बड़ी बेपरवाही से, आवाज़ आई , क्यो बे छोटू
बाल मन गिलास धोये, या जूठे बर्तन समेंटू
हर नुक्कड़,हर चौराहे, हर चाय की दूकान पर
बर्तन मांजते, डांट सुनते बाज़ार या मकान पर
ग्राहकों की झिड़की और मालिक की डांट
खाली गिलासों सी जिन्दगी, जूठन में कहाँ ठाठ
हर ढाबे-दूकान में पिसता छोटू का मासूम बचपन
मासूमियत खोयी, बस बचा कप-प्लेट और जूठन
कब तक मिलेंगे ये छोटू, चाय बेचते, कचरा बीनते
आख़िर क्यों ? हम उनका बचपन छीनते
छोड़ के पाठशाला, कब तक बनेंगे जिन्दगी के शिष्य
सोच लो ! ये छोटू ही कल बनेंगे देश का भविष्य
आपका अपना ही मुकेश पाण्डेय "चंदन"
विचारों की रेल चल रही .........चन्दन की महक के साथ ,अभिव्यक्ति का सफ़र जारी है . क्या आप मेरे हमसफ़र बनेगे ?
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orchha gatha
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अच्छा लिखते हो। बहुत खूब भावनाएं रखते हो।
जवाब देंहटाएंatisundar bhai likhate raho
जवाब देंहटाएंमुकेश जी,
जवाब देंहटाएंबहुत ही पैना नज़रिया और अच्छे भाव रचना को मार्मिक बना रहे हैं।
खूब लिखिये.....
मुकेश कुमार तिवारी
इस वर्ग पर कम ही लोगों की संवेदनशीलता जागती है.आपका आभार!!
जवाब देंहटाएंbahut khub Mukesh ji, aap ne ek aise chetra ko chuna hai jahan bahut kam hee logo ki nigah pahuch pati hai, bas aise hee likhte rahiye. Shubhkamnaye
जवाब देंहटाएंहकीकत से आँखें मिलाती एक संवेदनशील रचना मुकेश जी।
जवाब देंहटाएंसादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com