शुक्रवार, 30 जून 2017

लालकिले की रोचक तारीख और बुरे फंसे हम !


अब उसके आगे की राम कहानी सुनिए।  तो ओला कैब से हम लोग लाल किला देखने पहुँच गए।  कमल भाई टिकट लेने लाइन में लगे , मैं उनके पास ही खड़ा गपशप करने लगा।  किले में प्रवेश करने  टिकट 30 रूपये की थी, और अगर आप किले के अंदर स्थित संग्रहालय भी देखना चाहते है, तो 5 रूपये अलग से मतलब कुल 35 रूपये की टिकट हुई।  अंदर के संग्रहालय के लिए अलग से टिकट नहीं मिलती।  अब एक मजेदार वाक़्या हुआ।  एक आदमी टिकट काउंटर पर इसी बात पर  बहस  कर रहा था , कि उसे सिर्फ संग्रहालय ही देखना है , इसलिए उसे पांच रूपये की टिकट दी जाये  ! जबकि टिकट कर्मचारी उससे कह रहा था, कि संग्रहालय की अलग से टिकट नहीं मिलती साथ में किले की भी टिकट लेनी होगी।  हम भी मजे लेकर ये ड्रामा देख रहे थे।  और इसके अलावा हमारे पास कोई चारा भी नहीं था।  ड्रामे के पटाक्षेप के बाद अपनी टिकट लेकर चल पड़े लाल किले की ओर। .....
बचपन में टीवी पर स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्रता दिवस की परेड में लाल किले पर तिरंगा लहराते देखते थे,  तो तभी से मन में एक सपना पाल लिया था , कि हम भी एक न एक दिन इस लाल  के दीदार जरूर करेंगे।  वैसे इतिहास का विद्यार्थी जरूर रहा हूँ , लेकिन आज लाल किले का इतिहास लिखने का मन नहीं हो रहा है।  सो अगर आपको लाल किले का इतिहास जानना है , तो हमारे मित्र प्रदीप चौहान जी की पोस्ट पर क्लिक करके पढ़ सकते है।  ये किला जहाँ मुगलों की शान और शौकत का गवाह रहा है , तो इसने मुगलों के साथ ही इस देश की दुर्दशा भी देखी  है।  मुग़ल बादशाह मुहम्मद शाह रंगीला (1721- 1748 ) के कार्यकाल में जब ईरानी शासक नादिरशाह ने 1739 ईस्वी में दिल्ली पर हमला कर कत्ले आम किया तो  कई एकड़ के हरम वाले  रंगीला की रूह कांप  उठी थी।  और नादिर शाह अपने साथ इसी लाल किले से कोहिनूर हीरा और तख्ते ताउस ( रत्न जड़ित मयूर सिंहासन ) भी ले गया। वही एक और मुग़ल बादशाह अकबर द्वितीय (1806 -1836 )  जिनकी पेंशन अंग्रेजो ने बंद कर दी थी।  लाल किले के भीतर मुगलिया  सल्तनत की  इतनी बुरी हालात हो गए थे , कि शाही रसोई में तीन दिन तक चूल्हा नहीं जला और शहजादियों को लाल किले के बाहर आकर खाना मांगना पड़ा।  बादशाह की पेंशन की अर्जी लेकर राममोहन राय ( महान समाज सुधारक ) को राजा की पदवी देकर इंग्लैंड भेजा गया।  वो अलग बात है , कि रजक राम मोहन राय जी इंग्लैंड से लौटे ही नहीं और आज उनकी कब्र इंग्लैंड में ही बनी है।   इतना ही नहीं आखिरी मुग़ल बादशाह  बहादुर शाह ज़फर के सामने तो अंग्रेजो ने उनके ही बेटों के सिर काट कर थाल में ही परोस दिए थे। और ज़फर को देशनिकाला देकर रंगून भेज दिया , जहाँ आज भी उस बदनसीब बादशाह की रूह अपनी वतन की मिट्टी की चाहत  लेकर भटक रही है।

 लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में,

किस की बनी है आलम-ए-नापायदार में।


बुलबुल को बागबां से न सैयाद से गिला,
किस्मत में कैद लिखी थी फसल-ए-बहार में।

कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें,
इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दाग़दार में।

एक शाख गुल पे बैठ के बुलबुल है शादमान,
कांटे बिछा दिए हैं दिल-ए-लाल-ए-ज़ार में।

उम्र-ए-दराज़ माँग के लाये थे चार दिन,
दो आरज़ू में कट गये, दो इन्तेज़ार में।

दिन ज़िन्दगी खत्म हुए शाम हो गई,
फैला के पांव सोएंगे कुंज-ए-मज़ार में।

कितना है बदनसीब 'ज़फर' दफ्न के लिए,
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में॥

  - बहादुर शाह ज़फर 



खास महल 

लाल किले में सूर्यास्त 
                                              
टिकट के लिए लगी कतार 
लाहौरी गेट के सामने 
मीना बाजार 
शानदार पच्चीकारी का नमूना 
चलिए अब इतिहास  की गलियों से निकल कर वर्तमान में आते है , हमने लाल किले के लाहौरी गेट से प्रवेश किया।  जबकि दूसरा गेट जो दिल्ली गेट के नाम से जाना जाता है ,उसे निकास द्वार के  प्रयोग किया जाता है।  किले के अंदर प्रवेश करते ही एक बाजार मिलता मिलता है।  जिसे एक समय मीना बाजार के नाम से जाना जाता था।  आज भी यहां रास्ते के दोनों तरफ दुकाने लगी हुई है।  दुकानों से गुजर कर हम छत्ता चौक पहुंचे  फिर हमे गॉइड भी मिले , तो जैसा कि पहले ही बताया , आज समय की कमी थी , क्यूंकि आज दीपावली थी, और पूजा के पहले बहन जी के यहां पहुंचना था।  खैर नौबत खाने की ओर बढे , यहां कभी वादकगण वाद्ययंत्र बजाया करते थे।  फिलहाल हमारे सामने ऐसी नौबत नहीं आई।  आगे बढ़ने पर दीवाने आम और अन्य इमारते  मिलती है।  दीवाने आम का प्रयोग मुग़ल बादशाहो द्वारा आम जनता से मिलने , उनकी  समस्याओं को जानने , सुनने और उनका समाधान करने के लिए होता था।  शाहजहां दरबार में बैठने के लिए तख्ते ताउस  नामक  आलीशान सिंहासन  का प्रयोग करता था।  शाहजहां था , बड़ा ही शौक़ीन बादशाह उसने तख़्त में भी नगीने जड़ा रखे थे।  दीवाने खास का प्रयोग खास लोगो के लिए दरबार लगता था।  तो हम खास तो इतने थे नहीं , इसलिए दीवाने खास से खाकसार रुखसत हुए। इसके बाद रंग महल , मुमताज महल , खास महल देखने के बाद जल्दी से पांच रूपये वाले टिकट वाले संग्रहालय की ओर भागे।  क्यूंकि बंद होने का समय होने वाला था।  संग्रहालय में मुगलो के ज़माने के हथियार , पोशाक , वस्तुओं आदि रखी  थी।  संग्रहालय बंद करने के कारण  सबको बाहर कर रहे थे, जब लोग अपने मन से नहीं निकले तो अंदर की लाइट ही बंद कर दी , अब देखो अँधेरे ! मजबूरन सबको बाहर आना पड़ा। किले के अंदर ही वॉर मेमोरियल संग्रहालय है , जिसमे भारतीय वीरों से जुडी वस्तुएं राखी है।  दीपावली की छुट्टी की वजह से वो बंद था।  हम  जब बाहर  आये तो लाल किले की प्राचीर पर शान से तिरंगा लहरा रहा था।  परेड की याद आ गयी।  कुछ देर निहारने के बाद कुछ फोटो खींची।  और चल दिए दिल्ली गेट से किले के बाहर की ओर।  दिल्ली गेट के दोनों तरह दो विशालकाय पत्थर के हाथी खड़े थे।  बाहर जब सड़क पर पहुंचे तो न कोई ऑटो रिक्शा , न कोई कैब और न कोई अन्य साधन ! दीपावली की शाम होने के कारण सब जल्दी घर के लिए निकल लिए  और हम फंस गए।  बस स्टॉप पर गए , मगर वहां पहले से ही भीड़ खड़ी अब करे तो क्या करे ? 
बहादुर शाह जफ़र की यादें 
दिल्ली दरवाजे के बाहर खड़े हाथी 
लाल किले के लाइट और साउंड शो की जानकारी 
फिर बड़ी मुश्किल से एक रिक्शा वाला मिला जो मुस्लिम होने की वजह से दीपावली के लिए  घर भागने की जल्दी में नहीं था।  उसने हम लोगों निकटम मेट्रो स्टेशन चांदनी चौक तक छोड़ा।  और हम किसी तरह दीपावली की पूजा से पहले अपने ठिकाने पर पहुंचे।  लेकिन अगले दिन कुछ ऐसी घटनाएं हमारा इंतजार कर रही थी , कि उन्हें ताउम्र भुलाया नहीं जा सकता।  
लाल किले की प्राचीर के सामने















47 टिप्‍पणियां:

  1. कुछ यही भावनाएँ लेकर हम भी यहाँ पहुंचे थे। बढ़िया संस्मरण।

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    1. आपके संस्मरणों की लिंक मिल जाये तो हम भी आनंद ले सके । स्नेह बनाये रखिये आदरणीय ।

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  2. मजेदार हो गयी आज की यात्रा।जल्दी ही आगे भी घूमा दो।

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  3. दीपावली के दिन यातायात के साधनों कि दिक्कत रहती ही है। वो 5 रुपए वाली बात बहुत अच्छा लगा। अगले भाग के इंतज़ार में.......

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    1. हम तो पहली बार ऐसे फंसे थे । खैर हमारे कमल भाई साथ थे, तो चिंता की बात नही थी ।

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  4. पांडेय जी अबकी बार जब आएगे आप तब लाल किले पर ही मिलने का प्रोग्राम बना लेंगे और जो जगह अब की बार छुट गई है वह भी देख लेंगे। चलो बढिया रहा रिक्शा मिल गया।

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    1. अब दिल्ली दूर नही । सारे दिलदार लोग दिल्ली और आसपास ही विराजे है । लाल किले का लाइट & साउंड शो भी देखना है ।

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  5. पाँच रूपये वाली टिकट ही माँगनी थी आपको भी । लालकिला देखने की इच्छा सभी की वहीं से जन्मी होती है ।

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    1. हैरी भाई, टिकट मैंने न मांगी थी, मैं तो लाइन में भी नही लगा था ।
      जय हिंद

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  6. वाह पाण्डेय जी, मज़ा आ गया पोस्ट पढ़कर। इतिहास की जानकारी बहुत अच्छी लगी और संग्रहालय के टिकट का किस्सा भी रोचक था। मनोरंजन तथा ज्ञानवर्धन का परफेक्ट कॉम्बिनेशन थी ये पोस्ट।

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    1. अभी इतिहास की जानकारी मैंने लिखी ही नही । और आप जानते मैं जब इतिहास लिखने बैठता हूँ,तो सब भूल कर सिर्फ इतिहास में ही खो जाता हूँ । ये दिल्ली यात्रा तो दोस्तों से मिलने के लिए की थी । इतिहास के लिए तो प्रदीप चौहान जी के ब्लॉग का लिंक दिया है ।
      स्नेह बनाये रखिये

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  7. उम्दा लेखन और उतने ही बढ़िया फ़ोटो। पढते पढ़ते अचानक ब्रेक लग गया।आपने एकता कपूर के धारावाहिक जैसे उत्सुकता बढ़ा दी।अगले लेख की प्रतीक्षा में।

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  8. बढ़िया लिखा है पाण्डेय जी.....सही कहा आपने कि पुराने किलो और भव्य महलों ने ही सच में इतिहास को देखा और जिया है..हर इस तरह की इमारत ने जहाँ राजसत्ताओं का शानोशौकत भरा वक़्त देखा है तो वक़्त बदलने पर दुर्दिन भी देखे हैं...

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    1. लाल किले के अच्छे दिन तो हर कोई लिखता है,मैंने सोचा बुरे दिन मैं लिख दूं । सादर धन्यवाद नही कहूंगा । बस स्नेह बनाये रखिये

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    2. लाल किले के अच्छे दिन तो हर कोई लिखता है,मैंने सोचा बुरे दिन मैं लिख दूं । सादर धन्यवाद नही कहूंगा । बस स्नेह बनाये रखिये

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  9. गज्जब। राजा राममोहन राय का पता नही था।

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    1. जब राजाराम की नगरी में रहता हूँ । :-)
      अगली किश्त आपके नाम ...

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  10. यह गीत ज़फ़र की मनःस्थिति को बड़ी बारीकी से दिखाता है

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    1. ज़फ़र एक अच्छा इंसान ,उम्दा शायर लेकिन नाकामयाब बादशाह थे ।
      शुक्रिया स्नेह बनाये रखियेगा ।

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  11. बहुत बेहतरीन लिखा आपने और चित्रों ने मजा दुगना कर दिया पोस्ट का.
    ताऊ प्रकाशन केवल लोक कल्याण कारी सद ग्रंथों का ही प्रकाशन करता है.:)
    #हिंदी_ब्लागिँग में नया जोश भरने के लिये आपका सादर आभार
    रामराम
    ०८७

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  12. मन संजीदा हुआ इतिहास की झलक से। चित्र खूबसूरत है।

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  13. दिल्ली में कोई स्थल सबसे ज्यादा बार देखा है तो यही लाल किला, अंदर से तो हाफ सेंचुरी,
    बाहर का मुझे खुद ही याद नहीं, सन 1991 से लेकर अब तक, बोले तो पढाई से नौकरी के दौरान आवागमन आज भी सुबह शाम इसके दीदार होते रहते है।

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    1. तब तो आपने लाल किले पर लिखा भी होगा । लिंक उपलब्ध कराइये । हम तो ढंग से घूम ही नही पाये ।
      आभार

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  14. हिन्दी ब्लॉगिंग में आपका लेखन अपने चिन्ह छोड़ने में कामयाब है , आप लिख रहे हैं क्योंकि आपके पास भावनाएं और मजबूत अभिव्यक्ति है , इस आत्म अभिव्यक्ति से जो संतुष्टि मिलेगी वह सैकड़ों तालियों से अधिक होगी !
    मानते हैं न ?
    मंगलकामनाएं आपको !
    #हिन्दी_ब्लॉगिंग

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  15. लाल किले के बारे में बढ़िया पोस्ट ।
    अब मुझे ही देख लो कई बार दिल्ली गए पर लाल किला नही देखा, इंडिया गेट, महरौली कुतुबमीनार, कात्यानी देवी मंदिर बस इतना ही दिल्ली घूमा । आपकी नजरो से किला भी देख लिया समझो....

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  16. जोरदार सफर ,लालकिले का 👌 बहुत साल पहले देखा था अब तो सिर्फ स्मृतियां ही रह गई है

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  17. हालाँकि इसे पढ़ते हुए ओरछा के भव्य वर्णन जैसी धारधार उम्मीद थी, पर आपको सम्भवतः इतना समय नही मिल पाया... न घूमने का और न ही इसके अतीत में जाने का (हमे इसके करीब रहते हुए आज तक नही मिला, जबकि दर्जनों बार इसके आगे से भी गुजरे और एक बार तो इसी के प्रांगण में मीटिंग भी कर आये ��) बहरहाल, आपको पढ़ने का आनन्द उसके लेखन की वजह से है किसी इमारत की शोहरत से नही ! इसलिए, लेखन के चलते ही पोस्ट सम्पूर्ण है !
    अगले भाग की प्रतीक्षा रहेगी...

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  18. बढ़िया लेखन पाण्डेय जी....
    😊😊👍👍

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  19. विस्तृत जानकारी और उम्दा फ़ोटोग्राफी बहुत ही पसंद आई पाण्डेय जी

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  20. लाल किला मैंने भी देखा है लेकिन मेरी आत्मा हमेशा मुझसे पूछती है , यहाँ कौन है तेरा मुसाफिर ? ये मेरी गुलामी को फिर से कुरेद देता है लेकिन फिर भीड़ तो लगी ही रहती है !! बढ़िया वृतांत

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  21. बहुत बढ़िया । इतनी बारीकी से वर्णन करना मेरे लिए मुश्किल ही लगता है ।

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ab apki baari hai, kuchh kahne ki ...

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