते और बुढापा कभी आकर नही जाता ।

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  14. Bilkul sahj bhaw se itni sundar or manohari kahani ithas ko padhkar farb hota h or bundelkhand k ithas ja pata chlta h .Dhany h aap bhajwan Ramraja ji aap ko prerda de.jay Raja Ram ji ki

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  15. सर इंतजार नहीं हो पा रहा अगले भाग का. जल्द ही माँ बेतवा के पास आप जाएँ और हमारे लिए फिर कोई ज्ञानवर्धक कहानी लेकर आएँ

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  16. ओरछा के इतिहास के अनछुए पहलू को बहुत जीवंतता के साथ प्रस्तुत किया है,आपने.वास्तव में इतिहास के कई ऐसे प्रसंग हैं जो धुंधले पड़ चुके हैं और उनपर रोशनी डालने का आपका सार्थक प्रयास सराहनीय है.

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  17. Hi मुकेश जी
    सबसे पहले तो क्षमा चाहता हूँ कि इस पोस्ट पर इतनी देर से आया :(
    खैर, better late than never...

    इस पोस्ट को पढ़ने के बाद सभी कमेंट्स और उन पर आपकी प्रतिक्रिया भी पढ़ डाली ! इसलिए कहने को कुछ खास बचा नही, सिवाय इसके कि इतने बड़े समय के अवरोध को आपने अपनी कलम की कुशलता से बेहतरीन तरीके से ढांप लिया, पुरानी कथाओं के शुरुआत में ही जिक्र से पाठक के मनो-मस्तिक में पहले पढ़ी गई सभी कड़ियां अवश्य ही कौंध गई होंगी। इस रूप में यह पोस्ट सफल है, और इसके लिए आपको बहुत बहुत बधाई कि आपने उस तारतम्यता को टूटने नही दिया।
    ऊपर की गई एक टिप्पणी के सम्बंध में इतना ही कहूँगा कि इतिहास की हर घटना सनसनीपूर्ण नही होती। बहुत सी घटनाएं नीरस भी होती है, पर हर घटना का एक मूल्य अवश्य होता है, जिसका प्रभाव भविष्य पर अवश्य होता है। कम या ज्यादा और कब ? यह subjective भी हो सकता है, और ओ objective भी ! इसे समझना सरल नही !
    विनोद की टिप्पणी के इस भाग से सहमत हूँ और पोस्ट में वर्तनी की त्रुटियाँ अवश्य है! पर, इस घटनाक्रम का कथ्य इतना रोचक है कि पाठक इसे इग्नोर कर सकता है !

    आगे आने वाली किस्तों का बेसब्री से इंतज़ार रहेगा 💐👍

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  18. जैसा कि आपने भी लिखा है कि ये आपकी पसंदीदा सीरीज है , बिल्कुल मेरे लिए भी है ! मुझे आपका माँ बेतवा से वार्तालाप करना हमेशा अच्छा लगता है और सिर्फ पढ़ने में ही नहीं बहुत कुछ सीखने और नया जानने को भी मिलता है ! वीर सिंह जूदेव की कहानी और उनकी न्याय देने की अद्भुत मिसाल भारत के गौरव को और बढ़ाती हैं ! एक छोटा सा कस्बा आता है "अतर्रा " ग्वालियर के आसपास ही है , तो ये अतारी कहाँ हुआ ? बताइयेगा !! अगली कड़ी का बेसब्री से इंतज़ार रहेगा !!

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ab apki baari hai, kuchh kahne ki ...

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