गुरुवार, 25 जून 2009

मील का पत्थर

काफिले गुजरते रहे, मैं खड़ा रहा बनके मील का पत्थर
मंजिल कितनी दूर है, बताता रहा उन्हें जो थे राही-ऐ-सफर
आते थे मुसिर, जाते थे मुसाफिर , हर किसी पे थी मेरी नज़र
गर्मी,बरसात,और ठण्ड आए गए , पर मैं था बेअसर
हर भूले भटके को मैंने बताया , कहाँ है तेरी डगर
थके थे जो, कहा मैंने -मंजिल बाकि है,थामो जिगर
चलते रहो हरदम तुम, गुजर गये न जाने कितने लश्कर
मुसाफिर हो तुम जिन्दगी में, न सोचना यहाँ बनाने की घर
दिन गुजरना है, सबको यहाँ , नही है कोई अमर
गर रुक गए तो रुक जायगी जिन्दगी, चलते रहो ढूंढ के हमसफ़र
एक ही मंजिल पर रह ख़त्म न होगी, ढूंढो मंजिले इधर उधर
रह काँटों की भी मिलेगी तुम्हे, आते रहेंगे तुम पर कहर
मुश्किलों से न डरना , क्योंकि मिलेगा अमृत के पहले ज़हर
काफिले गुजरते रहे , मैं खड़ा रहा बनके.........मील का पत्थर
आपका अपना ही स्नेहिल
मुकेश पाण्डेय "chandan"














2 टिप्‍पणियां:

  1. गर रुक गए तो रुक जायगी जिन्दगी, चलते रहो ढूंढ के हमसफ़र
    एक ही मंजिल पर रह ख़त्म न होगी, ढूंढो मंजिले इधर उधर
    रह काँटों की भी मिलेगी तुम्हे, आते रहेंगे तुम पर कहर
    मुश्किलों से न डरना , क्योंकि मिलेगा अमृत के पहले ज़हर

    ववाह...वाह... बहुत गहरी बात कह दी आपने .....लाजवाब .....!!

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ab apki baari hai, kuchh kahne ki ...

orchha gatha

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