बुधवार, 25 अक्तूबर 2017

अद्भुत शिल्प और दशावतार मंदिर देवगढ़

देवगढ़ का दशावतार मंदिर 

कुछ यात्राएं नियति द्वारा निर्धारित होती है।  इसी तरह मेरी देवगढ़ (जिला ललितपुर , उत्तर प्रदेश ) की यात्रा रही।  हुआ यूँ , कि 9 अक्टूबर 2017 को  सुबह 10 बजे के लगभग मेरे घुमक्कड़ मित्र और उत्तर प्रदेश पुलिस में दरोगा श्री नयन सिंह जी का कॉल आया और वो ललितपुर जिले के देवगढ़ कसबे जाने की चर्चा करने लगे।  अब इतिहास में गुप्तकालीन देवगढ़ के दशावतार मंदिर को न जाने कितनी बार पढ़ा होगा ! और यह मेरे विश लिस्ट में भी था।  नयन जी ने अगले दिन जाने की बात कही , लेकिन कल किसने देखा ? मैंने बिना समय गंवाए उनसे आज ही चलने का अनुरोध किया।  नयन जी भी तैयार हो गए।  फिर क्या अगले एक घंटे में वो झाँसी से अपनी स्कॉर्पियों से ओरछा स्थित मेरे घर के सामने थे।  नयन जी के पैरों में तकलीफ थी , लेकिन जब पैरों में सनीचर चढ़ जाये तो फिर कुछ नहीं सूझता है। हम निकल पड़े बिना खाये-पिए अपनी मंजिल देवगढ़ की ओर .... 
                                        हम सीधे ललितपुर पहुंचने पर ही रुके , ललितपुर में प्रवेश के पूर्व निरंजन चाय वाले की प्रसिद्ध चाय पीने रुके।  भूख लग आई थी, लेकिन घुमक्क्ड़ी की भूख के आगे सब भूल हमारी सवारी चलती रही।  अभी तक तो फोरलेन (राष्ट्रिय राजमार्ग क्रमांक -26 ) की शानदार सड़क थी, लेकिन अब ललितपुर से देवगढ़ तक का 35 किमी की दूरी सड़क निर्माण कार्य प्रगति पर होने से हमारे वाहन की गति दुर्गति पर आ गयी।  लगभग 3 बजे हम लोग देवगढ़ की पुण्यभूमि पर पहुंचे।
                                  वैसे देवगढ़ बेतवा नदी किनारे बसा छोटा सा क़स्बा है , जो भगवान महावीर वन्यजीव अभ्यारण्य के अंतर्गत आता है।  कसबे में प्रवेश करते ही हमे दशावतार मंदिर का बोर्ड दिखा तो हमारी गाड़ी के पहिये वही थम गए।  दशावतार मंदिर भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण (ASI ) के सरंक्षण में होने से थोड़ा व्यवस्थित था।   हमें सबसे पहले चौकीदार सीताराम तिवारी मिले , जो स्थानीय निवासी भी थे , और हमारा परिचय जानने के बाद हमें बड़े ही आदर के साथ मंदिर दिखाने चल पड़े । दशावतार मंदिर भारतीय इतिहास में स्वर्ण काल के रूप में प्रसिद्ध गुप्त काल मैं बनी हुई एक बहुत ही अद्भुत कारीगरी वाली देवालय की इमारत है । इस इमारत को देख कर लगता ही नहीं कि यह उत्कृष्ट कारीगरी छठवीं सदी में की गई है, यानी कि आज से 1400 वर्ष पूर्व जब पत्थरों पर कारीगरी
सिर्फ छैनी और हथौड़ों से होती थी ।
                                        दशावतार मंदिर पंचायतन  शैली में निर्मित मंदिर था जिसमें चार कोनों पर स्थित मंदिरों के सिर्फ अवशेष  देखने को मिलते हैं और मुख्य मंदिर का शिखर भी ध्वस्त अवस्था में है । सामने से देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि मंदिर के शिखर को तोप के गोले से नष्ट करने का प्रयास किया गया है ,परंतु यह प्रयास पूरी तरह सफल नहीं हो सका । मंदिर का द्वार 5 शाखाओं में अनुपम शिल्पाकृतियों से सुसज्जित है । द्वार के सिरदल पर शेषनाग के आसन पर विराजमान विष्णु की प्रतिमा उत्कीर्ण है जिससे पता चलता है कि यह मंदिर भगवान विष्णु को समर्पित है, हालांकि गर्भ गृह में भगवान की कोई मूर्ति वर्तमान में नहीं है । गर्भगृह की मुख्य मूर्ति को या तो नष्ट कर दिया गया होगा या फिर चोरी कर ली गई होगी । गर्भ ग्रह की मुख्य मूर्ति के नीचे के भाग में जलहरी बनी हुई है, जिस से कई लोग इसे भगवान शिव का मंदिर बताते हैं । लेकिन सिर दल की विष्णु प्रतिमा और देवगढ़ में ही स्थित वराह मंदिर में बनी हुई जलहरी से स्पष्ट होता है कि यहां पर भगवान विष्णु का ही मंदिर था । अगर हम गुप्त शासकों के द्वारा बनवाए गए अन्य मंदिरों का भी अध्ययन करें तो पता चलता है कि गुप्त शासक भगवान विष्णु के उपासक थे और उनका राजकीय चिन्ह भी गरुड़ था । मुख्य द्वार के कोनों पर गंगा और यमुना जलपात्र लिए हुए खड़ी हैं । सूर्य और चंद्रमा भी द्वार पर अंकित है । द्वार के ऊपरी हिस्से मैं सिंह के मुख की आकृति में कीर्तिमुख की कतारबद्ध आकृतियां उत्कीर्ण है । इस मंदिर के द्वार में मैथुन प्रतिमाएं भी उत्कीर्ण की गई है । 
                                           गर्भ गृह  में कोई मूर्ति ना होने की वजह से हम उसका विश्लेषण और अध्ययन नहीं कर सकते इसलिए द्वार के पश्चात हम मंदिर की बाई दीवाल पर बने हुए शिल्प का अवलोकन करते हैं । इस दीवार पर बने हुए शिल्प को देखते ही मन प्रसन्न हो जाता है । यहां पर शिल्पी ओने जीवंत चित्रण करते हुए गजेंद्र मोक्ष नामक पौराणिक कथा का प्रतिमा रूप में अद्भुत अंकन किया है । इस प्रतिमा में न केवल शारीरिक अनुपात का सूक्ष्मता से ध्यान दिया गया है, बल्कि भाव भंगिमाएं भी इतनी अच्छी तरीके से निरूपित की गई है ,कि लगता है कि यह प्रतिमाएं तुरंत बोल उठेंगी । जल में फंसे हुए गज की स्थिति को इस तरह निरूपित किया गया है,  कि उसके मुख पर भी कष्ट  का प्रभाव सहज ही दिखाई दे रहा  हैं । यहां तक कि जिस जलस्रोत में वह फसा है, उस की लहरें और उसमें खिले हुए कमल के पुष्प लहरों की गति अनुसार निरूपित किए गए हैं । भगवान विष्णु और उनके वाहन गरुड़ की भाव-भंगिमाएं यह बताती हैं, कि वह कितनी जल्दबाजी में अपने भक्तों को बचाने के लिए दौड़े चले आए। तत्परता में वह अपना मुकुट भी भूल आए जिसे लेकर उनके सेवक गण पीछे से आए इस बात को भी शिल्प में प्रमुखता से स्थान दिया गया है । सामान्यता हमने गजेंद्र मोक्ष की कथा में भगवान विष्णु द्वारा गज को ग्राह या मगर से बचाते हुए देखा सुना है । लेकिन यहां पर ग्राह्य मगर की जगह नाग और नागिन दिखाए गए हैं । भगवान विष्णु द्वारा छोड़े गए सुदर्शन चक्र को नाग के सीने के मध्य में धंसा हुआ दिखाया गया है । इतिहास के कई जानकारों से जब ग्राह की जगह नाग  के होने के संबंध में चर्चा की तो यह बात सामने आई , कि वास्तव में ग्राह के रूप में एक असुर था जो रूप बदलने में माहिर था , इसलिए कई स्थानों पर उसे मगर तो कुछ स्थानों पर नाग और कुछ स्थानों पर कच्छप के रूप में भी दर्शाया गया है । इस  पाषाण प्रतिमा को देखकर मस्तक गर्व से और ऊंचा हो गया कि आज से 14 सौ वर्ष पूर्व हमारे शिल्पी इतने प्रतिभावान थे कि इस तरह की प्रतिमा को उत्कीर्ण कर सके । जबकि आज तमाम तकनीकी अविष्कार होने के बाद भी मैडम तुसाद वाले मोम के पुतले भी नकली लगते हैं । इस प्रतिमा के आसपास सजावट के लिए नाग वल्लरियों का भी सुंदर प्रयोग हुआ है ।
                     मंदिर के पीछे की दीवाल पर नर और नारायण की प्रतिमा उत्कीर्ण की गई है जिसमें इनके साथ शिव ब्रह्मा आदि देवताओं के अलावा स्वर्ग और अन्य विषयों का भी शिल्पा अंकन किया गया है निर्माण की दृष्टि से इस प्रतिमा की श्रेष्ठता में भी कोई कमी निकालना मुश्किल है । यहां तक कि प्रतिमा के वस्त्रों का अंकन भी बहुत अच्छी तरह से किया गया है । नर नारायण की प्रतिमा के ऊपर की ओर आम्र पल्लवों काफी सुंदर अंकन है । इस दीवार पर एक ओर गजलक्ष्मी का भी सुंदर अंकन है ।
                        अब चलते हैं , मंदिर की दाहिनी दीवाल पर बने हुए प्रतिमा शिल्प की ओर... यह प्रतिमा दशावतार मंदिर की सबसे सुंदर और महत्वपूर्ण शिल्प आकृति  है । इसी शिल्प की वजह से यह मंदिर प्रसिद्ध भी है । इस शिल्प में  भगवान विष्णु को शेषशाई मुद्रा में दिखाया गया है । भगवान की नाभि से निकले कमल पर ब्रह्मा जी विराजमान हैं ,जिसे पद्मनाभ अवस्था भी कहा जाता है । भगवान विष्णु का अभिनंदन करने के लिए भगवान शिव अपने नंदी पर पार्वती सहित  दौड़े चले आ रहे हैं । शिल्प की आकृति नंदी के वेग  को बखूबी प्रदर्शित कर रही है । ब्रह्मा जी के दूसरी ओर ऐरावत पर विराजमान इंद्र और अपने मयूर वाहन पर विराजमान स्वामी कार्तिकेय भी प्रदर्शित हैं । अब अगर मुख्य प्रतिमा की बात की जाए तो भगवान विष्णु शेषनाग की शय्या पर एक हाथ सर पर लगाए हुए लेटे हैं । भगवान की शरीरों का अंकन और उनके शरीर से शेषनाग पर पड़ने वाले दबावों को बहुत ही सुंदर तरीके से प्रदर्शित किया गया है । भगवान विष्णु की पत्नी लक्ष्मी भगवान विष्णु के चरण दबा रही हैं , और उनके हाथों से पड़े हुए दबावों को भी भगवान के चरणों पर स्पष्ट देखा जा सकता है । इस मुख्य प्रतिमा के नीचे एक और कथानक को प्रदर्शित किया गया है जो कि महाभारत काल से संबंधित है । इसमें पांच पांडव और द्रौपदी का अंकन है । दुर्योधन के खून से अपने केशों को धोने का संकल्प लिए हुए द्रोपदी खोलें केश पकड़े हुए हैं । युधिष्ठिर अर्जुन और भीम के चेहरे मिलते हुए प्रतीत होते हैं जिस से पता चलता है कि वह एक ही मां की संतान हैं, जबकि नकुल और सहदेव इनके चेहरे अलग ही देखने के कारण पता चलता है कि इनकी माता दूसरी थी ।
               दशावतार मंदिर के शिल्प को देखने के बाद काफी समय इन में खोया रहा और इन शिल्पियों की तारीफ में जितने भी शब्द कहे जाएं बहुत कम हैं। आज भी वर्तमान के शिल्पी इनसे बहुत ही पीछे हैं । प्रतिमाओं में शारीरिक अनुपात वस्त्रों का अंकन और उन सब से भी बढ़कर चेहरे पर भाव भंगिमाएं इतनी अच्छी तरह से कर पाना यह भारतीय स्थापत्य और शिल्प की उत्कृष्टता का प्रमाण है ।  हमें देवगढ़ में सिर्फ दशावतार मंदिर के बारे में ही जानकारी थी और इसे ही देखने हम भागे चले आए थे । लेकिन लेकिन जब सीता राम तिवारी जी ने बताया कि यहां पर अभ्यारण के अंतर्गत आठवीं नवी सदी के जैन मंदिर, गुप्त काल का ही वराह मंदिर, सिद्ध गुफा ,नाहर गुफा, राज गुफा और बेतवा का मनोरम तट  भी दर्शनीय है । तो यह हमारे लिए एक बोनस पॉइंट की तरह था ,कि कहां हम रत्न को देखने आए थे और हमें खजाना ही मिल गया।  सूर्य धीरे-धीरे अस्तांचल गामी हो रहे थे।  भूख भी तेज लगी थी।  समयाभाव में हमने क्या किया ? और इस खजाने के बारे में आप अगली पोस्ट में पढ़िए ।
तब तक आप इन चित्रों को देखिये और हमारे प्राचीन शिल्प पर गर्व कीजिये
मंदिर का कलात्मक द्वार 
द्वार के सिरदल पर भगवान विष्णु 
स्वागत में मकरवाहिनी गंगा 
कच्छप वाहिनी यमुना स्वागत द्वार पर 
स्वागत द्वार के अन्य शिल्प 
गजेंद्र मोक्ष का अद्भुत शिल्पांकन 
नर-नारायण और अन्य देवतागण 
गजलक्ष्मी 
शेषशायी और पद्मनाभ भगवान विष्णु और अन्य देवगण 
बांये से नयन जी , मैं और सीताराम तिवारी 

23 टिप्‍पणियां:

  1. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, ठुमरी साम्राज्ञी गिरिजा देवी को ब्लॉग बुलेटिन का नमन “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  2. बहुत ही उम्दा लेख है पांडेय जी वाकई में हमारा इतिहास महान रहा है

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  3. दो दो दरोगा खुद गए थे तो जाहिर सी बात है उम्मीद से दोगुना तो मिलना ही था । जैसा ग़ज़ब शिल्पकारों ने किया वैसा ही हमारे लिए आपने किया उन मंदिरों का सजीव वर्णन करके । बिल्कुल आपके साथ साथ साक्षात दर्शन कर लिए हमने भी । ख़ज़ाने का बेसब्री से इंतज़ार रहेगा ।
    जय राम जी की

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  4. जोरदार कथन स्टोरी में जान है जब स्टोरी पढ़कर शिल्प देखे तो लगा आपकी कलम ने सबकुछ पकड़कर लिख दिया है वरना मुझे तो कुछ समझ नही आया। हमारे शिल्पकार सचमुच अद्भुत थे उनके शिल्प खुद बोलते थे । ऐसा ही यहां हुआ है और इन बोलती मूर्तियों की भाषा आपने सरल शब्दों में व्यक्त की है ।बधाई ऐसी अनजान जगह दिखाने के लिए पांडेजी ।

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  5. बहुत बढ़िया प्रस्तुति, शुभकामनाएँ।

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  6. बहुत बढ़िया विवरण और फोटो के लिए तो शब्द ही नहीं हैं

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    1. ये प्रभु कौन है ?
      रैदास जी का भजन याद आ गया।
      प्रभु जी तुम चन्दन हम पानी !

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  8. स प्रतिमा में न केवल शारीरिक अनुपात का सूक्ष्मता से ध्यान दिया गया है, बल्कि भाव भंगिमाएं भी इतनी अच्छी तरीके से निरूपित की गई है ,कि लगता है कि यह प्रतिमाएं तुरंत बोल उठेंगी । जल में फंसे हुए गज की स्थिति को इस तरह निरूपित किया गया है, कि उसके मुख पर भी का प्रभाव सहज ही दिखाई दे रहे हैं । यहां तक कि जिस जलस्रोत में वह फसा है उस की लहरें और उसमें खिले हुए कमल के पुष्प लहरों की गति अनुसार निरूपित किए गए हैं । भगवान विष्णु और उनके वाहन गरुड़ की भाव-भंगिमाएं यह बताती हैं, कि वह कितनी जल्दबाजी में अपने भक्तों को बचाने के लिए दौड़े चले आए। तत्परता में वह अपना मुकुट भी भूल आए जिसे लेकर उनके सेवक गण पीछे से आए इस बात को भी शिल्प में प्रमुखता से स्थान दिया गया है । सामान्यता हमने गजेंद्र मोक्ष की कथा में भगवान विष्णु द्वारा गज को ग्राह या मगर से बचाते हुए देखा सुना है । लेकिन यहां पर ग्राह्य मगर की जगह नाग और नागिन दिखाए गए हैं । कहाँ से लाते हैं आप इतना ज्ञान ? मैंने कहा था आपको और ललित शर्मा जी को फुरसत से पढ़ना चाहिए क्योंकि आपके पोस्ट की एक लाइन अगर मिस हुई तो तारतम्य बिगड़ जाता है ! मन लालायित है यहां जाने को लेकिन अभी तक ऐसा सुअवसर नहीं आया !! अद्भुत और अकल्पनीय स्थापत्य !!

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    1. बहुत बहुत आभार योगी जी । ज्ञान लाना नही पड़ता , ज्ञान तो हर जगह बिखरा पड़ा है । बस उसे देखने का नजरिया चाहिए ।

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  9. बहुत ही अच्छा वृत्तात। आपके कारण हमें आज देवगढ़ नाम के जगह के बारे में जानने और पढ़ने के लिए मिला। इतने पुराने मंदिर की शिल्प इतनी अच्छी है कि आज का शिल्प उसके सामने फीका लगता है। आजकल तो सांचे में ढाल कर निर्माण कार्य होता है पहले छेनी-हथौड़े से नक्काशी की जाती होगी कितनी मेहनत लगती होगी जिसे लोगों ने तहस-नहस कर दिया। इससे तो यही झलकता है कि प्राचीन समय के लोग हम आधुनिक लोगों से ज्यादा बड़े शिल्पी और हुनरमंद थे, आज विज्ञान के युग में हम कहते हैं कि ये बना लिया, ये कर लिया पर उन लोगों के पास विज्ञान नहीं था, फिर भी हमसे आगे थे।

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  10. वाकई में देवगढ़ एक जबरदस्त देखने लायक जगह है और इसका location प्रकृति के मध्य ऐसी जगह है जहां जाते जाते ही आनंद आ जायेगा... बहुत बढ़िया

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  11. देवगढ़ का दशावतार मंदिर घुमते समय बहुत सारे प्रश्न दिमाग में उठ रहे थे सारे जबाब एक साथ मिल गये बहुत अच्छी जानकारी हैं

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ab apki baari hai, kuchh kahne ki ...

orchha gatha

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