मंगलवार, 14 जुलाई 2009

छोटू

बड़ी बेपरवाही से, आवाज़ आई , क्यो बे छोटू
बाल मन गिलास धोये, या जूठे बर्तन समेंटू
हर नुक्कड़,हर चौराहे, हर चाय की दूकान पर
बर्तन मांजते, डांट सुनते बाज़ार या मकान पर
ग्राहकों की झिड़की और मालिक की डांट
खाली गिलासों सी जिन्दगी, जूठन में कहाँ ठाठ
हर ढाबे-दूकान में पिसता छोटू का मासूम बचपन
मासूमियत खोयी, बस बचा कप-प्लेट और जूठन
कब तक मिलेंगे ये छोटू, चाय बेचते, कचरा बीनते
आख़िर क्यों ? हम उनका बचपन छीनते
छोड़ के पाठशाला, कब तक बनेंगे जिन्दगी के शिष्य
सोच लो ! ये छोटू ही कल बनेंगे देश का भविष्य
आपका अपना ही मुकेश पाण्डेय "चंदन"

6 टिप्‍पणियां:

  1. अच्‍छा लिखते हो। बहुत खूब भावनाएं रखते हो।

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  2. मुकेश जी,

    बहुत ही पैना नज़रिया और अच्छे भाव रचना को मार्मिक बना रहे हैं।

    खूब लिखिये.....


    मुकेश कुमार तिवारी

    जवाब देंहटाएं
  3. इस वर्ग पर कम ही लोगों की संवेदनशीलता जागती है.आपका आभार!!

    जवाब देंहटाएं
  4. bahut khub Mukesh ji, aap ne ek aise chetra ko chuna hai jahan bahut kam hee logo ki nigah pahuch pati hai, bas aise hee likhte rahiye. Shubhkamnaye

    जवाब देंहटाएं
  5. हकीकत से आँखें मिलाती एक संवेदनशील रचना मुकेश जी।

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com
    shyamalsuman@gmail.com

    जवाब देंहटाएं

ab apki baari hai, kuchh kahne ki ...

orchha gatha

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