बुधवार, 18 जनवरी 2017

कटरीना ट्री और सूर्यास्त : ओरछा महामिलन का प्रथम दिवस

ओरछा में बेतवा किनारे छतरियों के पीछे : सूर्यास्त 

इसके पहले के भाग पढ़ने के लिए क्लिक करें 
 राम राम मित्रों ,
                      जैसे कि आपने अभी तक पढ़ा , कि ओरछा भ्रमण के प्रथम सत्र के बाद सभी वापिस होटल खाना  खाने के लिए लौट आये। खाने में पूड़ी, मटर-पनीर की सब्जी , आलू-गोभी की सूखी सब्जी के साथ पुलाव, दाल , रायता और रसगुल्ला के साथ सलाद के साथ सभी हँसते - हँसाते  खाने का लुत्फ़ ले रहे थे।  माहौल ऐसा बना था , मानो किसी अपने की शादी में सब आये हो , और सब एक-दूसरे के रिश्तेदार या पुराने परिचित  हो।  लग ही नही रहा था, कि सब सोशल मीडिया की आभासी दुनिया में एक दूसरे से परिचित हुए और पहली बार मिल रहे है।  इस कथित आभासी दुनिया ने हम सब को न केवल यथार्थ के धरातल पर मिलाया बल्कि एक परिवार के रूप में जोड़ा था।  अपनी अपनी जिंदगी की आपाधापी से दूर एक दूसरे के साथ हंसी-ठिठोली के साथ बड़े -बड़े ठहाके भी लग रहे।  जी हाँ , ठहाके !  जो हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में लगभग लापता से ही हो गए। ऐसे ठहाके हम अपने परिवार या दोस्तों के साथ ही लगा पाते , वो इस पल इन  घुमक्कडों के परिवार में लग रहे थे।  महिलाएं जो इस ग्रुप में शामिल नही थी , और अपने पतियों के साथ आई थी,  वो भी पुरानी सहेलियों की तरह गप्पे मार रही थी।  बच्चे भी अपने हमजोलियों के साथ मस्ती कर  रहे थे।  मुकेश भालसे जी को तो खाना इतना अच्छा लगा कि मुझसे चार बार तारीफ कर चुके।  
                                                                         अभी हम सब खाने में संलग्न थे , कि खबर मिली मुम्बई से दर्शन कौर धनोय जिन्हें सभी प्यार से बुआ जी पुकारते है , विनोद गुप्ता जी , जो इस महामिलन के प्रस्तावक थे, और प्रतीक गाँधी जी जिन्होंने कार्यक्रम में आने के लिए कई लोगों को प्रेरणा दी, अपने सेंधवा (जिला-खरगोन, मध्य प्रदेश) निवासी दो मित्र अलोक और मनोज के साथ झाँसी स्टेशन पहुँच गए है , मैंने उन्हें लिवाने गाड़ी और ड्राइवर भेज दी।   बुआ जी के ओरछा आने की कहानी कम रोमांचक नही है , जो आप उनके ब्लॉग  पर विस्तार से पढ़ सकते है।  बुआ जी , बिना टिकट मुम्बई से झाँसी तक हम सबके प्रेम से चली आयी।  विनोद गुप्ता जी , तो अपने घर में मेरी शादी में आने का बहाना  करके अपने घर से अनुमति लेकर आ पाए।  अब इसे आपस का प्रेम ही न कहे तो क्या कहे ? कि अनजान लोगों से मिलने 1200 किमी दूर से लोग हर मुश्किल को पार कर इकठ्ठा हुए।  हमारे खाना समाप्त करने के पूर्व ही मुम्बईकर लोगों का आगमन हुआ।  और बुआ को देखते ही  पूरे हॉल में सिर्फ बुआ-बुआ का शोर था।  जैसे कोई बड़ा सेलेब्रिटी आ गया हो।  लोग खाना छोड़ बुआ और अन्य लोगों से मिलने खड़े हो गए।  कोई गले मिल रहा , तो कोई पैर छू रहा था।  अद्भुत ही माहौल था।  उस माहौल को वर्णन करने के लिए मेरी स्थिति  फिर गूंगे के गुड़ जैसी हो गयी थी।  
                                                                           प्रेमपूर्ण माहौल में भोजन से निवृत होने के बाद अब आगे के कार्यक्रम हेतु फिर से सब तैयार।  चूँकि साढ़े चार बज चुके थे , और पांच बजे तक सभी ऐतिहासिक इमारतें बंद हो जाती है।  इसलिए अब कार्यक्रम में परिवर्तन करते हुए बेतवा नदी के दूसरे छोर पर वन विभाग के बनाये पिकनिक स्पॉट तुंगारण्य से बुंदेला शासकों की छतरियों के पीछे सूर्यास्त  दर्शन का कार्यक्रम बनाया गया।  अब गाड़ियां  सिर्फ दो थी , और लोग लगभग 35 से ज्यादा हो गये  थे । इसलिए पहले महिलाएं और बच्चों को गाड़ियों से तथा बाकि पुरुष सदस्यों को पैदल चलने का निर्णय लिया गया।  ( वैसे भी ओरछा बहुत बड़ी जगह नही है।  )
                                                                    ओरछा की गलियों - सड़को पर घुमक्कड़ी दिल से की टोपी लगा कर सब चल पड़े।  सब्जी मंडी होकर मुख्य मार्ग से बस स्टैंड होते हुए बेतवा पर बने राजशाही पुराने पुल से होकर सब तुंगारण्य पहुंचे।  इधर रास्ते में भी हमारे धुरंधर फोटोग्राफर अपनी हरकतों से बाज नही आये।  रास्ते में जो कुछ भी अलग सा दिखा सब उनके कैमरे में कैद हो गया।  मुम्बई वाले विनोद गुप्ता जी को रास्ते में मेरी बारात की बस भी मिल गयी फोटो खिंचवाने के लिए।  हम लोग तुंगारण्य पहुँच गए।  सुशांत सिंघल जी , जो न केवल एक बढ़िया सकारात्मक व्यक्ति है, बल्कि एक बेहतरीन फोटोग्राफर , लेखक और 58 साल के नौजवान है।  वो पुराने पुल से बेतवा, छतरियों और सूर्यास्त की  शानदार  छवियों को अपने कैद कर रहे थे।  वही हम लोग तुंगारण्य की  उस जगह पर पहुंचे , जहाँ से सूर्यास्त की सबसे बढ़िया झलक मिलती है।  इधर सूरज धीरे -धीरे छतरियों के पीछे बेतवा के जल में उतर रहा था , और हम लोगो पर महामिलन का नशा धीरे धीरे चढ़ रहा था।                    सब सूरज को कैद करने में लगे थे, वही जो लोग कैमरे से दूर थे, उनको कटरीना ट्री अपनी ओर खींच रहा था। कटरीना ट्री दरअसल  बेतवा किनारे एक अर्जुन (जिसे बुंदेलखंड में कोहा कहते है।  ) का पेड़ है , जिस पर नकली आम लटका कर कटरीना कैफ ने शीतल पेय  स्लाइस के विज्ञापन की शूटिंग हुई थी।  आपने भी टीवी पर स्लाइस का वो आमसूत्र वाला विज्ञापन देखा होगा।  इस पेड़ के बारे में व्हाट्स एप्प ग्रुप में पहले ही बता चुका था , इसलिए   कुछ पुरुष ( नाम नही बताऊंगा ) उस पेड़ को छूना चाहते थे , जिसे कटरीना कैफ ने छुआ था , उसके साथ फोटो भी खिचाना चाहते थे।  तो अब तुंगारण्य में तीन ग्रुप बन गए थे, एक जो बेतवा के पुल पर सूर्यास्त की फोटो खींच रहे थे , दूसरे ग्रुप में महिलाएं तुंगारण्य में पड़ी बेंच पर अपनी फोटो खिंचवा रही थी , तीसरे ग्रुप में कटरीना के दीवाने थे।  अब जब हमारे इनडोर वाले एडमिन मुकेश भालसे जी को ज्यादा देर तक आउटडोर देखकर कविता भालसे जी  तुरंत कटरीना वृक्ष के पास आयी , फिर क्या दूसरे एक तरह और ये सेलिब्रिटी जोड़ी महफ़िल लूट गयी।  बाकी लोग अब फोटोग्राफर बनकर फोटो खींचे के सिवा कर और क्या कर सकते थे।  बड़ी देर से ये मजमा देख रही पुरानी इंदौरी यानि ग्रुप की बुआ (जो मिनी मुम्बई से वाया कोटा असली मुम्बई पहुँच गयी है ) भी पहुँच गयी , तो असली मुम्बई के सामने मिनी मुम्बई कितनी देर टिकता ! और बुआ तो लाइट , कैमरा और एक्शन की मायानगरी की मायावी थी , बुआ की माया जो उनके आने से असरकारी थी, यहां भी काम कर गयी , और सारे फ़्लैश बुआ पर चमकने लगे।  इधर अपनी तरफ से मोहभंग होते देखकर सूर्यदेव ने भी डूबने में ही भलाई समझी।  हंसी-ठिठोली के साथ बढ़ते अँधेरे के साथ सब लोग बेतवा के पुराने पुल से वापिस बसेरे की ओर लौटने लगे।  
                                                                      पुल को पार करने पर कुछ लोगों को च्यास ( चाय की प्यास ) लग आयी , तो वही गुमटी पर चाय का आर्डर दिया गया , अब दुकान छोटी और टोली बड़ी तो वक़्त लगना जायज था।  खैर ज्यादा देर लगने पर कुछ लोग बिना चाय पीये ही चलने को तैयार हो गए , जो चाय पी चुके वो भी चल पड़े।  खैर साँझ ढल चुकी थी, बत्तियां जल चुकी थी , और ठण्ड भी जोर मारने लगी थी।  इसलिए मैंने होटल पहुंचकर सबको शाम पौने सात बजे तैयार होकर रामराजा मंदिर पहुँचने को कहा।  सात बजे से मंदिर के पट खुलते है, और शाम की आरती शुरू होती है। यहां दोनों समय की आरती में विशेष बात मध्य प्रदेश सशस्त्र बल के जवान द्वारा सशस्त्र सलामी दिया जाना है।  क्योंकि यहां राम भगवान ही राजा है , और उन्हें राजा के रूप में सलामी देने की परंपरा सदियों से चली आ रही है।  इसे मध्य प्रदेश शासन ने भी बनाये रखा।  आरती के बाद ओरछा का एक और आकर्षण ध्वनि और प्रकाश कार्यक्रम  ( sound and light show ) देखने जाना था।  सबको तैयार होने का बोलकर मैं अपने घर कुछ गरम कपडे पहनने आ गया।  इधर खबर मिली हरिद्वार से आ रहे मशहूर फोटोग्राफर घुमक्कड़ और इन सबसे विशेष एक आकर्षक व्यक्तिव पंकज शर्मा जी  झाँसी  पहुँच चुके थे  . ( जो अपनी ट्रेन 12  घंटे लेट होने से लेट हो गए ) मैं जब घर दिन भर से गायब रहने के बाद पहुंचा तो पत्नी जी ने कुछ नही कहा।  मगर मेरा आठ महीने का बेटा  जिसने पूरा  दिन  बीत जाने के बाद ही मुझे देखा तो मेरी गोद में आया तो फिर उतरने का नाम ही नही ले रहा।  इधर मंदिर की आरती का समय हो रहा था , उधर पंकज जी झाँसी पहुँच गए और घर पर अनिमेष बाबु गोद से उतारना ही नही चाहते थे।  जानते है , अगले भाग में


परिचर्चा में लगे घुमक्कड़ 


इस महामिलन के प्रस्तावक मुम्बई वाले विनोद गुप्ता जी 




कुछ इस तरह से प्रेम बढ़ गया 
                                       
जहाँ मौका मिला हमारे फोटोग्राफर्स चुके नही 


घुमक्कड़ी, फोटोग्राफी और ब्लॉगिंग में एक बड़ा नाम - सुशांत सिंघल जी 
                                     
तुंगारण्य से दिखता बेतवा का मनोरम दृश्य 

बच्चो ने वोटिंग का मस्ती के साथ खूब मजा लिया 

तो एक महिला ग्रुप फोटो हो जाये 

इधर पुरुष कटरीना वृक्ष को गले लगाए हुए थे 

कटरीना वृक्ष सबका आकर्षण बन गया था। 
भालसे दंपत्ति - कटरीना वृक्ष के तले 

ये बुआ जी की जीत हुई और कटरीना हार गयी 
                                       
लो अब ये दिन आ गए ... 
बेतवा के पुल से दिखती छतरियां 


तुंगारण्य से बेतवा का एक पैनोरमा फोटो 
... 

51 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही बढ़िया पोस्ट । सही कहा बुआ के कैटरीना ट्री के पास जाते ही शायद ही कोई कैमरा चुप रहा ।

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    1. प्रथम आगंतुक होने की बधाई । आभार

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    2. लम्बा कमेंट लिखने से हम पीछे हो गए वरना सबसे पहला मेरा ही होता ☺☺☺थैंक्स हैरी 👍

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    3. बुआ जी, आप तो पूरी पोस्ट में छाये हुए है ।

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  2. आपका आभार मुकेश जी, भूतकाल को पुनः वर्तमान बनाने, यानि टाइम मशीन को उल्टा घुमा कर 24 दिसम्बर तक ले जाने के लिए ताकि हम पुनः उस मस्ती भरे माहौल को जी सकें।
    कहीं कहीं प्रूफ चेकिंग की जरूरत है, कृपया ठीक कर लें।

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  3. जोरदार! जबरजस्त!!जिंदाबाद!!!जोरदार लेखन। मेरे भी मुंह में गुड़ आ गया पांडे जी क्या बोलू उस वक्त तो ऐसा लगा की समय थम जाये और मैं प्यार के इस समुंदर में यू ही गोते लगती रहूं ।सच कहूँ ऐसा पल मेरी जिंदगी में न आया था और न आएगा ....सबका प्यार इस बुआ की अचल सम्पति है जो कभी नष्ट नहीं होगी ।

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  4. पाण्डे जी यदि आप लोग (सभी ब्लॉगर मित्र जुटे हुए हैं) इसी प्रकार ओरछा को जीवंत करते रहे तो वो दिन दूर नहीं जब "घुमक्कड़ी दिल से" को आपकी सरकार ओरछा का ब्राण्ड एम्बेसडर नियुक्त कर दे या करना पड़े । वैसे ये दायित्व हम आप बिना नियुक्ति के भी भरपूर निभा रहे हैं । बाकि आपकी पोस्ट और फोटुवों ने हमहूं को गूँगा कर दिया जो गुड़ खा बैठे हैं ;)
    जय सिया राम

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  5. बढ़िया वर्णन...
    सब मज़े से खाने का आनंद ले रहे थे..
    इसी बीच बुआ जी एंड फॅमिली का जब हॉल मे प्रवेश हुवा,वो लम्हा कभो नहीं भूल पायेंगे, क्या शोर मचा था,मुझे भी समझ नहीं आ रहा था,पहले खाना ख़त्म करू या बुवा को प्रथम प्रणाम...इस कशमकश मे भीड़ ख़त्म होते ही खाना छोड़ कर उठ कर बुवा के पास पहुँच ही गया...और बाकि सभी से मिल लिया।
    इस समय विनोद भाई के चेहरे का नुर देखते ही बनता था,बहुत ही भावुक था..
    इसके बाद जब तुंगारण्य जाने लगे तो, बेतवा किनारे पुल पर अधिक समय रुकने के कारण हमारे तुंगारण्य पहुँचते पहुँचते सुर्यास्त हो चूका था।
    इसका बहुत ही अफ़सोस हुवा...
    तुंगारण्य के फोटोग्राफ्स कई दोस्तों को किसी विदेशी जगह से कम नहीं लगे।

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  6. बढ़िया वर्णन...
    सब मज़े से खाने का आनंद ले रहे थे..
    इसी बीच बुआ जी एंड फॅमिली का जब हॉल मे प्रवेश हुवा,वो लम्हा कभो नहीं भूल पायेंगे, क्या शोर मचा था,मुझे भी समझ नहीं आ रहा था,पहले खाना ख़त्म करू या बुवा को प्रथम प्रणाम...इस कशमकश मे भीड़ ख़त्म होते ही खाना छोड़ कर उठ कर बुवा के पास पहुँच ही गया...और बाकि सभी से मिल लिया।
    इस समय विनोद भाई के चेहरे का नुर देखते ही बनता था,बहुत ही भावुक था..
    इसके बाद जब तुंगारण्य जाने लगे तो, बेतवा किनारे पुल पर अधिक समय रुकने के कारण हमारे तुंगारण्य पहुँचते पहुँचते सुर्यास्त हो चूका था।
    इसका बहुत ही अफ़सोस हुवा...
    तुंगारण्य के फोटोग्राफ्स कई दोस्तों को किसी विदेशी जगह से कम नहीं लगे।

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  7. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  8. आपके पूर्व लेखों की तरह शानदार वर्णन , माँ बेत्रवती और अयोध्या वाले श्री प्रभु राम की श्री रामराजा बनने तक कहानी कई बार आपसे सुन,पढ़ चुके है। शाम को हुआ लाइट और साउंड शो बहुत बढ़िया लगा,अफ़सोस ऐसे वीर बुंदेली राजाओं के बारे में इतिहास में कभी नही पढ़ाया जाता।

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  9. पांडेय जी बहुत बढ़िया लिखा है ।एक बार फिर से यादें जीवंत हो गई । सारे प्रबधन के लिए एक बार फिर से आपका धन्यवाद ।।

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  10. पाण्डेय जी ....जय राजा राम जी की.... |

    बढ़िया और विस्तृत वर्णन किया आपने ओरछा मिलन महागाथा का ...| सच में हम लोग भी फिर से अतीत में चले गये....ओरछा की यादों में खो गये...|

    दोपहर का समय तो मैं भी नही भूल सकता ...जब बुआ जी आई थी... और दूसरा जब सब लोग दिल से केप पहनकर एक साथ हरदौल मंदिर और फूल महल एक साथ देखने गए...सभी लोग अपने अपने हिसाब से चित्रकारी में व्यस्त थे...

    धन्यवाद दिल से ♥ ओरछा के इस पल के लिए

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  11. बहुत सुन्दर आंखों देखा हाल सा जीवंत वर्णन। सभी को बहुत - बहुत बधाई

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    1. संध्या जी आप ने समय निकाल कर मेरी इस पोस्ट पर टिप्पणी की , यह मेरे लिए किसी प्रोत्साहन से कम नही है । कृपया यूँ ही स्नेह बनाये रखिये ।

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  12. bahut badhiya post Chandan ji....apke varnan se Orcha ka yeh milan bahut saalo tak padhne walo ko yadoo se jeevant karta rahega......Aisa lag raha hai me isko padhkar us chai wale ki gumti pe pahuch gaya...jaha ki chai meri sarvshrestha chai me se ek hai.............
    Kash chai aur yaade hamesha milti rahe dosto ki....

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    1. उन खूबसूरत यादों को शब्दों में ढालकर उन्हें सहेजने का प्रयास कर रहा हूँ । इस ब्लॉग पोस्ट के द्वारा ...
      आभार प्रतीक भाई

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  13. बहुत खूबसूरती से वर्णन किया है सर। मजा आ गया।

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    1. आभार चाहर साहब ! आप स्नेह बनाये रखिये , हमे भी मजा आता रहे ।

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  14. बहुत खूबसूरती से वर्णन किया है सर। मजा आ गया।

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  15. बहुत अच्छा लिखते हैं आप .. आपसे मिलने का सौभाग्य ओरछा में ही आकर मिलना था धन्य हुआ मैं .. मेरी पनोरमा इमेज को इस यात्रा लेख में जगह दी शुक्रिया पाण्डेय जी

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    1. आभार मित्र ! सौभाग्य तो मेरा है, कि आपसे मिल पाया । अफ़सोस व्यवस्थाओं की व्यस्तता में ढंग से मिल भी नही पाया ।

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  16. वापस से वह सारे क्षण याद आ गए..स्मृतिपटल से उन लम्हों की यादे जाने का नाम ही नहीं लेती...बहुत बढ़िया आपके द्वारा लिखा गया एक एक शब्द इस महामिलन को सालो साल याद करने के लिए काफी है...एक एक पल संजोया हुआ है..चाय लिख कर चाय की याद दिला दी..फिर एक एज कप पीने जाना पड़ेगा...

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  17. कटरीना पेड़ से चिपकने वाले उन "पुरुषों" का आपने नाम तो न लिया, पर उन्हें सबूत के साथ साक्षात् दिखा दिया! हा हा हा

    एक नया शब्द आपने गढ़ा "च्यास " गजब!

    एक बात जानना चाहता हूँ... इन मंदिरों को छतरी क्यों कहा जाता है?

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    1. आभार आर डी भाई !
      मंदिरों को छतरी नही कहा जाता है, दरअसल ये बुंदेला शासकों की समाधियां है । जिस तरह मुस्लिम मकबरे बनाते है, उसी तरह हिन्दू छतरी बनाते है ।प्रारम्भ में मृतकों की याद को बनाये रखने के लिए उनके दाह स्थल या दफ़नाने वाले स्थल पर पत्थर रखे जाते थे, जिन्हें महापाषाण (megalith) कहते थे । फिर कालांतर में इन्हें कलात्मक छतरीनुमा बनाने लगे , जिसे छत्रक कहा गया । मुस्लिमों के आने के बाद उनके मकबरों की तर्ज पर ये समाधियां भी भव्य बनाई जाने लगी , इन्ही को छतरी कहते है । मध्य प्रदेश और राजस्थान में ज्यादा है ।

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  18. बहुत सुन्दर तथा रोचक पोस्ट एवं चित्र संयोजन भी उम्दा. ओरछा सिरीज़ की इस आखिरी पोस्ट को बहुत इंजॉय किया. स्मृतियाँ शेष....

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  19. ओरछा की गलियों और छतरियों को देख मन प्रसन्न हो गया ! कटरीना के दीवाने रह रह के देख रहे हैं उस पेड़ को ! च्यास , एक नया शब्द मिला !! आज फिर से ओरछा की सब पोस्ट पढ़ीं दोबारा से ! मजा आ जाता है !!

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  20. खूबसूरती से वर्णन किया है पाण्डेय जी

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  21. aapka blog bhi acha, varnna bhi acha, nazare bh ache par aapne blog ka name aisa kyu rakha,

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    1. आभार सिन्हा जी, यूँ ही स्नेह बनाये रखे । नाम की भी कहानी है । कभी सुनाउंगा...

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  22. बहुत ही जबरदस्त लेख। घुमक्कड़ों के महामिलन का ऐसा सजीव वर्णन आप ही कर सकते हैं। मानो पूरा दृश्य आँखों के सामने तैर रहा हो। वैसे अपने ब्लाॅग के ऐसे ऊटपटांग नाम का भेद आपने कभी खोला कि नहीं?

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    उत्तर
    1. आभार बृजेश जी,
      ब्लॉग के नामकरण का भेद कई बार बता चुका हूं अब लगता है कि एक पोस्ट इसी पर लिख दी जाए ।

      हटाएं

ab apki baari hai, kuchh kahne ki ...

orchha gatha

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