इस श्रृंखला की पिछली तीन पोस्ट से इतना तो आप जान ही गए होंगे , कि बाबा गुप्तेश्वर के धाम तक पहुंचना इतना आसान नहीं है। अगर आपने पिछली पोस्ट नहीं पढ़ी तो नीचे लिंक दे रहा हूँ , क्लिक करके पढ़ लीजिये तभी असली आनंद आएगा।
अगर पढ़ चुके है , तो बहुत अच्छी बात है , बम भोले करते हुए आगे बढ़ते है।
तो अँधेरी रात में जंगल के बीच से कठिनतम चढ़ाई करके हम लोग बोल बम का नारा लगते हुए आएगी बढे। कई बाधा आई पर जब बाबा का सहारा हो तो फिर मुश्किल कैसी ! अब सुबह हो चुकी थी , बिना पेट खाली किये हम लोग आगे बढ़ रहे थे , सुबह की ठंडी और सुहावनी बयार की मस्ती में बड़े आराम से चल रहे थे। पर ये आराम ज्यादा देर नहीं टिका। अब सूरज नारायण धीरे धीरे उग्र होने लगे थे , और शरीर पसीना छोड़ने लगा था। रस्ते में कई बरसाती झरने मिले तो ऐसे ही एक झरने पर कुछ लोगो ने नहाया। अब लगातार चलना मुश्किल हो रहा था , तो सुस्ता -सुस्ता के आगे बढ़ रहे थे। सुबह से नींबू वाली चाय के अलावा कुछ नहीं लिया था। अब सुबह होने से हमें लौटने वाले बम भी मिलने लगे , जिन्हे देख कर लगने लगा कि हम करीब आ गए। अब हम पहाड़ की कठिन उतराई उतर चुके थे। उतरते ही कुछ दुकाने मिली जहाँ हमने हम लोग नींबू वाली चाय पीने रुके या इसी बहाने सुस्ताने लगे। सबसे बुरी हालत मेरी और संजय सिंह जी की हो चली थी। हमारी शारीरिक मेहनत की आदत लगभग ख़त्म सी हो गयी है इसलिए यहां इतना चलना अखर रहा था। जबकि बाकि लोग मजे से चल रहे थे। खैर चाय पीकर सब चलने तैयार हो गए , हम दोनों भी मजबूरन चल पड़े। मन तो बहुत चलने को कर रहा था , मगर तन तो साथ दे।
आगे दुर्गावती नदी मिली , ये नदी ऊपर से बहुत खूबसूरत चमकती हुई चाँदी की लकीर सी दिख रही थी, लेकिन आस आने पर तेज प्रवाहनी थी , इसका कारन एक दिन पहले हुई बारिश थी। स्थानीय लोगों ने या कहे नक्सलियों ने सीमेंट के पिलर बनाकर लकड़ियों के द्वारा एक अस्थायी पुल का निर्माण किया था , जो तेज बारिश में नदी का पानी बढ़ने पर बह जाता है। अभी तक पुरे रस्ते में हमें दर्शनार्थी ो खूब मिले मगर उनके लिए प्रशासन की तरफ से सुविधा के नाम पर हाथ सलाई शून्य ही मिला। लेकिन इतनी कठिनाई के बाद भी लोग श्रद्धा और भक्ति के बल पर बाबा के दर्शन करने आते है। हैरानी की बात इतनी कठिनाई में महिलाएं , बच्चे और बुजुर्ग भी आते है। खैर अपने जीवन में पहली बार लकड़ी के इस तरह के पुल को देखा था। इस सेतु के निर्माणकर्ताओं ने बाकायदा टोल बसूलने का इंतजाम कर रखा था। प्रति व्यक्ति मात्र दस रुपये। कुछ लोगों ने बिना पैसे दिए ही नदी की धार में से नदी पार करने की कोशिश की , मगर धार तेज होने से अंततोगत्वा दस रूपया खर्च कर नदी आर करने में ही भलाई समझी। हम भी इस रोमांचक जुगाड़ू पुल से नदी पार की।
अब चढ़ाई- उतराई की जगह समतल जमीन ने ले ली थी। पर जंगल साथ ही था। कुछ किलोमीटर चलने पर पगडण्डी से कुछ चौड़ा रास्ता मिला , जिसमे ट्रेक्टर के चक्के के निशान भी मिले। राहगीरों से पूछने पर पता चला कि ये चेनारी वाला रास्ता है। बरसात होने के पहले स्थानीय लोग ट्रेक्टर से अपनी दुकानों के सामान और रसद सामग्री ले आते है। और बरसात होते ही दुर्गावती नदी चेनारी वाला रास्ता बंद कर देती है। हालाँकि महाशिवरात्रि के समय दोनों रास्ते खुले होते है। सावन और फागुन के अलावा बाबा के दर्शन बंद रहते है। फागुन में आसान रास्ते से तो आया जा सकता है, मगर प्रकृति की इतनी सुंदरता छूट जाती है। आप कुछ देर के लिए अपनी आंखे बंद कर कल्पना कीजिये, कि आप हरे भरे पहाड़ से गुजर रहे है , आसपास के पेड़-पौधे बारिश से नहाकर आपका स्वागत कर रहे। चलते-चलते पहाड़ो की चोटियों से झरने फूट पड़े , उनका झर-झर का कोलाहल शोर नहीं पैदा कर रहा बल्कि संगीत की मधुर तान लग रहा है , इस संगीत में साथ देने पक्षियों की चहचहाट भी है। ऊपर नीले आसमान में रुई केफाहे से सफ़ेद बादल माहौल को चार चाँद लगा रहे है। सोचिये जब ये सब कल्पना में ही इतना प्यारा लग रहा है , तो वास्तविकता में कितना अच्छा लगेगा। तो इन नजारो का लुत्फ़ उठाये हुए हमारा कारवां आगे बढ़ रहा था। लौट रहे लोगो की एक बात बड़ी अच्छी लगी , कि जिससे भी पूछो - कितनी दूर और चलना है ? तो पिछले चार-पांच किलोमीटर से हमें एक ही जवाब मिल रहा था। बस ज्यादा नहीं एक-दो किलोमीटर ! तो वापिसी कर रहे श्रद्धालु जाने वालों का मनोबल नहीं तोडना चाहते। हम भी एक-दो किलोमीटर की आस में जब एक-दो किलोमीटर आगे बढ़ते और पूछते तो वही ढाक के तीन पात !
खैर अब सचमुच बाबा के नजदीक पहुँच गए , क्योंकि अब दुकानें ज्यादा मात्रा में दिखने लगी थी। लोग भी भीड़ के रूप में दिखने लगे थे। बोल बम का नारा गूंज रहा था। लेकिन दुकानों तक पहुंचने दुर्गावती नदी फिर रास्ता रोके बह रही थी , ये नदी तीन चार बार रास्ते में मिली। हालाँकि यहां ज्यादा गहरी नहीं थी , तो हमने भी दूसरो की देखादेखी में पैदल ही नदी पार की। नदी के ठन्डे पानी से थकान भरे पैरों को बड़ा आराम मिला। कई लोग यही स्नान कर रहे थे , और यही से जल भर रहे थे। तो कुछ लोग जंगल के दूसरी तरफ प्लास्टिक के लौटे लेकर जा रहे थे। एक दुकान पर पूछने पर पता चला। कि लोग शीतल कुंड से जल भरकर ला रहे है, और वही स्नान भी कर रहे है। शीतलकुण्ड की दुरी 100 मीटर जंगल के अंदर बताई। पर हम हिम्मत हार चुके थे। फिर सोचा जब यहां तक चुके है, तो 100 मीटर और चल लेते है।
एक दुकान से प्लास्टिक के छोटे छोटे लोटे ख़रीदे ताकि जल भरकर बाबा को चढ़ाया जा सके। अब मन से चल पड़े क्यूंकि तन तो थक चुका था। शीतलकुण्ड के नाम से ऐसा लग रहा था , कि कोई कुंड या पोखर होगा , जिसे शीतलकुण्ड कहा जाता है। लेकिन वहां पहुंचकर नए नज़ारे देखने मिले। सामने ऊँचे पहाड़ से दो झरने से पानी रहा था। नजारा देखकर सारी थकान उड़न छू हो गयी। पैरों में पंख लग गए। पहले जहाँ 100 मीटर लम्बी दूरी लग रही अब दूरी ख़त्म हो गयी। वास्तव में इस नज़ारे की हमें उम्मीद ही नहीं थी ये हमारे लिए बोनस पॉइंट था संजय जी हमे शीतलकुण्ड का जिक्र कर रहे , पर हमारे दिमाग में कुंड ही था , झरना नहीं। अब हम सब तैयार हो गए जल प्रपात स्नान के लिए। हमने दो बार में तीन-तीन लोग करके स्नान किया। तीन लोग स्नान करते बाकी तीन लोग सामान की रखवाली करते हुए फोटो खींच रहे थे। ऐसी जगहों पर सामान का सुरक्षा करना जरुरी होती , वरना सावधानी हटी और दुर्घटना घटी। अब जहाँ भारी मन से आये थे , वहां से मन भर ही नहीं रहा था। हम लोग लगभग डेढ़ घंटे नहाये। फिर जल लेकर चल पड़े बाबा की गुफा ऒर... अब थकान गायब हो चुकी थी।
अस्थायी दुकानों से होते हुए हम बाबा गुप्तेश्वरनाथ की रहस्यमयी गुफा की बढ़ चले। बाबा गुप्तेश्वर नाथ की गुफा के पहले बाहर एक चबूतरा बनाकर मंदिर जैसा नया निर्माण किया गया है। उसके बाद अंदर पूरी गुफा प्राकृतिक है। गुफा के अंदर जनरेटर के माध्यम से बल्ब जलाकर रौशनी की व्यवस्था की जाती है। अंदर जाने पर ऑक्सीजन की कमी होने लगती है , इसलिए आपातकालीन व्यवस्था के लिए ऑक्सीजन सिलिंडर की भी व्यवस्था भी की गयी है। हम लोग भी गुफा के अंदर बाबा का जयकारा लगाकर प्रवेश कर गए। अंदर जगह की कमी थी , और बल्ब जलने के कारण गर्मी भी लग रही थी। जैसे जैसे गुफा के अंदर जा रहे थे , वैसे ही दम घूंट सा रहा था। इससे पता चलता है, ऑक्सीजन वाकई में कम हो रही थी। सबकी साँस अपने आप ही तेज चलने लगी थी। खैर हम अंदर बाबा गुप्तेश्वरनाथ के समीप पहुँच ही गए। वहां बाबा का प्राकृतिक शिवलिंग था। इसका आकार सामान्य शिवलिंग जैसे नहीं था। शिवलिंग के पास एक दाढ़ी वाले साधु बाबा भी बैठे थे। आश्चर्य इस बात का कि सामान्य व्यक्तियों का जहाँ थोड़ी देर में ही दम घुंटने लगा , वहां ये साधु बाबा इतनी देर से कैसे बैठे होंगे ? खैर लोग दम घुटने के कारन जल्दी ही प्लास्टिक वाले लौटे सहित जल चढाकर वापिस लौट रहे थे शिवलिंग के आसपास बहुत से प्लास्टिक के लौटे पड़े हुए थे। ये देखकर मुझे बड़ा बुरा लगा। एक तरफ हम ईश्वर के दर्शन के लिए इतने कष्ट सहनकर यहां तक आये और दूसरी तरफ ईश्वर के पास उन गन्दगी कर रहे है। कितनी ओछी मानसिकता है ? हम भी बाबा को जल चढ़ाकर लौटे और साथ अपने प्लास्टिक के लौटे भी वापिस लाये। बाहर वो लौटे दुकानदार को वापिस कर दिए।
अब दर्शन करने के बाद भोजन की इच्छा जोर मार रही थी। तो एक अच्छी सी दुकान देखकर डेरा जमाया। यहां पूड़ी तौलकर मिल रही थी। अतः हम लोगों ने डेढ़ किलोग्राम पूड़ी और सब्जी के साथ जलेबी का भी आर्डर दिया। भरपेट भोजन के बाद कुछ देर आराम किया और निकल पड़े वापिसी के लिए। लौटना भी उसी रस्ते से था, जिससे गए थे। हाँ ईश्वर ने इतना साथ दिया कि बारिश होती रही तो ठन्डे ठन्डे मौसम में भीगते हुए वापिस लौटे। बीच बीच में जब धुप निकल आती थी , तो पसीने में भीग जाते थे। आखिरी उतराई उतरते समय पैर कांपने लगे थे , लगा कि कहीं लड़खड़ाकर गिर न जाऊ , मगर बाबा की कृपा से सभी लोग सुरक्षित पनारी पहुँच गए। इस तरह अपने ही गृह राज्य में इतनी शानदार घुमक्क्ड़ी कभी नहीं की थी। इसके लिए विशेष धन्यवाद के पात्र संजय कुमार सिंह जी है। हम लोगो को दोनों ओर (पनारी-गुप्तेश्वर धाम-पनारी ) से आने-जाने में कुल समय 12 घंटे लगे। हालाँकि संजय जी हमेशा इससे दोगुने समय में गए , मगर इस बार तेज चलने वालों के साथ फंस गए थे। इस यात्रा में सबसे ज्यादा हालत हम दोनों की ही ख़राब थी , क्योंकि चलने की आदत ख़त्म जो हो गयी है ।
गुप्तेश्वर धाम कब जाया जा सकता है - सिर्फ साल में दो बार महाशिवरात्रि (फ़रवरी में ) के समय और सावन (जुलाई-अगस्त )के पूरे महीने में ही जाया जा सकता है। बाकि समय यात्रा बंद रहती है।
कैसे जाये -
वायु मार्ग - नजदीकी हवाई अड्डे पटना और वाराणसी है।
रेल मार्ग -सासाराम मुगलसराय -गया रेल लाइन में एक जंक्शन है। जहाँ से दिल्ली - हावड़ा रूट की गाड़िया गुजरती है।
सड़क मार्ग - सासाराम राष्ट्रिय राजमार्ग क्रमांक 2 ( जीटी रोड ) पर स्थित है। सासाराम से आप टेम्पो , शेयरिंग टैक्सी करके 40 किमी दूर पनारी तक जा सकते है। वहां से पैदल ट्रैक करके जान पड़ेगा।
क्यों जाये ? - यदि आपको धार्मिक, प्राकृतिक , साहसिक यात्राओं में थोड़ी भी रूचि है , तो आपको गुप्तेश्वर धाम अवश्य जाना चाहिए।
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शीतलकुण्ड जल प्रपात का आनंद |
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गुफा का प्रवेश द्वार |
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जलप्रपात का एक मनमोहक नजारा |
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दूर से दीखता जल प्रपात |
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बाबा के भक्त बोल बम के नारे के साथ |
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गुफा के अंदर का दृश्य |
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गुफा के अंदर |
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बाबा गुप्तेश्वर नाथ का प्राकृतिक शिवलिंग |
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पार्किंग का एक दृश्य |
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आपातकालीन व्यवस्था के तहत ऑक्सीजन सिलिंडर भी रखे थे। |
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गुफा में प्रवेश करने के पहले |
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वापिसी भी आसान न थी |
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बाबा का आशीर्वाद और ऐसे दृश्यों के लिए जो कष्ट सही वो कम थे। |