मेरा जन्म बिहार में हुआ , परंतु पढाई-लिखाई आदि मध्य प्रदेश में होने के कारण अपने गृह राज्य में बिलकुल भी नही घूम सका। खैर जब मेरी शादी तय हुई , और मुझे पता चला कि मेरे ससुराल वाले गया में रहते है , तो मेरी ख़ुशी का ठिकाना न रहा। क्योंकि गया न केवल बिहार का बल्कि भारत का भी एक प्रमुख पर्यटन केंद्र है , साथ ही बोधगया तो अंतरराष्ट्रीय तीर्थ है। खैर मेरे गया घूमने का दिन आ ही गया , जब मेरी धर्मपत्नी जी अपने मायके गयी थी , तो जनवरी 2015 के आखिरी सप्ताह में मुझे गया जाने का सुअवसर मिल गया। ये मेरी पहली ससुराल यात्रा भी थी। (शादी गया से नही, बल्कि बक्सर जिले में गांव से हुई थी ) मैं झाँसी से चम्बल एक्सप्रेस से गया के लिए बैठा। अपनी इस यात्रा में ससुराल जाने से ज्यादा रोमांच गया जाने का था। क्योंकि गया जहाँ पिंडदान की वजह से हिंदुओं के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल है , वही गया से लगा हुआ बोधगया बौद्ध धर्म का पूरे विश्व में सबसे बड़ा तीर्थ है। चूँकि मैं इतिहास के साथ ही मानव विज्ञान का भी छात्र रहा हूँ , इसलिए ये दोनों स्थान मेरे लिए और अधिक महत्वपूर्ण हो गए। रात्रि दो बजे के लगभग चम्बल एक्सप्रेस गया जंक्शन पहुंची। नक्सली क्षेत्र कारण रात में मुझे रेलवे स्टेशन पर ही रुकने की हिदायत मिली थी। सुबह चार बजे के लगभग मेरे बड़े साले ध्रुव मुझे लेनेआये। मुझे रस्ते में बिहार की अन्य जगहों की तुलना में यहां अधिक पुलिस कर्मी और CRPF के जवान चप्पे चप्पे पर तैनात मिले। हालाँकि इसका एक कारण तत्कालीन तेजतर्रार एस एसपी मनु महराज भी बताये गए। खैर भोरे-भोरे ससुराल पहुंचे , परंपरा अनुसार खूब आदर सत्कार हुआ। और दिन में साले -सालियों और पत्नी जी के साथ निकल पड़े बोधगया की सैर पर ...
बोधगया की सैर से पहले हम थोड़ा सा इसका इतिहास जान लेते है। लगभग 528 ई॰ पू. के वैशाख (अप्रैल-मई) महीने में कपिलवस्तु के राजकुमार सिद्धार्थ ने सत्य की खोज में घर त्याग दिया। सिद्धार्थ ज्ञान की खोज में निरंजना (वर्तमान में फल्गु ) नदी के तट पर बसे एक छोटे से गांव उरुवेला आ गए। वह इसी गांव में एक पीपल के पेड़ के नीचे ध्यान साधना करने लगे। एक दिन वह ध्यान में लीन थे कि गांव की ही एक लड़की सुजाता उनके लिए एक कटोरा खीर तथा शहद लेकर आई। इस भोजन को करने के बाद गौतम पुन: ध्यान में लीन हो गए। इसके कुछ दिनों बाद ही उनके अज्ञान का बादल छट गया और उन्हें ज्ञान की प्राप्ित हुई। अब वह राजकुमार सिद्धार्थ या तपस्वी गौतम नहीं थे बल्कि बुद्ध थे। बुद्ध जिसे सारी दुनिया को ज्ञान प्रदान करना था। ज्ञान प्राप्ित के बाद वे अगले सात सप्ताह तक उरुवेला के नजदीक ही रहे और चिंतन मनन किया। इसके बाद बुद्ध वाराणसी के निकट ऋषिपत्तन (वर्तमान सारनाथ) गए जहां उन्होंने अपने ज्ञान प्राप्ित की घोषणा की। बुद्ध कुछ महीने बाद उरुवेला लौट गए। यहां उनके पांच मित्र अपने अनुयायियों के साथ उनसे मिलने आए और उनसे दीक्षित होने की प्रार्थना की। इन लोगों को दीक्षित करने के बाद बुद्ध राजगीर चले गए। इसके बाद बुद्ध के उरुवेला वापस लौटने का कोई प्रमाण नहीं मिलता है। दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व के बाद उरुवेला का नाम इतिहास के पन्नों में खो जाता है। इसके बाद यह गांव सम्बोधि, वैजरसना या महाबोधि नामों से जाना जाने लगा। बोधगया शब्द का उल्लेख 18 वीं शताब्दी से मिलने लगता है। इसके बाद उन्हों ने वहां ७ हफ्ते अलग अलग जगहों पर ध्यान करते हुए बिताया और फिर सारनाथ जा कर धर्म का प्रचार शुरू किया। बुद्ध के अनुयायिओं ने बाद में उस जगह पर जाना शुरू किया जहां बुद्ध ने वैशाख महीने में पुर्णिमा के दिन ज्ञान की प्रप्ति की थी। धीरे धीरे ये जगह बोधगया के नाम से जाना गया और ये दिन बुद्ध पुर्णिमा के नाम से जाना गया। जहाँ सिद्धार्थ को बुद्धत्व की प्राप्ति हुई यानि ज्ञान का बोध हुआ और चूँकि गया के नजदीक है , इसलिए बोधगया कहलाया।
बोधगया में प्रवेश करने पर ही एक सुन्दर द्वार मिलता है। यही से भगवा और लाल रंग के कपडे पहने बौद्ध भिक्षु या लामा नजर आने लगते है। बोधगया आने वाला लगभग हर यात्री अपनी यात्रा महाबोधि मंदिर (विहार ) से ही अपनी यात्रा शुरू करता है। तो हम भी चल पड़े महाबोधि मन्दिर के दर्शन करने। यहां अंदर मोबाइल ले जाना मना है , जबकि आप रसीद कटवाकर कैमरा ले जा सकते है। खैर हम अपना आई कार्ड (जिसमे मेरी वर्दी वाली फोटो है ) दिखाकर मोबाइल ले जाने की जुगाड़ में सफल रहे। हालाँकि हमे सीसीटीवी से बचाकर फोटो खींचने की सलाह दी गयी।
अब कुछ जानकारी इस महाविहार के बारे में ....
यह विहार मुख्य विहार या महाबोधि विहार के नाम से भी जाना जाता है। इस विहार की बनावट सम्राट अशोक द्वारा स्थापित स्तुप के समान है। इस विहार में गौतम बुद्ध की एक बहुत बड़ी मूर्त्ति स्थापित है। यह मूर्त्ति पदमासन की मुद्रा में है। यहां यह अनुश्रुति प्रचिलत है कि यह मूर्त्ति उसी जगह स्थापित है जहां गौतम बुद्ध को ज्ञान बुद्धत्व (ज्ञान) प्राप्त हुआ था। विहार के चारों ओर पत्थर की नक्काशीदार रेलिंग बनी हुई है। ये रेलिंग ही बोधगया में प्राप्त सबसे पुराना अवशेष है। इस विहार परिसर के दक्षिण-पूर्व दिशा में प्राकृतिक दृश्यों से समृद्ध एक पार्क है जहां बौद्ध भिक्षु ध्यान साधना करते हैं। आम लोग इस पार्क में विहार प्रशासन की अनुमति लेकर ही प्रवेश कर सकते हैं। हालाँकि हम इस बात से अनजान थे , इसलिए बिना अनुमति के प्रवेश कर गए , फिर वहां खड़े बिहार पुलिस के जवानों को एक बार फिर अपना आई कार्ड दिखाकर काम चलाना पड़ा।
विश्वास किया जाता है कि महाबोधि मंदिर में स्थापित बुद्ध की मूर्त्ति संबंध स्वयं बुद्ध से है। कहा जाता है कि जब इस मंदिर का निर्माण किया जा रहा था तो इसमें बुद्ध की एक मूर्त्ति स्थापित करने का भी निर्णय लिया गया था। लेकिन लंबे समय तक किसी ऐसे शिल्पकार को खोजा नहीं जा सका जो बुद्ध की आकर्षक मूर्त्ति बना सके। सहसा एक दिन एक व्यक्ित आया और उसे मूर्त्ति बनाने की इच्छा जाहिर की। लेकिन इसके लिए उसने कुछ शर्त्तें भी रखीं। उसकी शर्त्त थी कि उसे पत्थर का एक स्तम्भ तथा एक लैम्प दिया जाए। उसकी एक और शर्त्त यह भी थी इसके लिए उसे छ: महीने का समय दिया जाए तथा समय से पहले कोई मंदिर का दरवाजा न खोले। सभी शर्त्तें मान ली गई लेकिन व्यग्र गांववासियों ने तय समय से चार दिन पहले ही मंदिर के दरवाजे को खोल दिया। मंदिर के अंदर एक बहुत ही सुंदर मूर्त्ति थी जिसका हर अंग आकर्षक था सिवाय छाती के। मूर्त्ति का छाती वाला भाग अभी पूर्ण रूप से तराशा नहीं गया था। कुछ समय बाद एक बौद्ध भिक्षु मंदिर के अंदर रहने लगा। एक बार बुद्ध उसके सपने में आए और बोले कि उन्होंने ही मूर्त्ति का निर्माण किया था। बुद्ध की यह मूर्त्ति बौद्ध जगत में सर्वाधिक प्रतिष्ठा प्राप्त मूर्त्ति है। वर्तमान मेंस्वर्णिम मूर्ति के पीछे हीरों से जड़ा आभामंडल है। महाविहार के शिखर को थाईलैंड के सम्राट द्वारा हाल ही में सोने से मढ़वाया गया है। नालन्दा और विक्रमशिला के मंदिरों में भी इसी मूर्त्ति की प्रतिकृति को स्थापित किया गया है।
इस विहार परिसर में उन सात स्थानों को भी चिन्हित किया गया है जहां बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ित के बाद सात सप्ताह व्यतीत किया था। जातक कथाओं में उल्लेखित बोधि वृक्ष भी यहां है। यह एक विशाल पीपल का वृक्ष है जो मुख्य विहार के पीछे स्थित है। बुद्ध को इसी वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त हुआ था। वर्तमान में जो बोधि वृक्ष वह उस बोधि वृक्ष की पांचवीं पीढी है। इसी वृक्ष की एक कलम सम्राट अशोक ने अपने पुत्र महेंद्र और पुत्री संघमित्रा को देकर श्रीलंका भेजा था , जहाँ आज भी अनुराधापुर में वो बोधि वृक्ष लगा हुआ है। बौद्ध अनुयायी इस वृक्ष को बहुत ही पवित्र मानते है। पहले इसकी पत्तियों को तोड़ने में होड़ लग जाती थी , इसलिए इसे घेर दिया है , और इसको छूने की भी मनाही है। लेकिन यदि वृक्ष से कोई पत्ती स्वयं ही टूट कर गिरती है तो अभी भी उसे लूटने की होड़ अच् जाती है। संयोग से हमारे सामने भी एक पत्ती टूटकर गिरी , इस बात से पहले से परिचित मेरी पत्नी ने बिना मौका गवांये उस पत्ती को लपक लिया। बाकी लोग देखते ही रह गए। बोधि वृक्ष के नीचे और आसपास बहुत सरे लामा ध्यान लगाए हुए थे । विहार समूह में सुबह के समय घण्टों की आवाज मन को एक अजीब सी शांति प्रदान करती है।
मुख्य विहार के पीछे बुद्ध की लाल बलुए पत्थर की 7 फीट ऊंची एक मूर्त्ति है। यह मूर्त्ति विजरासन मुद्रा में है। इस मूर्त्ति के चारों ओर विभिन्न रंगों के पताके लगे हुए हैं जो इस मूर्त्ति को एक विशिष्ट आकर्षण प्रदान करते हैं। कहा जाता है कि तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में इसी स्थान पर सम्राट अशोक ने हीरों से बना राजसिहांसन लगवाया था और इसे पृथ्वी का नाभि केंद्र कहा था। इस मूर्त्ति की आगे भूरे बलुए पत्थर पर बुद्ध के विशाल पदचिन्ह बने हुए हैं। बुद्ध के इन पदचिन्हों को धर्मचक्र प्रर्वतन का प्रतीक माना जाता है।बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ित के बाद दूसरा सप्ताह इसी बोधि वृक्ष के आगे खड़ा अवस्था में बिताया था। यहां पर बुद्ध की इस अवस्था में एक मूर्त्ति बनी हुई है। इस मूर्त्ति को अनिमेश लोचन कहा जाता है। मुख्य विहार के उत्तर पूर्व में अनिमेश लोचन चैत्य बना हुआ है।मुख्य विहार का उत्तरी भाग चंकामाना नाम से जाना जाता है। इसी स्थान पर बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ित के बाद तीसरा सप्ताह व्यतीत किया था। अब यहां पर काले पत्थर का कमल का फूल बना हुआ है जो बुद्ध का प्रतीक माना जाता है।महाबोधि विहार के उत्तर पश्िचम भाग में एक छतविहीन भग्नावशेष है जो रत्नाघारा के नाम से जाना जाता है। इसी स्थान पर बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ित के बाद चौथा सप्ताह व्यतीत किया था। दन्तकथाओं के अनुसार बुद्ध यहां गहन ध्यान में लीन थे कि उनके शरीर से प्रकाश की एक किरण निकली। प्रकाश की इन्हीं रंगों का उपयोग विभिन्न देशों द्वारा यहां लगे अपने पताके में किया है।बुद्ध ने मुख्य विहार के उत्तरी दरवाजे से थोड़ी दूर पर स्थित अजपाला-निग्रोधा वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्ित के बाद पांचवा सप्ताह व्यतीत किया था। बुद्ध ने छठा सप्ताह महाबोधि विहार के दायीं ओर स्थित मूचालिंडा झील के नजदीक व्यतीत किया था। यह झील चारों तरफ से वृक्षों से घिरा हुआ है। इस झील के मध्य में बुद्ध की मूर्त्ति स्थापित है। इस मूर्त्ति में एक विशाल सांप बुद्ध की रक्षा कर रहा है। इस मूर्त्ति के संबंध में एक दंतकथा प्रचलित है। इस कथा के अनुसार बुद्ध प्रार्थना में इतने तल्लीन थे कि उन्हें आंधी आने का ध्यान नहीं रहा। बुद्ध जब मूसलाधार बारिश में फंस गए तो सांपों का राजा मूचालिंडा अपने निवास से बाहर आया और बुद्ध की रक्षा की।इस विहार परिसर के दक्षिण-पूर्व में राजयातना वृक्ष है। बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ित के बाद अपना सांतवा सप्ताह इसी वृक्ष के नीचे व्यतीत किया था। यहीं बुद्ध दो बर्मी (बर्मा का निवासी) व्यापारियों से मिले थे। इन व्यापारियों ने बुद्ध से आश्रय की प्रार्थना की। इन प्रार्थना के रूप में बुद्धमं शरणम् गच्छामि (मैं बुद्ध को शरण जाता हू) का उच्चारण किया। इसी के बाद से यह प्रार्थना प्रसिद्ध हो गई।
महाबोधि महाविहार या मंदिर में चारो और भगवान् बुद्ध और उनके अवतारों , पूर्वजन्मों से सम्बंधित शिल्प उत्कीर्ण है। मंदिर के शिखर को हाल ही में थाईलैंड के सम्राट ने सोने से मढ़वाया है। अंदर ध्यानमग्न भगवान की मनमोहक प्रतिमा विराजमान है। प्रतिमा पर भी सोने का कार्य किया गया है। प्रतिमा के पीछे आभामंडल को छोटे-छोटे हीरों से सजाया गया है , जिससे प्रतिमा की सुंदरता और अधिक बढ़ जाती है। मंदिर के गर्भगृह के असीम शांति का अनुभव होता है। मंदिर के बाहर बौद्ध भिक्षु अपनी अपनी भाषाओँ में प्रार्थना करते हुए वातावरण को दिव्यता प्रदान कर रहे है। महाबोधि मंदिर के बाद हम 80 फुट के भगवान को देखने निकल पड़े।
महाबोधि महाविहार या मंदिर में चारो और भगवान् बुद्ध और उनके अवतारों , पूर्वजन्मों से सम्बंधित शिल्प उत्कीर्ण है। मंदिर के शिखर को हाल ही में थाईलैंड के सम्राट ने सोने से मढ़वाया है। अंदर ध्यानमग्न भगवान की मनमोहक प्रतिमा विराजमान है। प्रतिमा पर भी सोने का कार्य किया गया है। प्रतिमा के पीछे आभामंडल को छोटे-छोटे हीरों से सजाया गया है , जिससे प्रतिमा की सुंदरता और अधिक बढ़ जाती है। मंदिर के गर्भगृह के असीम शांति का अनुभव होता है। मंदिर के बाहर बौद्ध भिक्षु अपनी अपनी भाषाओँ में प्रार्थना करते हुए वातावरण को दिव्यता प्रदान कर रहे है। महाबोधि मंदिर के बाद हम 80 फुट के भगवान को देखने निकल पड़े।
तिब्बतियन मठ (80 फ़ीट के बुद्ध )
(महाबोधि विहार के पश्िचम में पांच मिनट की पैदल दूरी पर स्थित) जोकि बोधगया का सबसे बड़ा और पुराना मठ है 1934 ई. में बनाया गया था। बर्मी विहार (गया-बोधगया रोड पर निरंजना नदी के तट पर स्थित) 1936 ई. में बना था। इस विहार में दो प्रार्थना कक्ष है। इसके अलावा इसमें बुद्ध की एक विशाल प्रतिमा भी है। यह भारत की सबसे ऊंचीं बुद्ध मूर्त्ति जो कि 6 फीट ऊंचे कमल के फूल पर स्थापित है। यह पूरी प्रतिमा एक 10 फीट ऊंचे आधार पर बनी हुई है। स्थानीय लोग इस मूर्त्ति को 80 फीट ऊंचा मानते हैं। विशाल प्रतिमा के दोनों तरह कतारवद्ध रूप में बुद्ध शिष्यों की खड़े रूप में प्रतिमाएं है। जिनमे आनंद , महामोदगयालयन , सारिपुत्र आदि प्रमुख है।
अब विशाल प्रतिमा के बाद हम लोगो ने बोधगया के अन्य बौद्ध मंदिरों की और किया। बोधगया में अलग अलग बौद्ध देशों ने अपनी संस्कृति और स्थापत्य के अनुसार अपने अलग बौद्ध मंदिर या विहार बना रखे है। इन मंदिरों में उन देशों की संस्कृति की न केवल झलक मिलती है , बल्कि ऐसा लगता है , कि उसी देश में खड़े है। अगर भारतीय पर्यटक न मिले तो एक पल को लगने लगता है , कि भारत में नहीं है। चलिए आपको कुछ महाविहारों में घुमा लेट है। विशाल प्रतिमा से सटा हुआ ही थाई मठ है (महाबोधि विहार परिसर से 1किलोमीटर पश्िचम में स्थित)। इस मठ के छत की सोने से कलई की गई है। इस कारण इसे गोल्डेन मठ कहा जाता है। इस मठ की स्थापना थाईलैंड के राजपरिवार ने बौद्ध की स्थापना के 2500 वर्ष पूरा होने के उपलक्ष्य में किया था। इंडोसन-निप्पन-जापानी मंदिर (महाबोधि मंदिर परिसर से 11.5 किलोमीटर दक्षिण-पश्िचम में स्थित) का निर्माण 1972-73 में हुआ था। इस विहार का निर्माण लकड़ी के बने प्राचीन जापानी विहारों के आधार पर किया गया है। इस विहार में बुद्ध के जीवन में घटी महत्वपूर्ण घटनाओं को चित्र के माध्यम से दर्शाया गया है। चीनी विहार (महाबोधि मंदिर परिसर के पश्िचम में पांच मिनट की पैदल दूरी पर स्थित) का निर्माण 1945 ई. में हुआ था। इस विहार में सोने की बनी बुद्ध की एक प्रतिमा स्थापित है। इस विहार का पुनर्निर्माण 1997 ई. किया गया था। जापानी विहार के उत्तर में भूटानी मठ स्थित है। इस मठ की दीवारों पर नक्काशी का बेहतरीन काम किया गया है। यहां सबसे नया बना विहार वियतनामी विहार है। यह विहार महाबोधि विहार के उत्तर में 5 मिनट की पैदल दूरी पर स्थित है। इस विहार का निर्माण 2002 ई. में किया गया है। इस विहार में बुद्ध के शांति के अवतार अवलोकितेश्वर की मूर्त्ति स्थापित है।
लुम्बनी के राजकुमार जब अपनी पत्नी को त्यागकर बोधगया की भूमि में आये तो उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई , और हमें इस पुण्यभूमि पर पत्नी की प्राप्ति हुई। बोधगया में आप एक साथ एक ही जगह पर कई बौद्ध देशो की संस्कृति से परिचित हो सकते है। बोधगया आने के लिए सड़क, रेल और वायुमार्ग सभी से बढ़िया व्यवस्थाएं है। नजदीकी रेलवे स्टेशन गया है , जो मुगलसराय - हावड़ा रेलखंड का एक महत्वपूर्ण रेलवे जंक्शन है। यहां के लिए पुरे देश से रेलगाड़ी चलती है। जबकि सड़क मार्ग से आप राष्ट्रीय राजमार्ग क्रमांक 2 जिसे ग्रैंड ट्रंक रोड भी कहते है , से गया आ सकते है। वायु सेवा के लिए बोधगया में ही सुजाता अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा है। रुकने के लिए हर तरह के होटल , धर्मशालाएं है। बोधगया की तुलना में गया में सस्ते होटल आराम से मिल जाते है।
अब विशाल प्रतिमा के बाद हम लोगो ने बोधगया के अन्य बौद्ध मंदिरों की और किया। बोधगया में अलग अलग बौद्ध देशों ने अपनी संस्कृति और स्थापत्य के अनुसार अपने अलग बौद्ध मंदिर या विहार बना रखे है। इन मंदिरों में उन देशों की संस्कृति की न केवल झलक मिलती है , बल्कि ऐसा लगता है , कि उसी देश में खड़े है। अगर भारतीय पर्यटक न मिले तो एक पल को लगने लगता है , कि भारत में नहीं है। चलिए आपको कुछ महाविहारों में घुमा लेट है। विशाल प्रतिमा से सटा हुआ ही थाई मठ है (महाबोधि विहार परिसर से 1किलोमीटर पश्िचम में स्थित)। इस मठ के छत की सोने से कलई की गई है। इस कारण इसे गोल्डेन मठ कहा जाता है। इस मठ की स्थापना थाईलैंड के राजपरिवार ने बौद्ध की स्थापना के 2500 वर्ष पूरा होने के उपलक्ष्य में किया था। इंडोसन-निप्पन-जापानी मंदिर (महाबोधि मंदिर परिसर से 11.5 किलोमीटर दक्षिण-पश्िचम में स्थित) का निर्माण 1972-73 में हुआ था। इस विहार का निर्माण लकड़ी के बने प्राचीन जापानी विहारों के आधार पर किया गया है। इस विहार में बुद्ध के जीवन में घटी महत्वपूर्ण घटनाओं को चित्र के माध्यम से दर्शाया गया है। चीनी विहार (महाबोधि मंदिर परिसर के पश्िचम में पांच मिनट की पैदल दूरी पर स्थित) का निर्माण 1945 ई. में हुआ था। इस विहार में सोने की बनी बुद्ध की एक प्रतिमा स्थापित है। इस विहार का पुनर्निर्माण 1997 ई. किया गया था। जापानी विहार के उत्तर में भूटानी मठ स्थित है। इस मठ की दीवारों पर नक्काशी का बेहतरीन काम किया गया है। यहां सबसे नया बना विहार वियतनामी विहार है। यह विहार महाबोधि विहार के उत्तर में 5 मिनट की पैदल दूरी पर स्थित है। इस विहार का निर्माण 2002 ई. में किया गया है। इस विहार में बुद्ध के शांति के अवतार अवलोकितेश्वर की मूर्त्ति स्थापित है।
लुम्बनी के राजकुमार जब अपनी पत्नी को त्यागकर बोधगया की भूमि में आये तो उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई , और हमें इस पुण्यभूमि पर पत्नी की प्राप्ति हुई। बोधगया में आप एक साथ एक ही जगह पर कई बौद्ध देशो की संस्कृति से परिचित हो सकते है। बोधगया आने के लिए सड़क, रेल और वायुमार्ग सभी से बढ़िया व्यवस्थाएं है। नजदीकी रेलवे स्टेशन गया है , जो मुगलसराय - हावड़ा रेलखंड का एक महत्वपूर्ण रेलवे जंक्शन है। यहां के लिए पुरे देश से रेलगाड़ी चलती है। जबकि सड़क मार्ग से आप राष्ट्रीय राजमार्ग क्रमांक 2 जिसे ग्रैंड ट्रंक रोड भी कहते है , से गया आ सकते है। वायु सेवा के लिए बोधगया में ही सुजाता अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा है। रुकने के लिए हर तरह के होटल , धर्मशालाएं है। बोधगया की तुलना में गया में सस्ते होटल आराम से मिल जाते है।
महाबोधि मंदिर की ओर जाने वाला रास्ता |
इतना बारीकी से वर्णन करना काबिलेतारीफ है । पढ़कर अच्छा लगा ।।
जवाब देंहटाएंआभार सुजीत जी
हटाएंजबरदस्त जबरदस्त जबरदस्त...जितना सोचु की यह लिखू लेकिन लिखते लिखते शब्द काम ही जायेंगे...मुझे पता नही क्यो बुद्धा की और आकर्षण बहुत ज्यादा है...में गया पागलपन जैसा घुमा था..हावड़ा से इंदौर की कन्फर्म टिकट कैंसिल करके जनरल डब्बे में गया जाकर घुमा था...वो दिन मेरे यादों का बहुत अभिन्न हिस्सा है...बुद्धम शरणं गच्छामि से लेकर बर्मा और श्रीलंका में कैसे बोष गए इससे पता चला...बुद्धा के सातों सप्ताह का विस्तृत वर्णन वाकई दिल खुश कर गया...बुद्ध के ज्ञान की प्राप्ति से लेकर सुजाता की खीर और शहद ऐसा लग रहा है कि बस पढ़ते ही जाऊं पड़ते ही जाऊन... कमाल कर दिया चंदन जी रात के 3 बजे दिल जीत लिया आपने दिल से
जवाब देंहटाएंजय हो
हटाएंबौद्ध की कण कण का वर्णन। आशा के अनुरूप विस्तार से बोधगया के दर्शनीय स्थल को शब्दों से प्रकाशित किये हैं।
जवाब देंहटाएंकण कण का तो नही कर पाया, पर एक लघु प्रयास किया है । आपका आभार मित्र
हटाएंमैं भी गया नहीं गया।
जवाब देंहटाएंऔर क्या क्या देखने लायक है वो सब बताये ताकि गया जाऊं तो कुछ छोड के न आऊँ।
जब जाना हो तो बताइयेगा । फोन पर विस्तार से बताऊंगा । गया, बोधगया, नालंदा और राजगीर के बारे में
हटाएंवाह!
जवाब देंहटाएंबहुत विस्तार पूर्ण एक-एक स्थान का वर्णन्नं किये । इतना जानकारी मैं वहां जाकर भी नही जान पाता ।
बहुत सुंदर 👌👌
आभार अनुज
हटाएंआभार शास्त्री जी
जवाब देंहटाएंआभार जी
जवाब देंहटाएंसार्थक पोस्ट..
जवाब देंहटाएंआभार जी
हटाएं
जवाब देंहटाएंबोधगया ! छोटी लेकिन जबरदस्त जगह है ! मैं गर्मी में गया था तो इतनी भीड़भाड़ नहीं थी कि ऐसा लगे कि बाहर के लोग बहुत आते होंगे !! बोधगया में शायद ही कुछ बाकी रहा होगा हमसे , यहां तक कि नेपाल का भी बौद्ध विहार देखा :) ! बहुत बेहतरीन ! विस्तृत विवरण लिखा है पांडेय जी ! इतिहास -भूगोल सब कुछ !! बढ़िया लगा
बांग्लादेश का बौद्ध विहार देखा या नही ?
हटाएंआभार योगी जी
हटाएंदेखा था पांडेय जी , सबसे पहले तो व्ही देखा
हटाएंAmazing detailed post. Loved reading it.
जवाब देंहटाएंशुक्रिया जी,
हटाएंविस्तृत विवरण एक-एक स्थान का
जवाब देंहटाएंसंजय जी, बहुत दिनों के बाद आप आये अच्छा लगा ।
हटाएंजानकारी से परिपूर्ण विवरण, बहुत बढ़िया जी
जवाब देंहटाएंआभार जी
हटाएंhttp://naiduniaepaper.jagran.com/mpaper/12-nov-2017-84-edition-Tarang-Page-1.html
जवाब देंहटाएंनईदुनिया अखबार में इसी पोस्ट को पढिये