जैसा कि आप सभी ने
पिछली पोस्ट में पढ़ा कि कैसे मैं और मेरे बड़े साले ध्रुव राजगीर घूम चुके थे और अपनी बाइक से अब नालंदा की ओर चल पड़े थे । नालंदा अपने आप में एक बहुत बड़ा नाम है जो भारत ही नहीं बल्कि पूरे एशिया में एक समय अपने उच्चकोटि ज्ञान की वजह से विख्यात था । हमारी बाइक के पहियों के साथ कालचक्र भी घूम रहा था और मैं अलग ही कल्पना लोक में विचरण करने लगा ।
दिल्ली में अलाउद्दीन खिलजी अपने चाचा और ससुर जलालुद्दीन की हत्या कर सल्तनत की गद्दी पर बैठ चुका था, और उसके कारिंदे पूरे भारत को रौंदने के लिए अलग-अलग दिशा में निकल चुके थे । उन्हीं में से एक कारिंदा दोआब के क्षेत्र से होते हुए गंगा पार करके नालंदा की ओर बढ़ रहा था । बख्तियार खिलजी ! जी हां उस दरिंदे का यही नाम था, जो बंगाल की ओर बढ़ते हुए रास्ते में पड़ने वाले तमाम गांव-शहरों और मंदिरों को न केवल लूटते हुए आ रहा था ,बल्कि लूटने के बाद उन्हें तहस-नहस कर के उनमें आग भी लगा रहा था । बख्तियार खिलजी कि इस लूटपाट की खबर जब नालंदा बौद्ध बिहार के प्रमुख आचार्य के पास पहुंची तो उनके मन में किसी भी प्रकार की घबराहट या बेचैनी नहीं थी, वह निर्विकार रूप से शांत भाव में थे । तभी आचार्य को प्रणाम कर द्वारपाल ने अपनी शंका व्यक्त की। कि आचार्य ! लोग बता रहे हैं बख्तियार बहुत ही नृशंस और अमानवीय तरीके से गांव और नगरों को नष्ट करता आ रहा है । तभी एक अन्य आचार्य ने कहा- लेकिन उससे हमें भयभीत होने की क्या आवश्यकता ? हमारे पास तो स्वर्ण भंडार नहीं है, बस ज्ञान भंडार ही है ! हमारे महाविहार को लूटने से उसे कुछ नहीं मिलेगा ।
अब प्रमुख आचार्य मैं अपना मौन तोड़ा और बोले- आचार्य श्री, इन मुस्लिम आक्रांताओं को सैन्य बल से उतना भय नहीं लगता, जितना कि ज्ञान बल से लगता है । यह सैन्य बलों से तो किसी भी तरीके से निपट सकते हैं, परंतु ज्ञान से लड़ने की क्षमता इनमे नहीं है । यह शस्त्र से तो युद्ध कर सकते हैं परंतु शास्त्र से भयभीत रहते हैं । इन का उद्देश्य सिर्फ लूटपाट करना ही नहीं बल्कि अपने धर्म का प्रसार करना भी है । और इनके धर्म के प्रसार में कहीं भी शस्त्र बाधा नहीं बनी जहां भी इन्हें रुकावटें मिली वहां शास्त्र ने ही उन्हें रोका । इसलिए हमारा नालंदा बौद्ध विहार इनके लिए एक महाकाय शत्रु के समान है । तभी इन्हें गांव से दूर की तरफ धूल भरी आंधी नजर आई, जो इस बात का संकेत थी कि बख्तियार खिलजी की सेनाएं नालंदा की सीमा पर पहुंच चुकी है । और पहुंचते ही उन्होंने मारकाट लूटपाट करना शुरू किया । अहिंसा के उपदेशक और बुद्ध के अनुयाई अपनी कलम से तलवारों से मुकाबला ना कर सके और ज्ञान का यह विश्वविद्यालय धूल धूसरित हो गया । महाविहार के पुस्तकालय में आग लगा दी गई और हजारों बहुमूल्य ग्रंथ धू-धूकर कर जल उठे । चारों तरफ करुण क्रंदन होने लगा नर-नारी ही नहीं अब इतिहास भी रो रहा था ।
ध्रुव के ब्रेक लगाते ही मैं कल्पना लोक से बाहर आया तो देखा सामने ही उस महान नालंदा विश्वविद्यालय की खंडहर खड़े थे ।नालंदा को यूनेस्को ने वर्ष 2016 में विश्व धरोहरों की सूची में शामिल किया । इस तरह से बिहार में महाबोधि मंदिर बोधगया के पश्चात नालंदा विश्वविद्यालय के खंडहर यूनेस्को की विश्व विरासत सूची में शामिल होने वाले स्थानों में दूसरा है । सड़क के दोनों तरफ दो बड़े गेट लगे हुए हैं एक तरफ का गेट नालंदा विश्वविद्यालय के खंडहरों की ओर ले जाता है तो दूसरी तरफ का गेट टिकट काउंटर और नालंदा संग्रहालय की ओर ले जाता है । गर्मी अपने चरम पर थी चटक धूप निकली हुई थी और हमारा शरीर पसीने से तरबतर था । टिकट काउंटर से टिकट लेकर हम नालंदा विश्वविद्यालय के खंडहरों की तरफ बढ़ चले । सामने एक सूचना शिलालेख ने हमारा स्वागत किया । इस शिलालेख के अनुसार छठी शताब्दी ईसापूर्व में भगवान महावीर एवं बुद्ध के काल से ही नालंदा की ऐतिहासिकता के प्रमाण प्राप्त होते हैं बुद्ध के परम प्रिय शिष्यों में से एक सारी पुत्र के जन्म एवं निर्माण के रूप में भी इसे जाना जाता है । प्राच्य कला एवं संस्कृति के विख्यात शिक्षा संस्थान व महाविहार के रूप में इसकी पहचान पांचवी सदी में स्थापित हुई जब चीन सहित अनेक सुदूरवर्ती देशों से बौद्ध भिक्षु ज्ञानार्जन हेतु यहां आते थे । इस संस्थान से जुड़े विद्वानों में नागार्जुन, आर्य देव ,वसुबंधु ,धर्मपाल ,सुविष्णु , असंग ,शीलभद्र ,धर्मकीर्ति ,शांति रक्षित इत्यादि प्रमुख है। इसके अतिरिक्त प्रसिद्ध चीनी यात्रियों में ह्वेनसांग एवं इत्सिंग के नाम उल्लेखनीय है । जिन्होंने अपने यात्रा वृतांतो में नालंदा के महाविहारों , मंदिरों तथा भिक्षुओं की जीवनचर्या आदि का विशेष वर्णन किया है । धर्मशास्त्र ,व्याकरण ,तर्कशास्त्र ,खगोलिकी ,तत्वज्ञान ,चिकित्सा एवं दर्शनशास्त्र आदि इस शिक्षा केंद्र में अध्ययन के प्रमुख विषय थे । अभिलेखीय प्रमाणों के अनुसार समकालीन शासकों द्वारा दान किए गए अनेक ग्रामों के राजस्व से इन महाविहारों का व्यय वहन किया जाता था ।
प्राचीन युग के एक महानतम विश्वविद्यालय के रूप में प्रतिष्ठित नालंदा महाविहार की स्थापना गुप्त सम्राट कुमारगुप्त प्रथम (413-455 ई0) के शासनकाल में की गई थी । कन्नौज नरेश हर्षवर्धन(606-647 ई0) व पूर्वी भारत के पाल शासकों ( 8 वी -12 वी सदी) के समय में भी महाविहारों को राज्य पर से अनवरत प्राप्त होता रहा । भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) द्वारा कराए गए उत्खनन (1915-37 तथा 1974-82) से यहां ईट निर्मित 6 मंदिरों एवं 11 विहारों की सुनियोजित श्रंखला अनावृत हुई जिसका विस्तार लगभग 1 वर्ग किलोमीटर से भी अधिक है । लगभग 30 मीटर चौड़े उत्तर दक्षिण पथ के पश्चिम में मंदिरों की एवं पूर्व में विहारों की श्रंखला है । आकार एवं विन्यास में सभी विहार लगभग एक जैसे हैं । सर्वाधिक महत्वपूर्ण संरचना दक्षिणी छोर पर स्थित मंदिर संख्या 3 है ,जिसमें निर्माण के सात चरण है । इस के निकट छोटे छोटे आकार के मनौती स्तूपों का एक विशाल समूह है । महा विहारों एवं मंदिरों के भग्नावशेषों के साथ-साथ प्रस्तर (पत्थर), कांस्य (कांसा) स्टको मैं निर्मित अनेक मूर्तियां तथा कलाकृतियों उत्खनन से प्राप्त हुई हैं । इनमें विभिन्न मुद्राओं में बुद्ध ,अवलोकितेश्वर ,मंजूश्री ,तारा ,प्रज्ञापारमिता ,मारीचि ,जंभल आदि बौद्ध प्रतिमा है तथा विष्णु ,शिव-पार्वती ,महिषासुर-मर्दिनी, गणेश ,सूर्य इत्यादि हिंदू देव प्रतिमाएं प्रमुख हैं । इसके अतिरिक्त भित्तिचित्र ,ताम्र-पत्र, प्रस्तर और ईटों पर उत्कीर्ण अभिलेख मुद्राएं ,फलक ,सिक्के ,टेराकोटा ,मृदभांड आदि की प्राप्ति हुई है । इन सभी कलाकृतियों एवं पूरा वस्तुओं को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा संचालित स्थानीय संग्रहालय में दर्शकों के लिए प्रदर्शित किया गया है ।
इस सूचना शिलालेख से जानकारी पढ़ने के पश्चात हम दोनों खंडहरों की ओर चल दिए । जहां हमारे टिकट चेक किए गए उसके बाद हमें प्रवेश दिया गया । गर्मी धीरे-धीरे बहुत तेज हो रही थी इसलिए हमने खंडहरों में प्रवेश करने के साथ ही एक पेड़ की छाया के नीचे कुछ देर सुस्ताने का निर्णय लिया । ऊपर नीले आसमान में छोटे-छोटे सफेद बादल बहुत ही मनोहारी दृश्य उत्पन्न कर रहे थे, परंतु नीचे आग बरस रही थी । कभी हमारे पास यहां माली का काम करने वाले एक सज्जन आए और बोले गाइड की जरूरत है । अब शक्ल और सूरत से लग तो नहीं रहा था कि वह हमें गाइड कर पाएंगे । परंतु हमने उनका पारिश्रमिक पूछा तो बोले वैसे तो ₹300 गाइड लेते हैं पर आप लोग ₹100 ही दे देना । मैंने सोचा यूं ही खाली भटकने से इन खंडहरों में कुछ समझ में तो आएगा नहीं, इससे अच्छा इन्हें ही साथ रख लिया जाए । तो उन सज्जन के सामने एक शर्त रखी कि अगर हमें वाकई उन्होंने ढंग से गाइड किया तभी पैसे देंगे ।
अब हम चल पड़े उनके साथ विहार संख्या-1 की ओर । भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा नालंदा में उत्खनन कार्य का प्रारंभ इसी विहार से किया गया था और यह यहां स्थित सभी विभागों में सबसे महत्वपूर्ण विहार भी है । यहां से मुद्राएं ,पाषाण अभिलेख ,ताम्र पत्र इत्यादि अनेक पुरा वस्तुओं के साथ-साथ 9 चरणों में निर्मित एक विशाल विहार भी उत्खनित हुआ जो दो काल खंडों का प्रतिनिधित्व करता है । मूलतः इस विहार का निर्माण छठवीं सातवीं सदी में हुआ है तथा इसका पुनर्निर्माण नालंदा के पतन के दिनों तक अनवरत चलता रहा । इस के प्रांगण में एक छोटा सा मंदिर है जो गुप्त कालीन है ,जबकि उसके निकट ही दूसरा चौकोर मंदिर और उसकी दीवार से सटा गजपृष्टकार (हाथी की पीठ के आकार का) छत एवं डॉट द्वार से युक्त दो कोठियों को जोड़ा गया है । यहां से प्राप्त एक ताम्रपत्र के अनुसार नीचे वाला विहार तृतीय पाल वंश के शासक देवपाल के शासनकाल (810-850 ) में सुमात्रा के एक नरेश ने बनवाया था । विहार में अवस्थित सीढ़ी से यह प्रतीत होता है कि यह विहार कम से कम 2 मंजिला अवश्य रहा होगा । विहार में ऊपरी स्तर पर 34 कक्ष बने थे जिनमें कुछ में भिक्षुओं के विश्राम हेतु शैया एवं पुस्तक और सामग्री रखने के लिए कोनो में अलमारी का भी प्रावधान था । विहार की दीवारों से अग्नि द्वारा नालंदा महाविहार के विध्वंस के प्रमाण भी प्राप्त होते हैं जहां आज भी जली हुई दिखाई देती हैं ।
हमारे गाइड महोदय हमें विद्यार्थियों के कक्ष की ओर ले गए जिनके दरवाजे के सामने नालियां बनी हुई थी । मैं खंडहरों की फोटो लेने में मशगूल था और गाइड महोदय नालियों की तरफ इशारा करके हमारे साले साहब को बता रहे थे कि यहां डाइनिंग सिस्टम था । डाइनिंग सिस्टम सुन कर मेरे कान खड़े हुए और जब मैंने देखा तो गाइड साहब नालियों की तरफ इशारा कर रहे थे । यह देख कर मुझे उनके आंग्लभाषा ज्ञान पर हंसी आई । और मैंने उनकी गलती को सुधारा और बताया कि यह डाइनिंग सिस्टम नहीं ड्रेनेज सिस्टम कहलाता है । हमारे गाइड महोदय हमें अन्य विहारों स्तूपों ,पूजा ग्रहों, छात्रावासों को दिखाते हुए उनकी व्याख्या कर रहे थे । क्योंकि हम भी इतिहास के अध्ययेता रहे हैं ,इसलिए बीच-बीच में उनकी कमियों को सुधार कर उन्हें बता रहे थे । एक तरफ छोटे बड़े कई स्तूप बने हुए थे । स्तूप बौद्ध धर्म में किसी भी व्यक्ति के मृत्यु पश्चात स्मारक स्वरूप बनाए जाते हैं । कई स्तूपों में संबंधित व्यक्ति के अस्थि अवशेष भी रखे होते हैं । यहां बने स्तूपों में बड़े स्तूप विश्वविद्यालय के आचार्यों के और छोटे स्तूप विद्यार्थियों के स्मारक थे । उस समय महामारियां भी फैलती थी जिसके कारण कई बार विद्यार्थी कम उम्र में ही काल कवलित हो जाते थे । और उनके अंतिम संस्कार के लिए उनके घर वालों को सूचना बहुत देर से मिलती थी । इसलिए उन्हें यहीं पर अंतिम विदाई दी जाती थी । चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपनी आत्मकथा सी-यू-की में नालंदा विश्वविद्यालय के बारे में विस्तार से वर्णन किया है । नालंदा विश्वविद्यालय में प्रवेश के लिए भी प्रवेश परीक्षा ली जाती थी । विश्वविद्यालय के द्वारपाल भी इतने विद्वान होते थे, कि सबसे पहले विद्यार्थियों का परीक्षण उन्हीं द्वारपालों के माध्यम से किया जाता था । जब विद्यार्थी उन द्वारपालों के प्रश्नों के उत्तर सही दे पाते तभी उन्हें अगले स्तर के परीक्षण से गुजरना पड़ता । इस तरह नालंदा विश्वविद्यालय में दूर-दूर देशों से भी विद्यार्थी आते और ज्ञान प्राप्त करते । हमारे गाइड महोदय ने छात्रावास के एक कक्ष को ह्वेनसांग का कक्ष बताया । जब हमने कहा कि हम क्यों माने कि यह ह्वेनसांग का ही कक्ष है । तो उनका जवाब था कि अधिकांश चीनी पर्यटक इस कक्ष में अवश्य आते हैं और पूजा पाठ करते हैं । शायद ह्वेनसांग ने अपनी आत्मकथा में अपने कक्ष की स्थिति का वर्णन किया होगा, जिससे वर्तमान में पर्यटकों को अंदाजा होगा कि उनका कक्ष किस तरफ था । हमारे पास इसे ना मानने का कोई कारण नहीं था तो हम उसे ह्वेनसांग का कक्ष मानकर आगे बढ़ चले ।
विश्वविद्यालय में बहुत बड़े-बड़े भांडागार भी थे जहां पर विश्वविद्यालय के शिक्षकों और छात्रों के लिए अनाज सुरक्षित रखा जाता था । हमारे गाइड महोदय ने हमें उस समय के चूल्हे भी दिखाएं, जो आज की तरह नहीं लेकिन बनावट में विशेष आकार के थे । विश्वविद्यालय परिसर में ही अष्टकोणीय कुए का भी दर्शन हमने किया जिसे आज लोहे की जाली से ढक दिया गया है । अब दिन ढलने लगा था और हमने भी फोटोग्राफी करने के पश्चात वापस लौटने का निर्णय लिया क्योंकि इसके पश्चात हमें संग्रहालय भी देखना था और बाइक से गया भी लौटना था । हमारे गाइड साहब की जिन गलतियों का हमने सुधार किया उन्हें उन्होंने दोबारा पूछ कर अपनी पॉकेट डायरी में नोट किया । जब हम उन्हें उनका पारिश्रमिक देने लगे तो उन्होंने विनम्रतापूर्वक हाथ जोड़ लिए अब बोलें आप से मुझे भी बहुत कुछ सीखने मिला हम आपसे पैसे नहीं ले सकते । काफी मान-मनौव्वल करने के पश्चात भी जब उन्होंने हम से पैसे नहीं लिए तो हम भी उन से हाथ मिला कर निकल पड़े संग्रहालय की ओर । सड़क पर आकर हमने अनानास का जूस पिया उसके पश्चात संग्रहालय गए । संग्रहालय में नालंदा विश्वविद्यालय और आसपास के क्षेत्रों से उत्खनित वस्तुएं प्रदर्शन के लिए रखी थी । यहां पर फोटोग्राफी प्रतिबंधित थी इसलिए हमने संग्रहालय के भीतर कोई भी फोटो नहीं खींची । मुझे यह बात समझ में नहीं आती कि संग्रहालयों में फोटोग्राफी प्रतिबंधित तो नहीं करनी चाहिए । फोटोग्राफी से उस काल की संस्कृति और सभ्यता का ज्ञान का प्रसार ही होगा । खैर अब हम वापस बाइक से गया की ओर निकल पड़े नालंदा को अपनी यादों में संजोकर । दिन ढलने के कारण पावापुरी नहीं जा सके जो भगवान महावीर से ना केवल जुड़ी है बल्कि जैन धर्म का एक बहुत ही महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल है ।
- मुकेश पांडेय 'चँदन '
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प्रवेश करते ही ASI का स्वागत |
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नालंदा की जानकारी देता शिलापट्ट |
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प्रवेश करते ही प्रथम दर्शन |
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चटख धूप में नील आसमान में सुन्दर बादल |
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हमारे गाइड महोदय हमें जानकारी देते हुए |
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छात्रावास के कमरे |
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छात्रावास के सामने डाइनिंग सिस्टम नहीं ड्रेनेज सिस्टम बना था। |
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दूसरी मंजिल तक जाने के लिए सीढियाँ |
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सभागृह का मंच |
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यहाँ भगवान बुद्ध की मूर्ति स्थापित रही होगी |
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एक कुंआ |
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गज पृष्ठाकार छत |
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पिरामिड के आकार की छत |
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मनौती स्तूप |
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एक विशेष प्रकार का चूल्हा |
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मैं और ध्रुव स्तूप के अवशेषों के सामने |
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यूनेस्को द्वारा घोषित विश्व विरासत स्थल का पटल |
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संग्रहालय का प्रवेश द्वार |
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इसी तरह का घंटा हमे राजगीर में भी मिला था। |
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अप्प दीपो भव (बुद्ध का अंतिम सन्देश ) के शुभ विदा |
ग़ज़ब और गूढ़ जानकारी की रोचक प्रस्तूति और शानदार फोटोज से तो मानों आपके साथ साथ हम भी इस विश्व धरोहर के दर्शन कर आये । शुभकामनाएं और आभार पाण्डेय जी ।
जवाब देंहटाएंआज पूरा दिन लग गया तब जाकर पोस्ट पूरी हो पाई । आभार
हटाएंबहुत बढ़िया ज्ञानवर्द्धक पोस्ट,पांडेय जी👌
जवाब देंहटाएंयूं ही स्नेह बनाये रखिये ओम भाई
हटाएंबहुत ही सुंदर पोस्ट। खिलजी उस समय का औरंगजेब था। इसलिए उसने मन्दिरो को लूटा व हर जगह को तहस नहस किया। आपकी यह पोस्ट बढिया लगी।
जवाब देंहटाएंखिलजी और औरंगजेब में तुलना नही हो सकती । औरंगजेब को खुदा का कुछ खौफ था, जबकि अलाउद्दीन तो खुद को ही खुदा मानता था ।
हटाएंआभार
बहुत अच्छी जानकारी दी आपने। अधिकांश संग्रहालयों में फोटोग्राफी प्रतिबंधित होती है। मुझे भी इस पर सख्त आपत्ति होती है। फोटो खींच के हम क्या बिगाड़ लेंगे। बुद्ध से संबंधित अधिकांश स्थानों पर इस तरह का घंटा दिखायी पड़ता है।
जवाब देंहटाएंजी, आभार
हटाएंबहुत उत्तम और स्मरणीय जानकारी मिली ।
जवाब देंहटाएंनालन्दा विश्वविद्यालय में बौद्ध धर्मावलंबियों का अधिपत्य था और अहिंसक तो थे पर हिन्दू धर्म को बहुत नीचा दिखाते थे ।
दूसरी बात,बख्तियार खिलजी के 1200 सैनिक 12000 से भी ज्यादा गुरु-शिष्य पर भारी पड़ गये। 🤔
मेरी राय नहीं है बल्कि किसी पोस्ट पर ऐसा कमेंट्स था, कृपया अपनी राय दे?
कुरुतिया तो हर धर्म मे होती है । लेकिन नालंदा सिर्फ धार्मिक केंद्र नही था । हिन्दू शासक गुप्त, हर्ष और पाल ने इसे पाला पोसा । यह ज्ञान का बहुत बड़ा केंद्र था ।
हटाएंवाह, बेहद खूब लिखा आपने मुकेश जी।
जवाब देंहटाएंविकास जी , यूं ही स्नेह बनाये रखिये ।
हटाएंइतिहास की खूबसूरत जानकारी
जवाब देंहटाएंइसे खूबसूरत तो नही कह सकते विनोद भाई, खूबसूरत तो तब होता जब हम उस विध्वंस पर फिर से नीड़ का निर्माण करके अपनी ज्ञान पताका फहराते ।
हटाएंअच्छी जानकारी और सुन्दर तस्वीरों से सजी एक बढ़िया पोस्ट .साँझा करने के लिए धन्यवाद .
जवाब देंहटाएंआभार , नरेश जी स्नेह बनाये रखिये ।
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (27-02-2017) को "नागिन इतनी ख़ूबसूरत होती है क्या" (चर्चा अंक-2894) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभार शास्त्री जी, यूं ही आशीर्वाद बनाये रखिये
हटाएंविश्वविद्यालय के द्वारपाल भी इतने विद्वान होते थे, कि सबसे पहले विद्यार्थियों का परीक्षण उन्हीं द्वारपालों के माध्यम से किया जाता था । जब विद्यार्थी उन द्वारपालों के प्रश्नों के उत्तर सही दे पाते तभी उन्हें अगले स्तर के परीक्षण से गुजरना पड़ता । ओह ! कितना कुछ झेला है इस महान देश ने ! मुस्लिम आक्रांताओं ने न सिर्फ वैभव पर आक्रमण किया अपितु ज्ञान केंद्रों को भी तहस नहस कर दिया !! जीती जागती मिसाल नालंदा से परिचित कराने के लिए धन्यवाद पांडेय जी
जवाब देंहटाएंआभार योगी जी
हटाएंहमारा भी नालंदा दर्शन संपन्न हुआ। बहुत सुंदर वर्णन। सारिपुत्र के भस्मावशेस संभवतः सांची में हैं। एक चौकोर पत्थर जो ढक्कन रहा होगा उस पर सारिपुतस पढ पाया था।
जवाब देंहटाएंसर,आपने सही कहा । सांची में सरीपुत्त तिस्य और मोग्गलायन के अस्थि अवशेष है । स्नेहशीर्वाद बनाये रखिये
हटाएंआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन वीर सावरकर और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
जवाब देंहटाएंआभार हर्षवर्धन
हटाएंबहुत अच्छी समीक्षा।
जवाब देंहटाएंनालन्दा देख कर आने की इच्छा जागृत कर दी आपके इस ब्लॉग ने
jaroor jaiye bahut bhi acha lagega aapka waha jakar
हटाएंबिल्कुल जाइये ।
हटाएंवाह पांडेय जी बहुत अच्छा वृत्तांत लिखा आपने और साथ में नालंदा का इतिहास भी। महाविहार के विहार संख्या आठ या नौ में जो भी हो ध्यान नहीं आ रहा, एक अष्टकोणीय कुआं है जिसे देखने से आप लगता है चूक गए। उस कुएं की गहराई बहुत अधिक है। महाविहार के विपरीत दिशा में जिस संग्रहालय में गए वहां मेरे गांव से खुदाई में प्राप्त कुछ मूर्तियां भी रखी गई है जिसे मैं अबकी बार गांव जाऊंगा तो आपको दिखाऊंगा। मेरे गांव में एक खेत में हजारों छोटी-छोटी मूर्तियां निकली थी जिसे हम बच्चे खिलौना समझ कर खेला करते थे पर बाद में कुछ मूर्तियां खरीदकर पुरातत्व विभाग वाले ले गए और उसे उस संग्रहालय में सुरक्षित रखा है। कुछ मूर्तियां अभी भी हमारे घर में सुरक्षित रखी हुई है।
जवाब देंहटाएंजिसे आपने गाइड बनाया कि आपको कुछ बताए वो खुद आपकी गाइडिंग में घूम रहा था।
अष्टकोणीय कूप देखने से हम चूक गए । आभार आपका
हटाएंजिस बख्तियार खिलजी ने पूरे विश्वविद्यालय को जला दिया उसी के नाम पर नालंदा से 42 किलोमीटर उत्तर गंगा के किनारे पर एक शहर का नाम है बख्तियारपुर। पता नहीं उस नाम को सरकार बदल क्यों नहीं देती। ऐसे विनाशक के नाम पर एक शहर का नाम रखना मुझे तो कहीं से उचित नहीं लगता।
जवाब देंहटाएंभारत मे अभी भी बहुत ही जगहों के नाम ऐसे खुंखारों के नाम पर है । बख्तियारपुर तो सुशासन बाबू का क्षेत्र हैं ।
हटाएंवाह !!!!!!! चन्दन जी आपके इस सचित्र लेख की जितनी प्रशंसा करूं कम है | हम्बहुत दूर वालों के लिए तो नालंदा किसी अन्तरिक्ष यात्रा से कम नहीं | पर आप भाग्यशाली है जो इस तीर्थ की यात्रा कर पाए | भारत के गौरवशाली अतीत की साक्षी इस पुण्य धरा के कण कण को कोटि - कोटि नमन है | यहाँ की पावन रज और एक एक तिनका दर्शनीय है | काश !कभी मुझे भी इस पावन भूमि को अपनी आँखों से देखने का सौभाग्य मिले | आपका हार्दिक आभार जो इतनी बारीकी से सभी चींजे लिख पाए जिन्हें देख पढ़कर मन की कई जिज्ञासाए तो जरुर शांत हुई हैं | और सार्थक टिप्पणियों ने भी आपके लेख की विषय वास्तु को विस्तार दिया है | सादर , सस्नेह पुनः आभार |
जवाब देंहटाएंआभार रेणु जी
हटाएंअदभुत दृश्य और अनुपम शब्द!
जवाब देंहटाएंआभार जी
हटाएंबेहतरीन और ज्ञानवर्धक......👍
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आपका हमें इससे रूबरू कराने के लिए..,🙏
शुक्रिया सर
हटाएंबढ़िया जानकारी।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद भाई
हटाएंअहा मस्त जानकारी । इतिहास ने मुझे सदैव ही अपनी और खींचा है ।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया हरेन्द्र भाई
हटाएंThat was a breezy read. It is not easy to write history in a breezy way, people either make it too academic or too loose. Pics were excellent and added to understanding, specially for me who is yet to visit it.
जवाब देंहटाएंThanks a lot jayshree ji
हटाएंनालंदा का इतिहास सचमुच में आकर्षित करने वाला है, आपने बखूबी नालंदा अवशेष के दर्शन अपनी लेखनी और चित्रो के माध्यम से करवाये उसके लिए धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंआपका भी आभार
हटाएंलीजिए आज दुबारा पढ़ लिया, ये जगह ही ऐसी कि दो बार क्या और भी पढ़ेंगे। आपकी इस पोस्ट में लगे फोटो देखकर एक बार फिर से जाने का मन हो रहा हैए हम तो सूखे मौसम में गए थे जब जगह सूखा सूखा थाए आप माॅनसून में गए और इतने अच्छे अच्छे फोटो आए।
जवाब देंहटाएंतो जल्दी ही घर का एक चक्कर लगा आइये
हटाएंबख्तियार खिलजी ने नालंदा को उजाड़ा और बगल में ही एक शहर का नाम बख्तियारपुर रखा हुआ। पता नहीं सरकार भी नहीं जागती, कम से कम इस जगह का नाम तो बदलना चाहिए। जिसने एक फलते-फूलते संस्कृति का उजाड़ दिया उसके नाम पर उसी क्षेत्रा में एक शहर का नाम रख दिया गया।
जवाब देंहटाएंबढ़िया जानकारी...,ज्ञान बल की ताक़त ही अलग है....
जवाब देंहटाएंअप्प दीपो भवः
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