कुम्भकार सा कच्चे घड़े को , बाहर से चोट , भीतर सहारा
ऊपर से डांट-डपटते, पर दिल में था प्यार कितना सारा
तब डांट बुरी लगती थी, पर मतलब आज समझ आया
हर डांट के पीछे एक संदेसा, एक भरोसा था समाया
सचमुच पिता हमेशा बाहर से कठोर, रहे भीतर से कोमल
अगर हो जाते बाहर से भी कोमल , तो कैसे बनाते हमें निर्मल
बचपन में उनकी डांट -डपट , लगती थी जो बकबक
आज समझ में आया , कि उनमे था कितना सबक
आज समझ में आया , कि उनमे था कितना सबक
जवाब देंहटाएंसही कहा आपने ,बहुत सुंदर बधाई
बहुत बहुत शुक्रिया !
हटाएंबहुत बढ़िया ...... पिता के मन को समझने में अक्सर देर हो ही जाती है.....
जवाब देंहटाएंमोनिका जी , सच ऐसा ही होता है .शुक्रिया !
हटाएंबहुत भावुक कविता।
जवाब देंहटाएंमनोज जी शुक्रिया !
हटाएंबचपन में उनकी डांट -डपट , लगती थी जो बकबक
जवाब देंहटाएंआज समझ में आया , कि उनमे था कितना सबक ,,
न रहने पर महत्व समझ आता है,,,,,,
RECENT POST ,,,,,पर याद छोड़ जायेगें,,,,,
धीरेन्द्र जी मुझे तो उनके रहने पर ही उनका महत्व समझ में आ गया .
हटाएंपिता ऐसे ही होते हैं ... सुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंअक्सर बेटियां ही पिता को समझ पाती है, संगीता जी
हटाएंमन कों छू गयी आपकी रचना ... पिता की सही क्षवि उतारी है ...
जवाब देंहटाएंदिगंबर जी , आभार !
हटाएंशास्त्री जी बहुत बहुत आभार !
जवाब देंहटाएंऐसा ही है पिता का व्यवहार
इतना सच्चा शब्दचित्र देखकर बस दिल भर आया!! बहुत खूबसूरत अभिव्यक्ति!!
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