सोमवार, 30 अप्रैल 2012

बांस के पत्ते का मृत्यु गीत !

शीर्षक देख चौंके नही ..........कभी आपने बांस  के सूखे  हुए पत्ते को बांस पर से गिरते हुए देखा है ? अगर नही तो अब कभी मौका मिले तो देखना ! अभी कुछ दिनों पहले मैं अपने गाँव ( गाँव- भरौली, पोस्ट - सिमरी, जिला बक्सर , बिहार ) गया हुआ था . मेरे घर के पीछे बांसों का एक छोटा सा जंगल जिसे भोजपुरी में कोठी कहते है . इस बार गरम दोपहरी में जब मैं दुवार (घर के बाहर बिहार में पुरुषो के बैठक खाने को कहते  है ) में लेटा रहता था ( मजबूरन बिजली न होने के कारण ) , तो मैंने बांस के पत्तो को बांस से गिरते हुए देखा , देखा तो पहले भी था, मगर कभी इस तरह से नही देखा था . बांस के पत्ते आम पेड़-पौधो की तरह नही सीधे जमीन पर गिरते है . बल्कि बांस के पत्ते जब सूख कर बांस से नीचे गिरते है , तो हवा में कलाबाजियां खाते हुए ऐसे गिरते है , जैसे अपनी  मृत्यु पर नृत्य कर रहे हो .............इस संसार सागर से छूटने का उत्सव मना रहे हो . ..बांस के पत्ते जब बांस से नीचे गिरते है , तो कभी सीधे नही गिरते, वे हवा को काटते हुए..........नाचते से धीरे-धीरे जमीन को ओर बढ़ते है . 
अब इस पर कुछ वैज्ञानिक सोच के लोग कहेंगे कि.....बांस के पत्ते सामान्य पत्तो कि अपेक्षा पतले होते है , और सूखने पर किनारों से मुड़ जाते है . और उनकी संरचना इस तरह कि बन जाती है , कि वो हवा को काट सके .और हवा को काटने के क्रम में वो जमीन पर सीधे न गिर कर घुमते हुए जमीन पर ऐसे गिरते है , मानो नाच रहे हो !  
  मैं  इनकी बात सही होते हुए भी मानने से इनकार कर दूंगा , क्योंकि विज्ञान कितना भी  तर्कपूर्ण हो , मगर वह हरदम संवेदना को नही जान पाता है . वरना इतने विनाशक हथियार ही क्यों बनते ? मैं  तो बांस के  सूखे  पत्तो के  गिरने में  एक कवि की तरह  संवेदना को  बार - बार  निहारूंगा  ! 

बांस के पत्ते  जब सूख कर गिरते है डाल से
तो नाचते हुए कहते है  काल से
रे काल  मुझे कब थी जिन्दगी प्यारी 
पर  तुझे पाने की थी  बेकरारी


 अपनी राय से  अवश्य  अवगत करायें...........इन्तजार रहेगा 

 
  

सोमवार, 9 अप्रैल 2012

कैसे बनेगा देश महाशक्ति !

भारत में दुनिया के सबसे ज्यादा युवा है । इनकी आबादी लगभग ५५ करोड़ है , मगर इनमे से अधिकांश बेरोजगार है ! जहाँ विकसित देशो में जनसँख्या को संसाधन माना जाता है, वहीँ भारत में इसे बोझ माना जाता है। आज हम भारत को भविष्य की महाशक्ति कहते है , मगर किस हिसाब से यह महाशक्ति हो पायेगा ? आज सामरिक शक्ति के आधार पर किसी भी देश को महाशक्ति नही माना जाता है ( पाकिस्तान और उत्तर कोरिया जैसे देशो के पास भी नाभिकीय हथियार है ) आज बौद्धिक संसाधन ही महा शक्ति बनने का मुख्य आधार है , कहने को हम भारतीय प्रतिभा का लोहा मानते नही थकते है ! मगर ये भारतीय मेधा शक्ति कितनी कारगर है ? आज़ादी के बाद हमने कितने अविष्कार किये ? कितने विश्वस्तरीय खोजे हुई ? हम अपने विज्ञान और कला के बलबूते दुनिया को तो ठीक अपने ही देश को क्या दे पाए है ? हमारे यह नोबल पुरस्कार पाने वालो की संख्या अँगुलियों पर ही गिनने लायक है , उनमे से भी अधिकतर भारतीय मूल के है , अगर भारत में रहते तो शायद ही कुछ कर पाते !
आखिर हम इस युवा शक्ति के आधार पर विश्व की महाशक्ति बनेंगे , जिसके बारे में कहा जाता है , कि भारत में हर वर्ष ३३ लाख लोग स्नातक होते है , मगर उनमे से १० % को ही मनचाहा रोजगार मिल पाता है । भारत में हजारो इंजीनियरिंग कोलेज है , जिनमे से निकलने वाले १५ % ही उस डिग्री के योग्य होते है। आज भारत में मेनेजमेंट और सॉफ्टवेर कंप्यूटर सॉफ्टवेर जैसे प्रोफेशनल डिग्री बांटने वाले लाखो संसथान है , मगर ये संसथान बाजार में उपलब्ध नौकरियों के योग्य युवा नही दे प् रहे है । मतलब नौकरियों की कमी नही है , मगर उन नौकरियों के योग्य युवा नही है । हमारे यहाँ के शिक्षा संस्थान सिर्फ नाम की डिग्रियां बाँट रहे है । आज हमारे यहाँ के उच्च शिक्षित युवाओ में बहुत ही कम युवाओ को उस स्तर का ज्ञान है ।
अगर हम इसके कारण को देखे तो कई कारण मिलेंगे । जैसे - सबसे पहले तो हमारी शिक्षा प्रणाली ही गलत है । यह डेढ़ सौ साल पुराणी अंग्रेजो की क्लर्क पद्धति पर आधारित है । इसमें सिर्फ रटंत विद्या पर ही जोर दिया जाता है , न की विषय को समझने पर । हमारी शिक्षा प्रणाली की एक कमी यह है, कि हमारे यहाँ प्रथ्मिल शिक्षा को कभी महत्त्व नही दिया गया है । जबकि प्राथमिक शिक्षा ही देश के विकास का आधार है । इसी के फलस्वरूप हमारे देश के भविष्य का आधार ही कमजोर होता है ,तो आगे कि इमारत का गिरना तय ही है । प्राथमिक शिक्षा पर सरकार का कितना ध्यान है , ये इससे ही पता चलता है , कि देश में इतने शिक्षा आयोग और समितियां बनाई गयी , मगर उनमे एक भी प्राथमिक शिक्षा के लिए नही थी । हमारे देश में प्राथमिक शिक्षक को इतना कम वेतन दिया जाता है , कि योग्य शिक्षक इस ओर आते ही नही , नतीजतन कमजोर या मजबूर शिक्षक देश का आधार तैयार करते है , रटंत प्रणाली के माध्यम से !
खैर हम अगर इन बातों को नजरंदाज़ कर भी दे तो , माध्यमिक शिक्षा के बाद कुछ और मुसीबतें छात्रो के सर पर आन पड़ती है । मतलब कभी भी छात्रो को अपने मन का विषय लेने की छूट नही होती है , या तो अभिवाभाक अपने अधूरे सपने अपने बच्चो के माध्यम से पूरा करना चाहते है । या फिर दुसरो की देखा सीखी विषय चयन किया जाता है । ये भी नही देखा जाता कि बच्चा उस विषय में कमजोर है या उसकी रूचि है । फिर उच्च शिक्षा में तो पूरी तरह व्यवसायीकरण हो गया है । अब संस्थानों को शिक्षा कि गुणवत्ता से तो कोई मतलब सा नही रह गया है । खैर जैसे तेसे डिग्री मिलने के बाद बेरोजगार बन भटकने का दौर शुरू होता है । फिर मजबूरन छोटी मोटी जो भी नौकरी हाथ लगी कर लेते है । सबसे बुरी स्थिति तो हमारे देश में शोध कि है । हमारे विश्व विद्यालय तो सही शोध कि परिभाषा ही भूल गये है ।
एक बार उच्चतम न्यायलय के तत्कालीन मुख्य न्यायधीश न्यायमूर्ति श्री के० जी० बालकृष्णन ने कहा था - " इस देश को तो भगवान् ही चला रहा है "

शनिवार, 7 अप्रैल 2012

जब से आये तुम सजन

हर दिन सुहाना लगने लगा, जब से आये तुम सजन
अब सब मन को भाने लगा, जब से आये तुम सजन
दरवाजे पे दिन-रात आंखे ताकती
हर आहात पे खिड़की से झांकती
हर पल रहता बस ध्यान तुम्हारा
तुम बिन लगे कुछ भी प्यारा
अब दिल भी गुनगुनाने लगा है, जब से आये तुम सजन
हर दिन सुहाना लगने लगा, जब से आये तुम सजन
चाँद भी विरह की आग बरसता
दीपक भी मानो दिल को जलाता
कोकिल की कूक भी कर्कश लगती
तुम्हारे स्वप्न बसा, आंखे दिन-रात जगती
अब दीपक भी जगमगाने लगा, जब से आये तुम सजन
चाँद भी सुधा बरसाने लगा, जब से आये तुम सजन
फूल भी सारे मुरझाने लगते
लोग भी सरे अलसाये लगते
आँखे भी बरसाती थी शबनम
कुछ भी करने में लगे मन
अब भौंरा भी भिनभिनाने लगा, जब से आये तुम सजन
मन भी प्रेम गीत गाने लगा, जब से आये तुम सजन

शुक्रवार, 6 अप्रैल 2012

जिंदगी और मौत


हर किसी की जिन्दगी में एक बार आती है मौत
हर कदम पर कड़वा सच, जिंदगी का दिखाती है मौत
जिंदगी तो करती वेबफाई, पर अपने संग ले जाती है मौत
जिंदगी के कई रंग है, पर एक ही रंग दे जाती है मौत
जिंदगी करती भेदभाव, पर सब के साथ इन्साफ करती है मौत
जिंदगी लगाती दामन में दाग, उस दाग को साफ़ करती है मौत
जिंदगी देती हरदम भागदौड, पर उससे आराम देती है मौत
काम ही काम होते है जिंदगी में, पर उन्हें अंजाम देती है मौत
नींद छीन लेती है जिंदगी, पर हर किसी को सुलाती है मौत
पास होते हुए भी है, जो जिन्दगी से दूर, उन्हें पास बुलाती है मौत
हकीकत है ये जिंदगी की, ये बात सबको डराती है मौत
हर किसी को अपनी सच्चाई का अहसास कराती है मौत
जिन्दगी सूखे पालने में, तो 'चन्दन' की चिता के साथ आती है मौत

गुरुवार, 5 अप्रैल 2012

बाकी रह गये कुछ निशां

जिन्दगी में कुछ छूट जाता है , जाने कहाँ
होता है सब कुछ साथ, पर है दिल तनहा
अतीत की होती है, कुछ रंगीली यादें
कुछ खाली पन्ने , होते है कुछ अधूरे फलसफा
मन करता है, कि फिर लौट चले पीछे
पर बाकी है, अभी देखना आगे का जहाँ
हम तनहा ही चले थे, इस सफ़र में
आज फिर तनहा, छूते जाने कितने कारवां
ख़ुशी सी होती नही, पर गम भी नही
निकले थे कितने अश्क, लगे कितने कहकहा
लहरें यूँ ही आती रही , साहिल पे खड़े हम
आखिर समंदर में डूब ही गया ये आसमां
टूट गये वो बनाये हुए रेत के महल
पर अभी भी बाकी रह गये कुछ निशां......

मंगलवार, 3 अप्रैल 2012

क्रांकीट के जंगल


इन क्रांकीटो के जंगलो में जिंदगी, जाने कहाँ गम हो गयी
हंसती- गाती जिन्दगी सीमेंट के दरख्तों में गुमसुम हो गयी
भागमभाग की लहरों के साथ बहता दरिया कोलतार का
भोर होते शुरू होता कलरव, ट्रकों , बसों , गाडियों और कार का
चलती जब बयार तो झूम उठते तरु इस्पात के
टिमटिमा उठती सितारों सी बत्तियां होते ही रात के
मुसकान लापता है, चीखो के साथ ये जिंदगी बदनाम हो गयी
इन क्रांकीटो के जंगलो में जिंदगी , जाने कहाँ गम हो गयी
कीड़ो सी जिंदगी जीते लोग, जिनका कोई हिसाब है
मुखोटो पे मुखोटे लगाती जिंदगी, खेल ये लाजवाब है
हर तबस्सुम के पीछे छुपा राज, पर गम बेनकाब है
खिलती है कलियाँ अब मशीनी, मशीने ही आफताब है
थी कभी जो 'चन्दन' , वो जिन्दगी आज मशरूम हो हो गयी
इन क्रांकीटो के जंगल में जिंदगी जाने कहाँ गम हो गयी

मील का पत्थर


काफिले गुजरते रहे , मैं खड़ा रहा बनके मील का पत्थर
मंजिल कितनी दूर है, बताता रह उन्हें, जो थे राही-ऐ -सफ़र
आते थे मुसाफिर, जाते थे मुसाफिर, हर किसी पे थी मेरी नजर
गर्मी, बरसात और ठण्ड आये-गये , पर मैं था बेअसर
हर भूले-भटके को मैंने बताया, कहाँ है तेरी डगर
थके थे जो, कहा मैंने - मंजिल बाकी है , थामो जिगर
चलते रहो हरदम तुम, गुजर गये न जाने कितने लश्कर
मुशाफिर हो तुम जिन्दगी में, न सोचना यहाँ बनाने की घर
एक दिन गुजरना है सबको यहाँ, नही है कोई अमर
गर रुक गये तो रुक जाएगी जिन्दगी, चलते रहो ढूंढ के हमसफ़र
एक ही मंजिल पर राह ख़त्म न होगी, ढूंढो मंजिले इधर-उधर
राह काँटों की भी मिलेगी तुम्हे, आते रहेंगे तुम पर कहर
मुश्किलों से न डरना, क्योंकि मिलेगा अमृत के पहले जहर
काफिले गुजरते रहे , मैं खड़ा रहा बनके मील का पत्थर

सोमवार, 2 अप्रैल 2012

अथ श्री गर्दभ कथा ........


कल मुर्ख दिवस पर कई ब्लोगों की सैर की . कुछ दुसरो को मुर्ख घोषित करने में लगे , तो कुछ खुद को ही महामूर्ख घोषित करवाना चाह रहे थे। मुर्ख शब्द सुनने के बाद इंसानों (अगर कुछ लोग नाराज न हो तो ) के बाद जिस जीव का नाम आता है , वो है बैशाखनंदन गर्दभराज जिसे हम आप बोलचाल की भाषा में गधा (कुछ मनुष्य भी इसी श्रेणी में आते है )कहते है। खैर यह जीव बहुत ही मेहनती होता है (बुरा न माने तो कुछ ब्लोगर भी मेहनती होते है ।) बिना सोचे विचारे अथक परिश्रम करता रहता है । इसके गधे होने के कई किस्से प्रसिद्ध है (लेकिन इसमें मेरा कोई योगदान नही है ), जैसे- धोबी (कृपया इसे जाति सूचक शब्द न समझे ) अपने गधे को रस्सी से नही बंधता बल्कि , उसे झूठ-मूठ बांधने का उपक्रम करता है , और यह जीव निर्विकार भाव से 'जैसे थे " की भावना से अपनी जगह पर बिना हिले डुले खड़ा रहता है । इसलिए इसे गधा कहा जाता है ।
इसके गधा कहे जाने का एक किस्सा ये है, कि यह जीव ग्रीष्मकाल में जब बाकी जीव घास कि कमी के कारन दुबले होते है , वही ये गधा यह सोचकर मोटा होता है , कि मैंने सारी धरती की घास खाली , और अब कहीं भी घास ही नही बची ! इसी तरह यह बर्ष ऋतू में चारो तरफ हरियाली देख कर दुबला हो जाता है , कि मैं कुछ भी नही खा पाया हूँ।
खैर कारन जो भी हो , अगर गधा ऐसा नही भी होता तो भी उसे गधा ही कहा जाता । अब पता नही किस गधे (मतलब इंसानी गधे ने ) गधे का पर्याय मुर्ख मान लिया ।किसी कवि ने लिखा है (विश्वास करिए मैंने नही लिखा )
फसल जो खाए वो फसली गधा होता है
जो माईक पे चीखे वो असली गधा होता है
अब इधर कवि महोदय ने ये सपष्ट नही किया , कि माईक पर छेखने वाला प्राणी कौन है , बहुत से मनुष्य माईक पर चीखते है , हमारे सम्मानीय नेता गण (यहाँ मानहानि के दावे के पूर्व ही क्षमा याचना ), आज के रॉकस्टार, कुछ गायक नुमा लोग , कवि सम्मलेन वाले कवि इत्यादि अनेक लोग । खैर इसमें गधे का कोई दोष नही , उसे तो शायद मालूम ही नही , कि मनुष्य उसके बारे में ऐसा सोचता है, वरना वो भी जंतर-मंतर मैदान पर अनशन पर बैठा होता । (कृष्ण चंदर के गधे की बात नही कर रहा हूँ , और न ही शरद जोशी जी के गधे की) ।
खैर छोडिये .......मैंने भी एक जगह कुछ गधे और उनकी पत्नियों (माफ़ कीजिये मुझे नही पता कि मादा गधे को क्या कहते है ) कि कुछ राग रागनियाँ सुनी थी , उसी को कविता के रूप में प्रस्तुत कर रहा हूँ

तानसेन कि समाधि पर हो रहा था एक समारोह
सोचा चलकर देखे , तानसेन के चेलों के आरोह-अवरोह
वहां के हालात देखकर , आँखे नाम हो गयी
क्या ? तानसेन की चहेतों की संख्या कम हो गयी
समारोह में कुछ सफेदी चेहरे वाले प्राणी थे
शायद अब यही तानसेन के रक्षक और वाणी थे
समाधि पर फूलों की जगह लहलहा रही थी घास
मनो उसे भी थी, संगीत के उत्थान की आस
जिसकी तान से जल जाते थे कई दीपक
आज, किसी ली उसकी सुधि तक
वापस आते-आते सुनाई दे गयी , कद्रदानों की वाणी
और हम कान पर हाथ रखे सुन रहे थे, गर्दभ -रागिनी

रविवार, 1 अप्रैल 2012

कलयुग में मुर्ख दिवस के दिन पैदा हुए भगवान राम !! (व्यंग्य)

मित्रो सर्वप्रथम आप सभी को राम नवमी की हार्दिक शुभकामनाये
इसके बाद मैं आपको मुर्ख दिवस की शुभकामनाएं नही दूंगा , क्योंकि आप सभी मुर्ख तो है नही !(जरुरी नही कि मेरी सोच सही ही हो )
तो आज सुबह से राम नवमी से ज्यादा अप्रेल फूल की शुभकामनाएं मेरे मोबाइल के इन्बोक्स में आ रही है । अब मैं ये सोच नही पा रहा हूँ , कि कौन मुर्ख है , मैं (जिसे ऐसे सन्देश आ रहे है ) या वो लोग जो ऐसे सन्देश भेज या फॉरवर्ड कर रहे है । खैर ये सब छोडो कुछ काम की बात की जाये ....अरे यार हंसाने की बात नही है , क्या अफ्रेल फूल के दिन काम नही होता । अगर ऐसा होता तो सरकार अपना वित्तीय वार्षिक वर्ष १ अप्रेल से शुरू नही करती ।( वो अलग बात है ,कि वो हमेशा लोगो को किसी भी दिन मुर्ख बनाने के लिए स्वतंत्र है ) बैंको का वर्ष १ अपेल से शुरू नही होता । आप फिर हंसाने लगे , गलत बात है , मैं कोई लताफा(लतीफे का बड़ा भाई ) थोड़े सुना रहा हूँ ॥
हाँ ,तो मैं अपनी बात शुरू कर रहा हूँ , तो सुबह सुबह मेरे पडोसी गौतम जी फनफनाये से मेरे पास आये , और दांत पीसते हुए आँखे निकलते हुए मुझ को घूरने के अंदाज़ में बोले - हद हो गयी पाण्डेय जी !
मैं थोडा घबरा सा गया , कि भई मैंने आज के दिन मतलब मुर्ख दिवस के दिन कौन सी हद कर दी !
मैंने थोड़े घबराये से अंदाज में पूछा - किस बात की हद हो गयी ?
गौतम जी हाथ नाचते हुए बोले - आपको सोने से फुर्सत मिले तो देश दुनिया की खबर मिले !
मैं फिर रक्षात्मक मुद्रा अख्तियार करते हुए बोला , अब मेरे सोने से कौन सी हद टूट गयी ? मैं कोई गर्द थोड़े हूँ , जो ड्यूटी के वक़्त सो नही सकता है , और मैं तो अपने घर में फुर्सत के समय सो रहा था ।
गौतम जी फिर खिसियाने से अंदाज में बोले - जब आप जैसे लोग घोड़े बेचकर सोयेंगे तो ऐसा तो होगा ही !
अब फिर मेरे आश्चर्यचकित होने की बारी थी , अरे भई , अब मैंने किस के घोड़े बेच दिए , और मैं क्यों घोड़े बेचने लगा ? और सीधे सिद्ध बताओ हुआ क्या है ?
अब गौतम जी कुछ नरम पड़े और बोले - क्या घोर कलयुग आ गया ! भगवान् श्रीराम की जन्म दिन मुर्ख दिवस को मनाया जा रहा है !

मैंने राहत की साँस ली , कि चलो मैंने कोई गलती नही की या मेरा कोई दोष नही है । फिर मैंने चैन की साँस लेते हुए कहा - सही तो है , अब इस देश में लोग राम की पूजा तो खूब करते है , लेकिन उनके आदर्शो को दूर से भी नही अपनाते है । भगवान् को प्रसाद की रिश्वत देकर अपने स्वार्थ पुरे किये जाते है । और मन्नत पूरी होने पर बड़े खुश होते है , कि भगवान को सिर्फ सवा किलो लड्डू या एक सौ एक रूपये में सस्ते में पटा लिया ! तो भगवान् ने भी सोच लिया होगा , बेटा इस बार मैं मुर्ख दिवस के दिन पैदा होऊंगा , और जितने स्वार्थी भक्त रिश्वत देकर मुझे ललचाने कि कोशिश करेंगे उन्हें उनकी ही तरह मैं भी अप्रेल फूल बनाऊंगा !
अब घबराने की बारी गौतमजी की थी , मतलब आज सुबह हो मैं जो भगवान् से अपनी मन्नत कह के आया हूँ , वो पूरी नही होगी ?
नही यार खामख्वाह डर रहे हो , भगवान रिश्वत या प्रसाद के भूखे थोड़े है , और भगवान् अपने सच्चे भक्तो को थोड़े मुर्ख थोड़े बनायेंगे । वो तो झूठे -मक्कार लोगो को मुर्ख बनायेंगे , जिन्होंने अपने स्वार्थो के पीछे पूरे देश को मुर्ख बना रहे है । टेंशन मत लो यार , आओ चाय पीते है । जय श्री राम

orchha gatha

बेतवा की जुबानी : ओरछा की कहानी (भाग-1)

एक रात को मैं मध्य प्रदेश की गंगा कही जाने वाली पावन नदी बेतवा के तट पर ग्रेनाइट की चट्टानों पर बैठा हुआ. बेतवा की लहरों के एक तरफ महान ब...